जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे परिणामों से बचने के लिए ग्लासगो शिखर सम्मेलन दुनिया की “आखिरी सबसे अच्छी उम्मीद” की तरह है. 195 देशों के 20 हजार प्रतिनिधि शीर्ष नेताओं की उपस्थिति में दुनिया को बचाने की कोई राह निकाल पाने और उस पर सहमत होने का साहस दिखा पाएंगे या नहीं 31 अक्तूबर से शुरू हो रहा ग्लासगो सम्मेलन इसका गवाह बनेगा. जलवायु परिवर्तन और उसकी तबाही आर्थिक ताकत बनने की अंधी जंग और संसाधनों पर बढ़ते प्रभाव का सबसे बुरा नतीजा है. यह प्रमाणित होने के बावजूद क्या दुनिया अपने विकास की नीतियों और तरीकों में बदलाव कर सकेगी यह आज के संदर्भ में वास्तविक होता प्रतीत नहीं होता. जलवायु विशेषज्ञों की तमाम चेतावनियों के बाद भी न तो उत्सर्जन कम हुआ है और न ही जिस तरह के आर्थिक दबाव कोविड ने पैदा कर दिए हैं, उससे निजात पाने का तरीका ही उभर कर सामने आया है.
अमेरिका, चीन, ब्रिटेन,यूरोपियन यूनियन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में विकसित और उभरती अर्थव्यस्थाएं के रूख पर ही ग्लासगो से किसी उम्मीद के उभरने के सपने देखे जा सकते हैं. लेकिन ऐसे ही सपने तो पेरिस सम्मेलन के बाद देखे गए थे, जब तय किया गया था कि 2050 तक तापमान वद्धि को 1.5 रखने को लेकर सहमति बन गयी थी. पेरिस का यह संकल्प 2015 में लिया गया लेकिन पिछले छह सालों में यदि कोविड के दो सालों को अलग कर भी देखा जाए तो किसी भी बड़ी आर्थिक शक्ति वाले देशों ने कोई ऐसा कदम नहीं उठाया है.
संयुक्त राज्य अमेरिका वर्तमान में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है. ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद से किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में डाला है.पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका को पेरिस समझौते से बाहर निकालने और उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के वैश्विक प्रयासों से दूर रहने के बाद, यह इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता में लौट आया.राष्ट्रपति जो बिडेन पेरिस समझौते में फिर से शामिल हो गए और उन्होंने वादा किया कि देश अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 2005 के स्तर से 2030 तक 50-52 प्रतिशत की कटौती करेगा.लेकिन घरेलू जलवायु कानून कांग्रेस में विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रहा है. राजनयिकों और गैर सरकारी संगठनों ने कहा है कि ठोस नीतियों की कमी ग्लासगो में चीन, भारत और ब्राजील जैसे प्रमुख उत्सर्जकों को और अधिक करने के लिए अमेरिका के प्रयासों को कमजोर कर देगी.
चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश बन गया है. क्या चीन जलवायु संकट के इस दौर को बदलने के लिए तैयार है. चीन ने अपनी नयी नीतियों में सबकी समृद्धि की बात की जा रही है ओर पार्यावरण को भी महत्व देने की बात है. लेकिन चीन को ले कर पश्चिमी देशों में ही सवाल है. हालांकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि पिछले साल चीन ने 2030 में उत्सर्जन शिखर और 2060 तक कार्बन तटस्थता की योजना बनाई थी, लक्ष्य से 10 साल आगे वैज्ञानिकों का कहना है कि जरूरत है.चीन ने विदेशों में कोयला परियोजनाओं के वित्तपोषण को रोकने और 2026 में अपनी खुद की कोयले की खपत में कटौती शुरू करने का भी वादा किया था. लेकिन हाल के हफ्तों में बिजली की कमी के साथ आर्थिक मंदी ने नीति निर्माताओं के तर्कों को हवा दी है कि चीन अभी तक साहसिक कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है. ज्यादातर बड़े देश कोयला उत्पादन को कम करने और क्रमबद्ध खत्म किए जाने को लेकर किसी ठोस नीति तक पहुंचते नजर नहीं आते हैं.
सम्मेलन का नेतृत्व कर रहे ब्रिटिश मंत्री आलोक शर्मा ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि वार्ता “कोयला बिजली को इतिहास में भेज देगी.” 2019 में, ब्रिटेन ने 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने का वादा किया और इस साल की शुरुआत में 1990 के स्तर की तुलना में 2035 तक ग्रीनहाउस गैसों में 78 प्रतिशत की कमी करने के लिए प्रतिबद्ध ता की अभी तक बात ही कर रहा है. 27-देशीय यूरोपियन यूनियन ब्लॉक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 8% उत्पादन करता है और इसका उत्सर्जन वर्षों से नीचे की ओर चल रहा है. यूरोपीय संघ ने 1990 के स्तर से 2030 तक शुद्ध उत्सर्जन में कम से कम 55% की कटौती करने और 2050 तक उन्हें शून्य करने के लिए कानून के लक्ष्य निर्धारित किए हैं. अब इसके सदस्य देश उन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक विशाल विधायी पैकेज पर बातचीत कर रहे हैं. हालांकि यूरोप,अमेरिका और चीन की घोषणाओं को लेकर पर्यावरण एक्टिविस्ट ज्यादा संतोष के मूड में नही हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ग्लासगो सम्मेलन में भाग लेने वाले हैं. भारत भी एक गंभीर जलवायु संकट से घिरने लगा है. नयी दिल्ली ने कहा है कि मौजूदा 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष की प्रतिज्ञा पर्याप्त नहीं है और भारत 2050 तक शुद्ध-शून्य लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध होने की संभावना नहीं है. ब्राजील भी बड़े पैमाने पर अमेज़ॅन वनों की कटाई को रोकने के लिए वित्तीय मुआवजा चाहता है. दक्षिण अफ्रीका मजबूत सबूत चाहता है कि विकसित देश सालाना 100 अरब डॉलर का वादा करेंगे लेकिन यह भी कहता है कि यह आंकड़ा 750 अरब डॉलर जैसा होना चाहिए. भारत ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका एक ब्लक की तरह दुनिया की बड़ी ताकतों पर दबाव डालता रहा है.
सरकारों से अलग नागरिक समाज के प्रतिनिधि भी ग्लासगो से गरीब, आदिवासी और क्षेत्रीण विषमाता के जलवायु संदर्भ को फोकस करने के लिए दबाव बनाने को तैयार हैं. देखना होगा कि ग्लासगो जलवायु संकट की गंभीरता के खिलाफ एकजुट दुनिया का संकल्प बनेगा या फिर बड़बोले नेताओं की राजनीति का केंद्र बन कर रह जाएगा.