Faisal Anurag
“नरेंद्र मोदी के निरंकुश प्रवृति और उनकी पार्टी को धन देने वालों के खिलाफ आक्रोश चरम पर है.” यह कड़ी टिप्पणी लंदन से प्रकाशित मशहूर अखबार द गार्डियन के संपादकीय में की गयी है. किसी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का यह संपादकीय दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है. इसका एक बड़ा कारण संपादकीय का कड़ा तेवर और ऐसे शब्दों का इस्तेमाल है, जो आमतौर पर किसी शासक के लिए नहीं किया जाता है. संपादकीय का शीर्षक है The Guardian view on India’s farming revolt: a bitter harvest इस संपादकीय में लॉर्ड हेलसाम के 1976 के भाषण को नरेंद्र मोदी को पढ़ने का सुझाव दिया गया है.
इस भाषण में लोकतंत्र को बहुमत के अंध समर्थन से तानाशाही में परवर्तित हो जाने के खतरे को लेकर आगाह किया गया है. किसानों के आंदालन के लेकर अमेरिका,ब्रिटेन और फ्रांस के कई अखबार अब तक टिप्प्णी करा चुके हैं. लेकिन द गार्डियन ने पहली बार नरेंद्र मोदी को एक हिंदू नेशनल्स्टि और आटोक्रेट प्रवृति का बताया है. इसके लिए लॉकडाउन पीरियड में जल्दबाजी में पारित कराये गये कृषि कानूनों की चर्चा की गयी है.
संपादकीय में नरेंद्र मोदी के संदर्भ में कहा गया है कि वे किसी से भी बिना सलाह मशविरा किए ही फैसला लेते हैं. बाद में इस फैसले पर संसद की मुहर रबर स्टांप की तरह लगावाने की बात कही गयी है. यह असामान्य टिप्प्णी को लॉकडाउन के दौर में हड़बड़ी में पारित कराए गए तीनों कृषि कानूनों का उल्लेख किया गया है.
द गार्डियन के अनुसार, इन कानूनों से भारत की दो तिहायी आबादी की आजीविका के प्रभावित होने की बात कही गयी है. अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन काल में कार्ल मार्क्स ने संताल हूल को जब संगहित एग्रेरियन विद्रोह कहा था. इंगलैंड में तब उसकी खूब चर्चा हुई थी और बाद में ब्रिटिश लोकतांत्रिक नागरिकों ने भारत को लेकर कृषि संबंधी सवालों पर विचार किया था.
गार्डियन ने लिखा है: भारत के प्रधान मंत्री कहते हैं कि सुधारों से किसानों को लाभ होगा. कृषि को कम से कम अद्यतन करने की आवश्यकता है क्योंकि यह देश की वाटर टेबल्स को तेजी से नष्ट कर रहा है.
लेकिन श्री मोदी ने संसदीय जांच को अवरुद्ध कर दिया और किसानों को सांसदों के माध्यम से आपत्ति उठाने से रोका. सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे की जांच के लिए एक समिति का गठन किया जो मोदी समर्थक आवाजों में हावी हैं.
हेलसम के कहे इलेक्टेड डिक्टेटर शब्द को द गार्डियन ने खास तौर पर उल्लेख किया है. भारत ने पश्चिम के विपरीत पूंजीवाद के परिपक्व होने के पहले लोकतंत्र को अपनाया. ऐसा जान पड़ता है कि मोदी इसे एक गलती मानते हुए हेलसाम के इलेक्टेड डिक्टेटरशिप का अनुसरण करते हुए औद्योगिककरण के लिए अपनाना चाहते हैं.
द गार्डियन का संपादीय गणतंत्र दिवस के ठीक पहले आया है. 26 जनवरी को होने वाले किसानों के ट्रैक्टर परेड को लेकर दुनियाभर में चर्चा हो रही है. योगेंद्र यादव ने इस किसान परेड के संदर्भ में कहा है, यह गण का 70 सालों के इतिहास में पहला परेड है. किसान नेताओं ने यह भी कहा है कि यह पहला अवसर है जब राजपथ पर जवान और आउटर रिंग रोड पर किसान परेड कर संविधान की रक्षा का संकल्प लेंगे.
किसान नेता तीनों कृषि कानूनों को संविधान के मूल्यों के खिलाफ बता रहे हैं. योगेंद्र यादव ने शाहजहांपुर बॉर्डर से वीडियो जारी कर कहा है कि किसान दिल्ली जीतने के इरादे से नहीं आ रहे हैं, बल्कि देश का दिल जीतने आ रहे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के प्रेस नोट में भी कहा गया है कि किसानों का परेड गणतंत्र के नागरिकों का दिल जीतने का प्रयास है.
किसान आंदोलन के संदर्भ में यदि केंद्र सरकार की निरंकुश प्रवृतियों की चर्चा विश्व मीडिया में हो रही है. भारत आबादी की लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. बावजूद इसके डेमोक्रेसी रैंकिंग में भारत लगातार पिछड़ रहा है. भारत की मुख्यधारा मीडिया भले ही इन सवालों को नजरअंदाज करे. पिछले छह सालों में दो बड़े आंदालनों से निपटने के भारत सरकार के रवैये ने भारत की लोकतांत्रित छवि को दुनिया भर में तार-तार किया है.
भारती की मुख्यधारा मीडिया जिस छवि का निर्माण करता है, वास्तविकता उससे बहुत अलग प्रकट होती है. द इकोनॉमिस्ट हो यह द टाइम ने पिछले सालों में कड़ी टिप्पणियां लिखी हैं.
इस बार का गणतंत्र दिवस कई अर्थो में भिन्न होने जा रहा है. भारत के गणातांत्रिक इतिहास में पहली बार गण अपनी ताकत और गणतांत्रिक चाहत की दावेदारी करता नजर आएगा. बली सिंह चीमा की ताजा कविता की एक पंक्ति खूब चर्चा में है, जिंदा है तो दिल्ली आ जा संघर्षों में शामिल हो. यह वही बली सिंह चीमा हैं, जिसका गीत ले मशाले चल पडे हैं लोग मेरे गांव के 43 सालों से देश के हर आंदोलनों में गाया जाता है.