Vikash Sood
किसान आंदोलन जिन तीन बिलों के खिलाफ हो रहा है उनमें से एक बिल में गेंहू-चावल को खाद्य सुरक्षा कानून से बाहर करने का प्रावधान है.
क्या आप जानते हैं उससे क्या होगा?
जानना चाहते हैं तो इस लेख को पढ़ना आपके लिये जरूरी है. आप बोलेंगे की होने दो जी. उससे हमें क्या? तो आपको 6 साल पीछे जाना पड़ेंगा. अच्छे दिन आने वाले हैं का धूमधड़ाका, पहले से शानदार चल रही अर्थव्यवस्था में अचानक और तेजी आयी और सब चंगा-चंगा चल रहा है.
फिर आता है साल 2015. महंगाई इंडेक्स में अधिकतर चीजे नेगेटिव हो रही थीं. लेकिन एक जगह अचानक तेजी दिखने लगी. और वो चीज थी दाल. तुअर, मूंग, अरहर की दाल. सबकी कीमतें आसमान छूने लगीं थी.
साल 2014 में 70-80 रुपये में बिकने वाली तुअर ने पहले 100 का आंकड़ा पर किया. फिर धीरे-धीरे 200-220 तक पहुंच गयी. अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या हुआ अचानक?
क्या इतनी कमी हो गयी थी दालों की? तो ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था. देश के तुअर और मूंग के 4 मुख्य उत्पादक प्रदेश मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा सब जगह ठीक-ठाक फसल हुई थी.
फिर ऐसा उछाल क्यों आया था?
तो थोड़ा और पीछे की घटना को समझें. 2014 में अडानी ग्रुप सिंगापुर की मल्टी नेशनल कंपनी विल्मार के साथ एक संयुक्त उपक्रम बनाती है अडानी विल्मार. और ये कंपनी फार्च्यून के नाम से खाद्य पदार्थों और तेलों की खरीद बिक्री आयात-निर्यात का काम करती है.
तो हुआ ये कि इस कंपनी ने और कुछ और इन्हीं जैसी कंपनियों ने मात्र 30 रुपये किलो में किसानों से दाल खरीदी. जमकर पूरे भारत में किसानों और छोटे स्टॉकिस्टों से खरीददारी की गई. लेकिन जब खाद्य कानूनों की अड़चन आई जिसमें स्टॉक की सीमा थी तो सरकार ने दालों को इन कानूनों के दायरे से बाहर निकाल दिया.
फिर क्या था?
बिना किसी लिमिट के प्रति दिन 300 टन दाल खरीदी गई और वो भी मात्र 30 रुपये किलो के भाव से और करीब 100 लाख टन दाल गोदामों में स्टॉक कर दी गई.
जब दालों की किल्लत बजार में हुई तो भाव आसमान छूने लगे और स्टॉक करने वाली अडानी की कंपनी ने भारी मुनाफा वसूली की.
यही नहीं, 5 से 6 महीनों तक म्यांमार से आयात नहीं होने दिया गया और जब स्टॉक खत्म हो गया तो व किसानों की फसल के आने के समय दालों का आयात किया गया. जो विदेशी कंपनियों के जरिये खरीदी गई और वो भी 80 रुपये किलो के भाव से. मतलब पहले जनता को लूटा, फिर सरकार के जरिये 30 की दाल सरकार को जनता की राहत के नाम पर 80 में बेची और फिर जब ये दाल बाजार में आई तो भाव गिर गए.
नतीजा किसानों को फिर बाजार के गिरे दामों के चलते सस्ते में दाल बेचनी पड़ी. तब तो फिर भी कानून थे, मोनोपोली के बहुत कम आसार थे.
यकीन मानो अगर ये नया कानून जस के तस लागू हो गये तो घर का पूरा बजट केवल अनाज और तेल ले जाएंगे. क्योंकि तब केवल दाल नहीं बल्कि हर खाद्य पदार्थ की कीमत आसमान छूयेगी और जनता और किसान केवल सर पीटते रह जाएंगे.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.