Baijnath Mishra
गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे अपमानित महसूस कर रहे हैं. उनका कहना है कि सांसद महुआ मोइत्रा ने उन्हें पिटबुल (एक प्रकार का खूंखार कुत्ता ) कहा है, वह भी झारखंडी विशेषण के साथ. दुबे जी को महुआ ने एक साक्षात्कार के दौरान इस उपाधि से नवाजा है. यह सांसद, संसद और झारखंड का अपमान है. निशिकांत दुबे ने महुआ मोइत्रा और साक्षात्कार लेनेवाले पत्रकार पर कार्रवाई की मांग सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर से की है. पत्रकार पर कार्रवाई की मांग इसलिए, क्योंकि उन्होंने झारखंडी पिटबुल जैसे विशेषण को प्रसारित-प्रकाशित किया है.
यह पहली बार नहीं है. इससे पहले भी बोफोर्स कांड में जब मशहूर वकील राम जेठमलानी ने सवाल पूछना शुरू किया था, तब राजीव गांधी ने उन्हें भौंकनेवाला कुत्ता कह दिया था. इसके जवाब में जेठमलानी ने कहा था कि कुत्ते चोर को देख कर ही भौंकते हैं. वैसे जो महुआ मोइत्रा दुबे जी को संसद में गुंडा तक कह सकती हैं, उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है ? यह महुआ की पारिवारिक , सामाजिक और राजनीतिक परवरिश को दर्शाता है. वैसे भी महुआ इस समय सन्निपात की अवस्था में हैं. बड़बड़ाना और फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल उनकी आदत है. फिर इस समय वह जिस व्यूह में फंसी हैं, उसका कारण भी एक कुत्ता ही है. उसका नाम हेनरी है. उसकी प्रजाति का तो पता नहीं, लेकिन उसमें कुछ ऐसे गुण जरूर हैं, जिनके कारण महुआ अपने अंतरंग मित्र एडवोकेट जय अनंत देहाद्रई से झगड़ बैठीं और देहाद्रई ने उनका ऐसा राज फाश कर दिया है, जिससे उनकी बेचैनी बढ़ गयी है.
दरअसल जो खबरें प्रकाश में आ रही हैं, उनके मुताबिक महुआ ने देहाद्रई से हेनरी को कुछ दिनों के लिए लिया और फिर उस पर इस कदर फिदा हुईं कि उसे लौटाने से इनकार कर दिया. जब देहाद्रई ने हेनरी की वापसी के लिए दबाव डाला, तो महुआ ने उन पर कई आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी. मजबूरन देहाद्रई ने महुआ से समझौता कर लिया और हेनरी की वापसी की जिद छोड़ दी. फिर महुआ ने भी केस वापस ले लिया. अब देहाद्रई ने सीबीआई से शिकायत की है कि महुआ मोइत्रा पैसे लेकर संसद में सवाल पूछती हैं. हालांकि सीबीआई ने अभी तक इस मामले में एफआईआर दर्ज नहीं की है, लेकिन इसी शिकायत के आधार पर गोड्डा सांसद निशिकांत दुबे ने लोकसभा स्पीकर को एक पत्र लिख दिया है. अब इस मामले की जांच संसद की एथिक्स कमिटी कर रही है, जिसके सामने निशिकांत दुबे और देहाद्रई की गवाही हो चुकी है.
बहरहाल महुआ इस कमिटी के सामने दो नवंबर को हाजिर हुई हैं. इस प्रकरण में एक अन्य किरदार हैं दर्शन हीरानंदानी. ये एक नामी बिजनेसमैन हैं. ये भी महुआ के खास मित्र हैं या थे. उन्होंने एक एफिडेविट में कहा है कि महुआ ने संसद का अपना लॉगिन और पासवर्ड उन्हें दिया था. महुआ ने अपने साक्षात्कार में इससे इनकार भी नहीं किया है. क्यों दिया था, इसके जवाब में उनका कहना है कि कोई भी सांसद अपने सवाल खुद टाइप नहीं करता. मैंने दर्शन को अपना लॉगिन-पॉसवर्ड इसलिए दिया था, ताकि उनका कोई कर्मचारी मेरे सवाल टाइप कर दे. लेकिन बिना मेरी जानकारी के कोई सवाल अपलोड नहीं किया जा सकता था और यह भी कि मैंने दर्शन से पैसे या महंगे गिफ्ट नहीं लिये. हां, उन्होंने मुझे कुछ तोहफे जरूर दिये थे. और जब मैं मुंबई या दुबई जाती थी, तो हीरानंदानी एक कार की व्यवस्था जरूर कराते थे. महुआ ने माना है कि उन्होंने निजी मित्र चुनने में गलती की है. इसके विपरीत हीरानंदानी का कहना है कि वह महुआ के देशी-विदेशी दौरों का खर्च भी उठाते थे. इसके एवज में अपना काम कराते थे.
अब सवाल यह उठता है कि क्या कोई सांसद अपना लॉगिन-पासवर्ड किसी दूसरे को दे सकता है? नहीं, हरगिज नहीं. एनआईसी के एक सर्कुलर के अनुसार सांसदों को दिया गया लॉगिन-पासवर्ड गोपनीय होता है. वह अहस्तांतरणीय होता है और उसे हर तीन महीने बाद बदल दिया जाना चाहिए. निशिकांत दुबे ने भी इसकी तस्दीक की है. फिर महुआ ने हीरानंदानी को अपना पासवर्ड क्यों दिया, जो गौतम अडाणी के व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी हैं? क्या महुआ के पास कोई पर्सनल असिस्टेंट या स्टाफ नहीं है, जो उनके सवाल टाइप कर अपलोड कर सके ? क्या सभी सांसद किसी व्यवसायी, उद्यमी या निजी कंपनियों से अपने सवाल टाइप या अपलोड कराते हैं ? इन सवालों के जवाब देना महुआ के लिए आसान नहीं होगा. वैसे भी महुआ आजादमिजाजी और दिलेर हैं. वह विदेश में पढ़ी-लिखी हैं. बैंकर रही हैं. उन्हें शानो-शौकत की जिंदगी पसंद है. उन्हें महंगे होटलों और क्लबों में जीवन की सार्थकता नजर आती है. जिन्हें नाक-भौं सिकोड़ना हो, सिकोड़ें, लेकिन महंगे व्यवसनों के लिए पापड़ तो बेलने ही पड़ते हैं. लेकिन हीरानंदानी ने अपने एफिडेविट में और भी बहुत कुछ कहा है. उनमें से एक है-महुआ के सरकारी आवास का रेनोवेशन. सांसदों, मंत्रियों के सरकारी आवासों की मरम्मत का काम सीपीडब्ल्यूडी करता है, न कि कोई प्राइवेट बिल्डर या व्यवसायी.
खैर इस मामले की जांच हो रही है. गृह मंत्रालय और आयकर विभाग उनके विदेश दौरों, हॉली डे आदि के खर्चों तथा आय के मामलों की जांच करा रहा है. सच सामने आयेगा. परंतु इतना तय है कि ज्यादा सयाने लोग जब घिरते हैं, तो उनके साथ हमदर्दी जतानेवाले किनारा कर लेते हैं. जिस ममता बनर्जी को महुआ अपनी मां बता रही हैं, उन्होंने इस मामले में मौन साध रखा है. डेरेक ओब्रायन ने भी सिर्फ इतना कहा है कि एथिक्स कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद ही पार्टी कुछ कहेगी. विचारणीय यह भी है कि जब कोई मामला संसद की कमिटी के विचाराधीन हो, तब क्या किसी आरोपी को उस मामले में मीडिया में सफाई देनी चाहिए ? क्या इसे संसद की तौहीन नहीं समझा जाना चाहिए ? आलम यह है कि उन्हें चढ़ाने भड़काने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी गैंग से लेकर एलीट और हांकू गिरोह में से कोई आज उनके साथ नहीं है. किशी शायर ने ठीक ही कहा है-
जब बुरे दिन आते हैं, साथ न देता कोई
मौत के समय आंख खुद उलट जाती है.
इस मामले में लाख टके का सवाल यह है कि क्या सांसद अपना लॉगिन-पासवर्ड किसी को भी देकर देश की सुरक्षा, संप्रभुता और संसद की पवित्रता, सर्वोच्चता को खतरे में डाल सकते हैं ? क्या महंगे तोहफों, सहूलियतों, पैसों तथा उपकारों के लिए हमारे सांसद जनता का भरोसा तोड़ने में भी संकोच नहीं करेंगे ? ध्यान रहे इसी तरह के मामले में 2005 में दस सांसदों की सदस्यता जा चुकी है. तब स्पीकर थे सोमनाथ चटर्जी, जो किसी तरह की मुरव्वत के हक में नहीं थे. वर्तमान स्पीकर से भी उसी तरह की कार्रवाई की उम्मीद की जा रही है, क्योंकि –
नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है, खुली छत परिंदों को बिगाड़ देती है
गुनाह करनेवाले उतने बुरे नहीं होते, अदालत सजा न देकर बिगाड़ देती है.
सवाल यह है कि महुआ की मेंबरी जाएगी या बचेगी और टीएमसी उन्हें दोबारा टिकट देगी या नहीं ?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.