अमरनाथ पाठक/प्रमोद उपाध्याय
Hazaribagh: झारखंड के विभिन्न जगहों पर खासकर नागपुरी इलाके में इन दिनों मंडा पर्व की धूम है. रांची, रामगढ़, हजारीबाग समेत दूसरे जगहों पर मंडा पर्व धूमधाम से मनाई जाती है. इसमें शिवभक्ति की अनोखी आस्था दर्शायी जाती है. भक्त अंगारों पर दौड़ते हैं और सखुआ की डाली पर लगे लोहे के त्रिशूल की हुक के सहारे पीठ के बल घूमते हैं.
दक्षिण भारत से अमेरिका तक मनाया जाता है पर्व
यह दृश्य अपने आप में अद्भुत और अनूठा होता है. यह पर्व कई रहस्यों को खुद में समेटे हुए है. बहुत कम लोग जानते हैं कि झारखंड का यह मंडा पर्व मैक्सिको की माया सभ्यता से भी जुड़ा हो सकता है. इसकी पुष्टि मेगालिथ एक्सपर्ट व शोधकर्ता हजारीबाग के शुभाशीष दास भी करते हैं. उन्होंने बताया कि झारखंड ही नहीं, बंगाल, दक्षिण भारत के अलावा अमेरिका में भी अलग-अलग नाम से मंडा पर्व मनाया जाता है.
झारखंड में विशु, बंगाल में चड़क पूजा
झारखंड में यह विशु पर्व वहीं बंगाल में यह चड़क पूजा के रूप में भी मनाया जाता है. वहीं अमेरिका में इंका और माया सभ्यता से जुड़े लोग भी इस त्योहार को आस्था के रूप में मनाते हैं. विशु अर्थात विषुभ अपने नाम के अनुरूप महाविषुभ चैत्र संक्रांति के आसपास होता है. महाविषुभ के सूर्योदय को देखने की आदिवासियों की अतिप्राचीन परंपरा रही है. ऐसे में इस बात की पुष्टि हो जाती है कि आदिवासियों से जुड़ा यह पर्व है. हालांकि झारखंड में कुड़मी जाति के लोग भी मंडा पर्व धूमधाम से मनाते हैं. चूंकि इसे विशु पर्व के नाम भी जाना जाता है, जो विषुआ पर्व अर्थात सत्तुआनी यानी 14 अप्रैल के बाद से मंडा पर्व मनाने की प्राचीन परंपरा रही है. वैसे तो यह मूलतः आदिवासियों, आदिम जनजातियों एवं कुड़मी जनजातियों का पर्व है, पर कालांतर में सदानों के बीच भी यह समान रूप से प्रचलित हुआ है और दोनों समुदाय उसी उत्साह से इस पर्व को मनाते हैं.
कब हुई मंडा पर्व की शुरुआत
माया सभ्यता मैक्सिको की महत्वपूर्ण सभ्यता थी. इस सभ्यता का आरंभ 1500 ईसा पूर्व में हुआ. यह सभ्यता 300 ई० से 900 ई० के दौरान अपनी उन्नति के शिखर पर पहुंची. इस सभ्यता के महत्वपूर्ण केन्द्र मैक्सिको, ग्वाटेमाला, होंडुरास एवं अल-सैल्वाडोरर में थे. अगर मंडा पर्व की शुरूआत माया सभ्यता के आसपास मानी जाए, तो यह काल ईसा पर्व के अंत और ईस्वी सन के शुरुआती दौर से हुई.
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पीठ के बल घूमने का वैज्ञानिक कारण
विनोबाभावे विश्वविद्यालय हजारीबाग से जूलॉजी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. रजीउद्दीन कहते हैं कि पीठ में पेट की अपेक्षा मांस अधिक हैं. पेट की त्वचा में अगर कील फंसाकर घूमेंगे, तो आंत को सुरक्षा घेरा देनेवाली पेरिटोनियम झिल्ली की फटने का खतरा है. ऐसे में पेरिटोनाइटिस बीमारी हो सकता है. साथ ही गलती से अगर कील अंदर चुभ कई तो पेट के अंदर के कई अंग प्रभावित हो सकते हैं. ऐसे में पेट की अपेक्षा पीठ ज्यादा सुरक्षित है. रही बात अंगारों पर दौड़ने की, तो खाली पांव चलनेवाले लोगों के पैर की त्वचा काफी सख्त हो जाती है. साथ ही अंगारों पर दौड़ने की अवधि ऐसी होती है कि जब तक आग का प्रभाव पांव के उस प्वाइंट पर पड़ेगा, तब तक वहां से पांव उठ जाता है और दूसरा पार्ट वहां आ जाता है. ऐसे में पांव जलते भी हैं, तो काफी कम. कील पर घूमनेवाले और दौड़ने वाले एक्सपर्ट भी होते हैं, जो प्रायोगिक तौर पर इस बात के जानकार होते हैं.
सखुआ पेड़ और गुलंज फूल का खास महत्व
इस पर्व में उपवास रखने वाले पुरुषों को भोक्ता अथवा भगता और महिलाओं को सोखताइन कहा जाता है. इस पर्व में सखुआ पेड़ और गुलंज फूल की भी अहम भूमिका होती है. सखुआ पेड़ का खूंटा, पाट आदि साल भर तालाब में डूबाकर रखा जाता है. पर्व के समय इसे तालाब से खोजकर बाहर निकाला जाता है. उसी खूंटा पर भक्त लोहे की कील छिदवाकर झूलने की परंपरा निभाते हैं. सखुआ लकड़ी की यह विशेषता है कि वह पानी में सड़ता-गलता नहीं है. वह अधिक टिकाऊ होता है. इसी तरह गुलंज फूल का उपयोग सभी श्रद्धालु करते हैं. पूजा में तो उपयोग होता ही है, सभी भक्त उसका माला भी पहनते हैं.