Vijay Shankar Singh
आज तक एक भी जन आंदोलन या जन समागम नही हुआ होगा, जिसमें अपराधी और गुंडा तत्व शरीक न हो गये हों. यहां तक की धार्मिक मेलों और कुम्भ के मेले में भी चोरों और गिरहकट, लुटेरे आदि आसानी से घुसपैठ कर जाते है. गुंडों और अपराधियों की यह घुडपैठ, हो सकता है उन जनआंदोलनों से जुड़े कुछ नेताओं की मिलीभगत भी हो और यह भी हो सकता है कि आयोजको को, गुंडों की इन घुसपैठों के बारे में पता ही न हो. यही हाल जन आंदोलन में हुए हिंसा के बारे में कहा जा सकता है. शांतिपूर्ण जुलूसों में भी दुकान आदि लूटने का काम कुछ मुट्ठी भर लुटेरे ही करते है, न कि पूरा जुलूस.
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पर दिल्ली पुलिस का गुंडों और लफंगों के सहारे किसी भी आंदोलन, धरना और प्रदर्शन को तोड़ने और फिर हिंसा फैला कर उसे तितर-बितर कर देने का यह नायाब आइडिया, उन्हें किस पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में पढ़ाया गया है, यह तो वहीं जानें. पर देश भर के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल तो यही सिखाते हैं, कि ऐसे गुंडों के बल पर न तो शांति व्यवस्था बनायी रखे जा सकती है औऱ न ही अपराध नियंत्रित किया जा सकता है. राजनीतिक लाभ के लिए, गुंडों के एहसान पर कानून व्यवस्था को बनाये रखने के नाटक का मूल्य पुलिस को ही चुकाना पड़ता है. और जब यह मूल्य चुकाया जाता है तो कोई राजनीतिक आका हमदर्द के रूप में दूर दूर तक नज़र नहीं आता है.
दिल्ली देश की राजधानी है और वहां पर होने वाली एक-एक घटना पर दुनियाभर के मीडिया की निगाह रहती है. ऐसी दशा में दिल्ली पुलिस हो या कहीं की भी पुलिस हो, को क़ानून व्यवस्था से निपटने के लिये किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े गुंडों को, अपने साथ नहीं रखना चाहिए. गुंडों का एहसान अक्सर भारी पड़ता है. और इसे कभी न कभी चुकाना भी, केवल पुलिस को ही पड़ता है. इसी प्रकार की गुंडा नियंत्रित या निर्देशित, अनप्रोफेशनल पुलिसिंग का कोई उदाहरण सामने आता है. तो, इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस एएन मुल्ला की एक बेहद अफसोसनाक टिप्पणी याद आती है.
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सत्ता तो बदलती रहती है. बेहद ऐश्वर्य पूर्ण साम्राज्य भी बदलते रहे हैं. पर यदि पुलिस और गुंडों की मिलीभगत भरी, यह जुगलबंदी कहीं, पुलिस की आदत बन गयी तो इसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ उन लोगों को भुगतना पड़ेगा जो पुलिस से विधिसम्मत कार्य की अपेक्षा रखते हैं. समाज मे आज भी ऐसे लोग अधिक संख्या में हैं जो पुलिस को साफ सुथरा और प्रोफेशनल देखना चाहते हैं. राजनीतिक लोगों की मजबूरी यह हो सकती है कि, वे गुंडों और आपराधिक तत्वों को पालें या उनकी पनाहगाह में पले. क्योंकि हमारी चुनाव प्रक्रिया अब तक अपराधियों की घुसपैठ रोक नहीं पायी है. पर एक वर्दीधारी औऱ संविधान के प्रति शपथबद्ध पुलिस अफसर की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है. कानून को कानूनी तऱीके से ही लागू किया जाना चाहिए. हमारी निष्ठा, प्रतिबध्दता और शपथ, कानून और संविधान के प्रति है, न कि किसी सरकार के प्रति या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति.
डिस्क्लेमरः लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं.