Manish Singh
भारत की कीमत बढ़ी थी, उसके बाजार की वजह से. विशाल आबादी, दुनिया का सबसे बड़ा मध्यवर्ग, जिसकी जेब में पैसा था. कुछ पीढ़ी पहले जो वैश्विक उत्पाद हम हॉलीवुड की फिल्मों और मुम्बइया सिल्क शिफॉन सिनेमा में देखते थे, वह सारा प्रोडक्ट अपने बदन, अपने किचन, लिविंग रूम और पोर्च में भर देना चाहते थे.
हमारे सामने खरीदने को सारा जहां था, और सारा जहां हमें बेचने के लिए कंधे घिस रहा था. हम झूमकर टैक्स भर रहे थे, हां.. छुपा भी रहे थे. पर जितना दे रहे थे, वह समाज के सबसे निचले तल तक जा रहा था. उसे खड्डे खोदने का काम देते, तालाब, डबरी, सड़क.. जो भले ही हर साल बने और हर साल बहे. नकारा काम होते, मगर गरीब को न्यूनतम मजदूरी मिलती थी.
हम सब कलेक्टर नहीं बने, मगर नौकरी मिल रही थी. सॉफ्टवेयर, ऑटो, टूरिज्म, सर्विसेज, निकम्मे और अनपढ़ भी दस बारह हजार कमाने लायक कुछ पा ही जाते थे. सड़कों पर सफेद एम्बुलेंस घूमने लगी, डायल 100, डायल 102, डायल 1096 और जाने क्या-क्या.
एक निकम्मी सरकार थी. कभी चीन आंख दिखाता, कभी पाक धमाके करवाता. वो डोजियर-डोजियर खेलती, मिग मंगाती, राफेल का ऑर्डर करती. न्यूक्लियर डील करती. दावोस से हमारे नेता, इंडस्ट्रिलिस्ट और पत्रकार लाइव शो करते. आसियान, ब्रिक्स में हमारी इज्जत थी, पर दक्षेस फेल था.
अचानक डिस्कोर्स बदल गया. हमने गौरक्षा से शुरुआत की. मामला अखलाक से होते हुए रेपिस्टों की सम्मान रैली तक पहुंच गया. पाकिस्तान और पद्मावती हमारे होंशो हवास पर छाते गये. अब पूरा देश चुनावी तमाशे गिनता है. सीटें, वोट शेयर, जातिगत समीकरण, पप्पू, नेहरू, खिलजी, वन्देमातरम, ओवैसी.
न हम बाजार के रूप में बचे हैं, न टूरिज्म के. न निवेश है, न नौकरी, न बचत, न टैक्स, न व्यापार. फकीर का झोला हो चुके देश से विदेशी कंपनियां दुकान समेट रही हैं. स्वदेशी कंपनियां बिक या दिवालिया हो रही हैं.
मध्यवर्ग और निचला तबका पेट पर कपड़ा बांधकर मुट्ठियां भींच रहा है. उसे मुल्ले टाइट करने की आस अब भी बची है. वह काम धंधे छोड़ अपने नेता की चुनावी जीतों, और वंशवाद के खात्मे में आल्हादित है.
न दावोस, न आसियान, न ब्रिक्स में हमारी पैठ बची है. अमेरिका का नया रेजीम सीएए/कश्मीर जैसे मुद्दों पर विपक्ष में रहते हुए बखिया उधेड़ चुका है. अब सत्ता में आये, तो जाने क्या करे. दुनिया की दूसरी ताकत रूस से वह करीबी नहीं. तीसरी ताकत चीन घुड़की भी देता है, कारित भी करता है. नेपाल, भूटान, मालदीव, बांग्लादेश और श्रीलंका को भी चीन की गोदी में बैठाकर देश का भार हल्का कर दिया है.
पर टीवी पर बंगाल, बिहार की बहस है. डिफेंस बजट जीडीपी के प्रतिशत में गिरता गया है. फौजियों का सेवाकाल बढ़ रहा है, ताकि नया रिक्रूटमेंट और पुराने की पेंशन दो-तीन साल टल जाये. तब तक पेंशन भी आधी कर दी जानी है.
देशप्रेम का शोर कानफोड़ू है, पर 136 रफेल 36 में बदल चुके हैं. चीन अब भी सीमा में घुसा हुआ है, हम बदहवास फ्रांस से रफेल और अमेरिका से गर्म सूट खरीदने को आदमी भेज रहे हैं. POK आधिकारिक रूप से पाकिस्तान का हिस्सा हो गया, और लद्दाख में हम पीछे हटना स्वीकार कर चुके हैं.
इन दोनों बैटलग्राउंड से दूर राजस्थान में सुरक्षित राजा बाबू, 30 साल पुराने अर्जुन टैंक पर, योद्धा बने सवारी गांठ रहे हैं. जनता फोटो देखकर लहालोट है. हिन्दोस्तां का जनमानस बिग डैम फूल में बदल चुका है, राइट फ्रॉम टॉप. वह अपनी पिनक में मगन है. और देश उसे तो नेपाल भी बजाकर निकल रहा है.
हम वैश्विक घंटा बन चुके हैं.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.