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4 फरवरी 1922 की चौरी चौरा का किसान विद्रोह स्वतंत्रता आन्दोलन की अभूतपूर्व घटना थी. इसके एक सौ साल पूरे होने वाले हैं. हम इतिहास के पन्नों पर चौरी चौरा की घटना को याद कर स्वराज प्राप्ति के लिए चलाए गए उस महान क्रांतिकारियों पर गौरवान्वित महसूस करते हैं. उसी प्रकार आजाद भारत के इतिहास में मौजूदा किसान आंदोलन की भी कोई सानी नहीं है.
वैसे चौरी चौरा विद्रोह की तुलना इस किसान आंदोलन से नहीं की जा सकती है. हां यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में आज तक इस प्रकार के किसान आन्दोलन नहीं हुए हैं. इसकी परिणति क्या होगी यह तो आने वाला समय ही बतायेगा. फिलवक्त किसानों के महापंचायत में जिस प्रकार भीड़ उमड़ रही है, वह ऐतिहासिक है.
झारखंड से करीब 450 किलोमीटर दूर उतर प्रदेश के गोरखपुर-देवरिया मार्ग पर चौरी चौरा अवस्थित है. वैसे चौरा और चौरी दो अलग अलग गांव है जो दो किलोमीटर की दूरी पर हैं. उस समय वहां भी किसान गेहूं, जौ, धान, अरहर, मटर, सरसों, आलू और गन्ना की खेती करते थे.
तब किसान खेतों के स्वामी न होकर किराएदार थे. जमीन्दारों को लगान देना पडता था. जबकि जमींदारों को जितना सरकार को लगान चुकानी पड़ता था उससे कहीं ज्यादा वे किसानों से वसूलते थे. जो किसान लगान देने में आनाकानी करते थे, जमींदार अपने कारिन्दों के मार्फत किसानों को जमीन से बेदखल कर दिया करते थे. चौरी चौरा विद्रोह के पीछे जमींदारों का शोषण और सरकारी तंत्र का सहयोग कारण था.
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01 फरवरी 1922 को चौरा थाना के दारोगा ने भगवान अहीर नाम के किसान को सरेआम बुरी तरह से पिटाई कर दी थी. दारोगा जमींदार खानदान से ही था, जिसके कारण किसानों का गुस्सा दारोगा पर कुछ ज्यादा ही था. किसान दारोगा की इस कार्रवाई से काफी नाराज थे. लिहाजा आसपास के गांव के किसानों को बुलाया और बैठक की. बैठक के बाद वे जुलूस निकाले और बाजार होकर थाना की ओर चले गए.
वहां दारोगा से बहस हो गई. किसानों ने पूछा कि भगवान अहीर को किस जुर्म के आधार पर पिटाई की गई है. किसानों द्वारा पूछे जाने पर दारोगा आग बबूला हो गया और किसानों पर लाठी चार्ज के साथ एकाएक गोली चलाने का आदेश दे दिया. प्रतिरोध में गुस्सायें किसानों ने थाना पर हमला कर दिया और आग के हवाले कर दिया. इसमें कई पुलिसकर्मी मारे गए.
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चौरी चौरा की घटना अचानक नहीं हुई थी. यह बात अलग है कि 4 फरवरी को किसान ने जो किया वह पूर्व नियोजित नहीं था. बल्कि लंबे समय से जमींदारों और पुलिस जुल्म के खिलाफ आक्रोश था. उस समय में भी मीडिया ने इस किसान आंदोलन को हिंसक और पुलिस की कार्रवाई को सही कहा था.
मीडिया ने जनता को हिंसक दर्शाने का ज्यादा प्रयत्न किया था. किसी की हिम्मत नहीं थी कि किसान विद्रोह की वास्तविक जानकारी दे सकते. मौजूदा समय में भी यही हाल है. शुक्र है कि अभी सोशल मीडिया है. नहीं तो आज भी किसानों की सही स्थिति का आकलन नहीं हो पाता.
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