Faisal Anurag
जनप्रतिरोधों ने महामारी की त्रासदियों के बीच भी 2020 में जनतंत्र के मशाल को जलाये रखा है. यह मशाल दुनिया के हर हिस्से में जलती नजर आयी है. भारत में किसानों का आंदोलन हो या हांगकांग के लोकतंत्र समर्थकों का. यूक्रेन में निरंकुशता विरोधी आंदोलन हो या फिर चिली में कॉरपारेट के बढ़ते वर्चस्व के खिलाफ छात्र मजदूरों का प्रतिरोध. अमेरिका में नस्लवादविरोधी जनउभार हो या फिर फ्रांस के मजदूरों का. इस अर्थ में 2020 का महत्व यह है कि उसने लगभग 100 साल बाद की सबसे बड़ी महामारी में 18 लाख लोगों की मौत के बावजूद उसने उम्मीदों को खोया नहीं और न ही उसने एक इसांफपसंद दुनिया के सफर को रूकने दिया.
साल की शुरूआत भारत में अनेक शाहीनबागों से संविधान की रक्षा में तनी मुट्ठियों से हुई और वर्षांत किसानों के संघर्ष से रचे जा रहे नये इतिहास का साक्षी है. बीच के महीनों की सबसे बडी त्रासदी सिर्फ लॉकडाउन ही नहीं है, बल्कि श्रमिकों की वह घर वापसी का तकलीफदेह सफर भी है, जिसमें सैकड़ों श्रमिकों की जान गयी. हजारों किलोमीटर भीषण गर्मी का पैदल सफर भारत विभाजन की याद दिलाता है. इस घटना ने भारत के कल्याणकारी राज्य की छवि को बुरी तरह तार-तार कर दिया. इसने यह उजागर किया कि लॉकडाडन बिना किसी तैयारी के लागू किया गया. इसके साथ ही सरकारें संवेदनहीन किस तरह हो गयी है.
दिल्ली ने दंगों का दंश झेला और उसकी राजनीतिक आंच अब तक खत्म नहीं हुई है. नागरिकता कानून का विरोध करने वाले सैकड़ों छात्रों-एक्टिविस्टों को दिल्ली दंगों की आंच में झुलसाने की प्रक्रिया भी देखी गयी. इनमें कुछ को हाईकोर्ट ने जमानत दी है. लेकिन ज्यादातर अब भी जेल में हैं. दिल्ली पुलिस ने जिस तरह पूरक आरोप पत्रों की झड़ी लगायी है, उसने अनेक तरह के सवालों को जन्म दिया है. सरकार के विरोध में मुखर एक्टिविस्टों की गिरफ्तारी का लॉकडाउन के बावजूद पूरी दुनिया में विरोध हुआ है. लॉकडाउन का इस्तेमाल भीमाकोरेगांव हिंसा के नाम पर दर्जनों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का भी गवाह है. इसमें झारखंउ के फादर स्टेन स्वामी भी शामिल हैं.
महामारी के समय को दुनिया के कई शासकों ने निरंकुश अधिकारों को हासिल करने के साल के रूप में भी बदला. इसमें पोलैंड में तो संविधान ही बदल दिया गया और दुनिया के इन प्रभावी शासकों ने आजीवन सत्ता की हिमायत भी करा लिया. पुतिन ट्रंप जैसे कई शासकों ने तो आजीवन सत्ता संरक्षण हासिल किया. उनके सत्ता में नहीं रहने पर भी कोई कानूनी जांच या सजा का प्रावधान नहीं किया जा सकता है. भारत भी इस दौर में ही डेमोक्रेसी इंडेक्स में पिछड़ गया. नोबेल लॉरेट प्रो. अमर्त्य सेन ने देश में चर्चा और असहमति की गुंजाइश कम बताकर भारत के शासकों की प्रवृतियों पर टिप्पणी किया. उन्होंने यहां तक कहा कि देश में कोई व्यक्ति जो सरकार को पसंद नहीं आ रहा है, उसे सरकार द्वारा
आतंकवादी घोषित किया जा सकता है. मनमाने तरीके से देशद्रोह का आरोप थोपकर लोगों को बिना मुक़दमे जेल भेजा रहा है. प्रो. सेन इस तरह की बात करने वाले अकेले व्यक्ति नहीं हैं. पूरे साल में देशद्रोह के आरोप लगाये गये और लोगों को जेलों में बंद किये गये एक्टिविस्टों की संख्या दर्जनों में है.
इन हालातों के बावजूद भारत के किसान आंदोलन ने एक नये इतिहास को रचा है. इस आंदोलन ने भारत के प्रतिरोध आंदोलन का पूरा चेहरा बदल दिया है. भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार देखा गया है, एक आंदोलन ने सरकार के भारी प्रोपेगेंडा से प्रभावित हुए बगैर सरकार पर दबाव बनाया है. केंद्र सरकार को बातचीत के टेबल पर जिस दृढता का परिचय किसान नेताओं ने दिया है, वह भी बेमिसाल है.
किसानों ने न केवल कानूनों को निरस्त किये जाने की मांग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखायी है, बल्कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धुआंधार प्रचार के बावजूद अटल बने रहे. पहली बार कॉरपारेट के खिलाफ भारत के किसानों ने सीधा मोर्चा खोला है. पिछले 70 सालों में यह पहला ही अवसर है, जब सरकार कॉरपारेट के खिलाफ किसान एकजुट हैं और श्रमिकों का समर्थन भी उन्हें मिल रहा है. आर्थिक सुधारों के खिलाफ भारत के किसानों और मजदूरों के संघर्ष को दुनियाभर से समर्थन मिला.
दक्षिण अमेरिका के अनेक देशों में भी कॉरपारेट के खिलाफ संघर्ष उभरे. इसमें चिली प्रमुख है. बोलेविया में अमेरिकी हस्तक्षेप को जिस तरह इंडिजिनस लोगों ने परास्त किया उसका दुनिया के दूसरे देशों पर भी असर देखा गया. दुनिया पर सबसे ज्यादा असर तो जॉर्ज फ्लायड की हत्या की घटना ने डाला. इसने नस्लवाद के खिलाफ पूरी दुनिया को एकजुट कर दिया. डोनाल्ड ट्रंप का पतन भी इस साल की सबसे बड़ी घटना है, जिसका असर एशिया,यूरोप और अरब में महसूस किया जा सकता है. त्रासदी और संत्रास. 2020 का सिर्फ यही अनुभव भर नहीं है. बल्कि 2020 लोगों के आत्मसंघर्ष की प्रेरणाओं से भी रोशन है.