Manish Singh
वो तीन गोलियां ही काफी नही थी, तुम जान गए न. तुम जान गए कि जरूरत लाखों-लाख गोडसे और लाखों-लाख गोलियों की है. सो तुमने पूरी ताकत लगा दी. “मै भी गोडसे” के नारे पर. तुमने गोडसे के मंदिर बनवा दिए. अपने बच्चों के हाथों में हथियार थमा दिए. उन्हें रॉड और एसिड के बबूले दे दिए. उन्हें गालियां और गांधीवध की चौपाइयां रटा दीं. पर जब तुम घर-घर से गोडसे निकाल रहे थे, घर-घर से गांधी निकल आया.
अब देखो. मैं ही तो बैठा हूं, तुम्हारी राजधानी की सीमाओं पर. मैं सड़कों पर घूम रहा हूं. बागों में, यूनिवर्सिटी में मुस्कुरा रहा हूं. मैं ट्वीट भी कर देता हूं, पोस्टर भी लेकर आ जाता हूं. धरनों में बैठ जाता हूं. मैं ही सर फोड़वाता हूं. मैं जेल भी जाता हूं. मेरे ही आंसू बहते हैं और फिर मैं लाखों लाख की संख्या में ट्रैक्टरों पर सवार होकर आ जाता हूं.
और सच कहूं, तो तुम्हें शुक्रिया कहना चाहता हूं
शुक्रिया इसलिए कि मेरी अधूरी लड़ाई के लिए तुमने मुझे फिर से जिंदा किया. अधूरी लड़ाई… वही जो मैं तुम्हारी गोलियों का शिकार होने के पहले नोआखाली में लड़ रहा था. झूठ, लूट, अत्याचार और फिरकापरस्ती के खिलाफ, अन्याय के खिलाफ. तुमने जो नफरत फैलाई थी, उस नफरत के खिलाफ.
तो आज मैं फिर खड़ा हो गया. तुम्हारी कोशिशों की बदौलत. तुम्हारी लाठियों के सामने, एसिड के बबूलों के मुक़ाबिल. फिर सोचता हूं, गांधी की आवाज से गांधी का लहू ताकतवर था.
इसलिए फिर वही चाहता हूं. आओ, आगे बढ़ो. ये बूढ़ा सीना तुम्हारी छाती के बराबर चौड़ा तो नहीं है, लेकिन इसमें इतना लहू जरूर है कि मेरे देश मे लाखों गांधी और सींच दे. इसलिए पूछता हूं.
श्रद्धांजली देने आए हो, क्या पिस्तौल फिर लाये हो?