Faisal Anurag
किसान आंदोलन शहीद भगत सिंह के चाचा शहीद अजीत सिंह के पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन की तरह डटा हुआ है. किसानों ने सरकार को भी साफ कर दिया है कि वे न तो किसी भ्रम के शिकार हैं और न ही किसी के झांसे में आयेंगे. कॉरपोरेट के दखल के खिलाफ किसानों ने एक बार फिर पगड़ी संभाल लिया है. किसानों ने जिस तरह सरकार को वार्ता टेबल पर हैरान और परेशान किया है तो इसका जमीनी आधार है. दुनिया के अनेक देश गवाह हैं, जहां किसानों के आंदोलनों ने इतिहास को बदल दिया है. मैक्सिकों का जापिस्ता आंदोलन का उदाहरण बार-बार दिया जाता है.
फ्रांस के किसानों ने भी हाल के दिनों में मैकरों सरकार की नींद हराम कर रखी है. यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी किसानों को छेड़ने का प्रयास कम ही होता है. कृषि कानूनों की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसे कोविड काल में अफरा-तफरी में पेश किया गया. किसान नेताओं और संगठनों से विचार विमर्श तक नहीं किया गया.
इससे धारणा बनी कि सरकार केवल कॉरपारेट के हितों के लिए खेती किसानी की बलि चढ़ा रही है, बल्कि बाजार के ओपन खेल में किसानों को मरने के लिए छोड़ा जा रहा है. इन आशंकाओं को उस समय और बल मिला, जब 70 दिनों तक पंजाब के किसानों ने जोरदार आंदोलन जारी रखा और साथ ही रेल यातायात इस कारण प्रभावित हुआ. पंजाब की सरकार ने जब एमएसपी को लेकर विधानसभा में कानून पारित कराया. तब भी केंद्र की नींद नहीं खुली. इसके विपरीत किसानों पर अनेक तरह के आरोप लगाये गये और आंदोलन को भ्रमित बताया गया. किसानों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वे अपनी सांस्कृतिक विरासत से गहरे रूप से जुड़े होते हैं और कृषि संस्कृति ही उनका अभिन्न अंग होता है.
पंजाब के किसान यदि यह कह रहे हैं कि उन्हें बिहार के किसानों की तरह बना दिया जायेगा. इसका गहरा अर्थ है.
पांच दौर की वार्ता के बाद किसान संगठनों और सरकार के बीच दूरी और बनी है. सरकार किसानों को भरोसे में नहीं ले पा रही है और किसानों का सरकार पर भरोसा भी नहीं है. कानून को निरस्त किये जाने से वे कम पर सहमत नहीं हैं.
8 दिसंबर के भारत बंद को जिस तरह समर्थन मिल रहा है. उससे जाहिर होता है कि किसानों के साथ श्रमिकों की भागीदारी भी बढ़ रही है. अब तक 16 राजनीतिक दलों ने बंद का समर्थन किया है. इससे केंद्र की परेशानी बढ़ गयी है. पिछले छह सालों में किसी एक आंदोलन के साथ पहली बार इतना व्यापक समर्थन दिख रहा है.
अब सरकार समर्थक विपक्ष के नेताओं को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं. 2006-7 के शरद पवार के एक सुझाव को भाजपा ने निशाने पर लेते हुए उनपर दोहरा मानदंड अपनाने का आरोप लगाया है. लेकिन सच्चई यह है कि शरद पवार ने तब भी मंडियों को सशक्त करने की मांग जोरदार तरीके से की थी. लेकिन उनपर आरोप है कि वे खेती को बाजार के लिए ओपन करने की वकालत करते रहे हैं.
राजनीतिक भ्रम के किसी भी आरोप की दायरे से किसानों का आंदोलन बाहर हो चुका है. कृषि कानूनों के प्रावधानों को लेकर जो बहस हो रही है. उसमें किसानों का समर्थन बढ़ता जा रहा है. सरकार यह समझ पाने में विफल है कि आखिर उसकी मंशा क्या है और किसके कहने पर कानूनों को लाने की तत्परता उसने दिखायी है.
राज्यसभा में जिन स्थितियों में विधेयक पास हुए थे, उससे भी किसानों का अंदेशा बढ़ा था. हालांकि मध्यवर्ग का एक तबका यह समझ नहीं पा रहा है कि ये तीनों कानून अंतत: उनके हितों का भी नुकसान करेंगे.हेमंत कुमार झा ने ठीक ही लिखा है, जिन्हें अपना पेंशन खत्म होने की कसक तो है. लेकिन विरोध करने का माद्दा नहीं, जिन्हें बेहद ऊंची दरों पर टैक्स भरने में खिन्नता तो घेरती है. लेकिन ‘देश के लिए’ चुप रहना ही एकमात्र विकल्प लगता है, जो बच्चों की ऊंची शिक्षा के बेतरह महंगी होते जाने से हलकान तो हैं. लेकिन इसके विरोध में छात्रों के आंदोलन का कोई संज्ञान तक नहीं लेते, वे किसानों के इस आंदोलन को लेकर कितने संवेदनशील होंगे, यह सहज ही आकलन किया जा सकता है.
इसपर गहरे मंथन की जरूरत है कि इस देश का पढ़ा-लिखा कामकाजी वर्ग, जिसे आमतौर पर शहरी मध्यवर्ग कहते हैं, वैचारिक तौर पर इतना दरिद्र कैसे हो गया कि आंदोलनों के प्रति उसकी संवेदनशीलता ही भोथरी हो चुकी है. उसे हर आंदोलन में कोई न कोई साजिश, कोई न कोई झोल नजर आता है.
लंबे समय तक मध्यवर्ग की भारत की राजनीति में बदलाव का वाहक बनता आया है. लेकिन इस बार किसानों ने उन्हें बहुत पीछे छोड़ दिया है. 9 दिसंबर को जब एक बार और किसान नेता और सरकार बातचीत के लिए बैठगी तो क्या उससे कोई रास्ता निकल सकेगा. हालांकि किसी हल की संभावना बनती नहीं दिख रही है, क्योंकि सरकार कानूनों को निरस्त करने के लिए तैयार नहीं है. जबकि किसान संगठनों का कहना है कि तीनों कानूनों का बुनियादी ढांचा ही किसान और खेती विरोधी है. इसलिए किसी भी संशोधन से उन सवालों का हल संभव नहीं है, जो किसान आंदोलन से उभर कर सामने आये हैं.