Jyoti Kumari
Ranchi: परंपरागत पेंटिंग्स की जब बात होती है, तो मधुबनी पेंटिग का जिक्र लोगों की जुबान पर अक्सर होता है. बिहार की मधुबनी पेंटिग विश्वविख्यात है. पर झारखंड की ट्राइबल पेंटिंग को अबतक उस स्तर पर वह पहचान नहीं मिल सकी है. झारखंड की जनजातीय चित्रकारी को दुनिया के नक्शे पर लाने के लिए भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय झारखंड सरकार के साथ मिलकर होटवार स्थित डॉ रामदयाल मुंडा कला भवन में प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहा है.
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रांची में दस दिवसीय ट्राईबल पेंटिंग कार्यशाला का आयोजन कर रही है.
भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के पूर्व क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र कोलकाता और सांस्कृतिक कार्य निदेशालय, झारखंड सरकार द्वारा आयोजित इस कार्यशाला में क्षेत्रीय कलाकारों को नयी चीजं सीखने और सिखाने का मौका मिल रहा है.
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झारखंडी पेंटिंग में है प्राकृतिक सभ्यता
झारखंडी पेंटिंग्स प्रकृति से जुड़ी होती हैं. रांची की कलाकर दीक्षा सिन्हा बताती हैं कि यहां की पेंटिंग्स में कलर का शेड मिट्टी, जमीन, पेड़-पौधों से मिलने वाले रंग जैसा होता है. सोहराय पेंटिंग दिवाली के बाद बनाई जाती है. पाटकर कला कहानी या गाने को दर्शाती है. जादो पटिया एक लंबी पट्टी पर बनाई जाती हैं, जिसमें कोई न कोई कहानी होती है. ट्राईबल पेंटिंग में प्रकृति से मिलने वाले रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता है. अब बदलाव के कारण एक्रिलिक रंगों का प्रयोग होने लगा है.
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पारंपरिक कला का अस्तित्व कभी खत्म नहीं हो सकता
नागपूरी भाषा की प्रोफेसर डॉ अंजू कुमारी साहू अभी मुंडा पडिया कला पर काम कर रही हैं. वह बताती हैं कि झारखंडी गहनों के पारंपरिक डिजाइन को कपड़ों पर पेंटिंग के जरिए लाने का प्रयास में वह जुटी हैं. शादी में चौखट पर बनाये जाने वाले चौकपूर्ण जैसी विलुप्त होती कला को भी वह फिर से उजागर करने की कोशिश में लगी हैं. झारखंड के पढ़िया गमछा पर पर इन सभी कलाओं को उतारकर लोगों तक पहुंचाया जा सकता है. नई कलाएं अक्सर आती रहेंगी पर पारंपरिक कला कभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हो सकती. आज के दौर में युवाओं के बीच पारंपरिक आर्ट को लेकर अलग ही रुझान देखने को मिलता है. वह अपनी संस्कृति सभ्यता को लेकर ज्यादा जागरूक नजर आ रहे हैं. पुरानी कलाओं को वह अभी भी सीखना, सहेजना और जीवित रखना चाहते हैं.
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प्रचार प्रसार की है आवश्यकता
कार्यशाला में आये कलाकारों का कहना है कि झारखंड की ट्राइबल पेंटिंग काफी प्रभावशाली और गौरवशाली है. मगर इसकी पहचान अब तक नहीं बन पाई है. बिहार की मधुबनी पेंटिंग से जुड़े बहुत से कलाकार अच्छी कमाई कर रहे हैं. हमें भी जरूरत है कि हमारी ट्राइबल पेंटिंग का भी प्रचार प्रसार हो. इससे नये कलाकार जुड़ सकेंगे और हमारी सभ्यता संस्कृति बच पाएगी और इसका विकास हो पाएगा. कलाकार संजय वर्मा कहते है कि, इस कार्यशाला के जरिये लुप्त होती कला को उजागर किया जा रहा है. इस काम के लिए सरकार की तरफ से भी मदद की आवश्यकता है. दूसरे राज्यों के फोक आर्ट काफी डिवेलप कर रहे हैं. झारखंड की कलाएं उस तरह से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं. जहां से इन कला की शुरुआत हुई थी, वहां के कलाकार का इसके जरिए रोजी रोटी कमाना मुश्किल है. कई कलाकार जो इससे जुड़े काम करते हैं उन्हें उनका सही मेहनताना भी नहीं मिल पाता है.
कार्यशाला में गमछों पर नये तरह के पाटकर और जादो पटिया के नये डिजाइंस पर प्रयोग किया जा रहा है. इसका समापन 11 जनवरी 2021 को होगा. कला भवन के दीवारों का सुंदरीकरण जादो पटिया, सोहराय, कोहबर और पाटकर पेंटिंग से किया जा रहा है. नौ प्रशिक्षक, कलाकारों को प्रशिक्षित करेंगे ताकि वह राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला का प्रदर्शन कर सकें.
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