Nishikant Thakur
कभी कश्मीर, कभी छत्तीसगढ़, कभी ये पंजाब, तो कभी देश का कोई राज्य या हिस्सा… शायद ही कोई दिन बीतता हो, जब हमारे देश के रक्षाकर्मी आतंकियों और नक्सलियों के हमले में अपना सर्वोच्च बलिदान नहीं देते हों. यह दुखद ही नहीं, निंदनीय भी है जिसे सभी जानते हैं, लेकिन आतंकियों और नक्सलियों को अचानक हमला करने से कैसे रोक जाए, इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा पा रहा है. पिछले सप्ताह छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में जिस प्रकार एक ड्राइवर सहित आठ सुरक्षा जवानों को घात लगाकर मौत के घाट उतार दिया गया, ऐसा कृत्य किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा किया ही नहीं जा सकता.
निश्चित रूप से यह कृत्य दुर्दांत और हृदयहीन मानव द्वारा ही संभव हुआ होगा. यही कृत्य तो कश्मीर के पुलवामा में किया गया था, जिसमें हमारी सुरक्षा देश की सुरक्षा करने वाले 42 जवान असमय शहीद हो गए. यह ठीक है कि हमने दुश्मन के घर में घुसकर हवाई हमला करके उस परिवार को मरहम लगाया, जिनके सदस्य आतंकी हमले में काल के गाल में समाकर शहीद हो गए थे. बदला तो इसका भी लिया जाएगा, लेकिन हम अपने जवानों को आतंकियों और नक्सलियों के हमले से बचा नहीं सके. अब यह जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर ये नक्सलपंथी होते क्या हैं और इनका उदय कैसे हुआ.
गूगल बताता है कि नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से हुई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था. मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशसंक थे. इसी कारण नक्सलवाद को ‘माओवाद’ भी कहा जाता है. यही कारण है कि नक्सलियों ने भूमि-सुधार को अपनी मुख्य मांग बनाया है, ताकि वर्ग-समानता के भूमि-सुधार अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने में इसे ‘प्रथम-सोपान’ बनाया जा सके.
कुछ कम्युनिस्टों द्वारा गुरिल्ला युद्ध के जरिये राज्य को अस्थिर करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है. इसे ही नक्सलवाद कहा जाता है.
भारत में ज़्यादातर नक्सलवाद माओवादी विचारधाराओं पर आधारित है. इसके ज़रिये वे मौजूदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहते हैं और लगातार युद्ध के ज़रिये ‘जनताना सरकार’ लाना चाहते हैं. बीजापुर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर राष्ट्रपति और देश के गृहमंत्री अमित शाह ने दुख जताते हुए कहा है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से मैं अत्यंत दुःखी हूं और उनके स्वजनों के प्रति गहरी संवेदनाएं व्यक्त करता हूं. हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. हम मार्च 2026 तक भारत की भूमि से नक्सलवाद को समाप्त करके ही रहेंगे.
इन नक्सलियों का उद्देश्य भारत से गरीबी-अमीरी की दूरी को हटाना ही रहा था, क्या ऐसा सहज रस्ते पर चलकर नहीं किया जा सकता था? इसके उत्तर में उन नक्सलियों का कहना होता है कि बहरों को सुनाने के लिए जोर के धमाके की जरूरत होती है. कहा जाता है कि इन दुर्दांत घटनाओं को अंजाम देने के बाद भी वे अपने गुनाह को स्वीकार करने के स्थान पर कोई अफसोस भी नहीं जताते.
उनका मानना है कि उन्हें अपना अधिकार चाहिए, चाहे उसका तरीका कुछ भी क्यों न हो. इसीलिए और वे बहकावे में आकर अपनी भड़ास उनपर निकालते हैं, जो उन्हें सुधरने का मौका देना चाहते हैं. अन्यथा 1967 के बाद राज्यों की सरकारें बदलीं, केंद्र की सरकारें बदलती रहीं, लेकिन इन रक्त बीजों को समूल समाप्त करने में आज तक कोई सरकार सफल नहीं हो सकी.
अब प्रश्न यह है कि क्या कोई देश में रहकर देश के आमजन तथा सरकार को सीधी टक्कर दे सकता है? यदि सरकार ठान ले कि हमें खतरे को जड़ से समाप्त करना है, तो ऐसी उसकी क्या मजबूरी हो सकती है कि एक नक्सली संगठन सरेआम देश की सुरक्षा को धता बताते रहे. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह सरकार द्वारा ही प्रायोजित होता है, ताकि देश की जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटकाया जा सके.
इस बार बीजापुर की नक्सली घटना पर दुख जताते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि 2026 तक नक्सलियों को देश से समूल नष्ट कर देंगे, तो हमें उनकी बातों पर, भले ही अनमने ढंग से, विश्वास तो करना ही होगा. लेकिन, क्या इतने दिनों तक ऐसा संगठन भी चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा? लेकिन, यह बात समझ में नहीं आ रही कि आखिर क्यों अब तक नक्सली संगठन द्वारा हजारों हमारे सुरक्षाकर्मियों पर हमला करके उन्हें शहीद किया जाता रहा और सरकारें आती-जाती रहीं और उनका खात्मा नहीं हो सका!
ऐसी क्या मजबूरी सरकार की अब तक है, जो इन नक्सली संगठन से निपटने में वह कामयाब नहीं हो सकी है! यह ठीक है कि आरोप पिछली सरकारों पर ही लगाया जाता रहेगा, लेकिन फिलहाल लगभग दस वर्षों में केंद्र में तो उसी दल की सरकार है, तो फिर उसने अब तक ऐसा क्यों नहीं किया. वैसे सरकार यदि यह मन बना ले कि हमें देश से किसी प्रकार के आतंक और आतंकियों का सफाया करना है, तो फिर उसे ऐसा करने से किसने रोका है. ऐसा सोचने पर वहीं बात हमें लगने लगती है कि देश को गुमराह करने के लिए इन घटनाओं को कहीं प्रायोजित तो नहीं किया जा रहा है?
यही हाल कश्मीर के लिए सरकारी दावा किया जाता है कि धारा 370 को तथाकथित हटाने के बाद से वहां आतंकवाद समाप्त हो गया है, तो यह बात पूर्णतः असत्य ही नहीं, बल्कि सत्य के आसपास भी नहीं हैं. वहां अब भी आए दिन हमारे देश की सुरक्षा में तैनात जवान शहीद होते जा रहे हैं. इसे क्या कहा जा सकता है. उग्रवाद तो पंजाब से समाप्त किया जा चुका है. यह ठीक है कि उसे खत्म करने में समय तो लगा, लेकिन वह राज्य अब उग्रवाद से मुक्त है. सरकार को इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि किस प्रकार पंजाब ने अपने यहां उग्रवाद को खत्म करने का प्रयास किया, जिसमें वह सफल हुई.
क्या इस तरह की सफलता हम देश से नक्सलवाद और आतंकवाद को खत्म करने में नहीं प्राप्त कर सकते? यदि सरकारों की इच्छाशक्ति हो, तो ऐसे नक्सली और आतंकी संगठन फिर से पनपने का सपना देखना तक बंद कर देंगे. लेकिन, क्या ऐसा हो सकेगा? वैसे बीजापुर की नक्सली घटना के बाद जो बयान गृहमंत्री ने जारी किया, उस पर अमल और उसकी सफलता के लिए हमें इंतजार तो करना ही पड़ेगा. निश्चित रूप से हमें गृहमंत्री के बयान पर विश्वास करना ही पड़ेगा, क्योंकि बहुत देर से ही सही, उन्होंने उचित कदम उठाने का भरोसा दिया है, तो वह जरूर कामयाब हो सकते हैं.
डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं और ये इनके निजी विचार हैं.
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