Faisal Anurag
बीस सालों के अमेरिका पश्चिमी प्रयासों का हश्र सिर्फ एक दिन में. काबुल किसकी जीत या हार है. काबुल के पतन की पृष्ठभूमि कहीं दोहा में ही तो तैयार नहीं कर ली गयी थी. जिन तीन लाख सैनिकों और पुलिस बल के आधुनिकीकरण और युद्ध कौशल के दावे किए गए वह कहीं भी लड़ता हुआ नजर क्यों नहीं आया? अफगानों ने अपने वोट से जिस अशरफ गनी को सत्ता दी थी, वह क्या अफगान को खून खराबे से बचाने के लिए ही भागे या फिर यह किसी योजना का हिस्सा था. इस तरह के अनेक सवाल दुनियाभर में उठ रहे हैं. दरअसल अफगानी इस अराजकता के शिकार हुए हैं. तालिबान के रहमोकरम पर उन्हें विश्व ताकतों ने छोड़ दिया है. लोकतंत्र,महिला आजादी और मानवाधिकार को एक ऐसे अंधकार में धकेल दिया गया है, जहां से रोशनी की तलाश भी असंभव है.
लंदन से प्रकाशित द गार्डियन ने लिखा है : अफगानिस्तान में 20 साल के पश्चिमी मिशन के अंतिम पतन में केवल एक दिन लगा.रविवार को राष्ट्रपति अशरफ गनी देश से भाग गए और अमेरिका ने दहशत में अपना दूतावास छोड़ दिया.
यहां तक कि खुद आतंकवादी भी अधिग्रहण की गति से हैरान थे. गार्डियन ने इसे बाइडेन प्रशासन के लिए अत्यंत शर्मनाक बताया है. ब्रिटिश अखबारों में ही रिपोर्ट है, जिसमें अफगान नागरिकों के हालात का मार्मिक विवरण दिया गया है. इस रिपोर्ट से जाहिर होता है कि एक मध्ययुगीन बर्बरता की वापसी हो गयी है और सारी दुनिया तमाशबीन बनी हुई है. दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतें तालिबान से रिश्ते और अफगानिस्तान में निवेश को लेकर संभावनाएं तलाश रही है. यदि लीबिया और सीरिया से अफगानिस्तान की तुलना की जाए तो पूरे घटनाक्रम को समझने में आसानी हो सकती है. अरब जगत में लीबिया और सीरिया दानों के पास मजबूत सैन्य ताकत है. लेकिन उस मजबूत सैन्य ताकत के खिला अमेरिका ने जीत हासिल किया. सीरिया का गृहयुद्ध साक्षी है कि किस तरह अमेरिका सीरियन सेना का मुकाबला करवा रहा है.
इन दोनों देशों की तुलना में तालिबान की सैन्य ताकत कहीं कमजोर मानी जाती है, बावजूद बगैर किसी प्रतिरोध की उसकी जीत को लेकर कूटनीतिक संशय की गुंजाइश तो बनती ही है. लोकतंत्र और खुली हवा ने बीस सालों में अफगान नागरिकों को भी बदला है. यही कारण है कि अफगान नागरिक कह रहे हैं कि उन्होंने अशरफ गनी को वोट दिया था, लेकिन उन्हें मुसीबतों में छोड़ दिया गया.
तालिबान बदला नहीं हैं. हालांकि उसका दावा है कि उसने इतिहास से बहुत कुछ सीख लिया है. तालिबान कह रहा है, उसके इस्लामी अमीरात में सबको साथ लिया जाएगा और गैर तालिबानों को भी सरकार में शामिल किया जाएगा. लेकिन तालिबान के मूल प्रस्थापनाओं में कोई बदलाव के संकेत नहीं मिले हैं.जिस तरह वहां के लोग किताबों को छुपा रहे हैं, टीवी हटा रहे हैं और घर की महिलाओं के लिए बुरका खरीदा जा रहा है, वह भविष्य का ही संकेत है. खासकर दक्षिण और मध्य एशिया में कट्टरपंथ का खतरा मंडराने लगा है. दुनिया भर की दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों को भी इससे ताकत मिलेगी. चीन और रूस के लिए भी यह घटनाक्रम दूरगामी साबित हो सकता है.
वैसे तालिबान चीन और रूस को विश्वास में लेने का प्रयास कर रहे हैं. पाकिस्तान में मौजूद और सुसुप्त तालिबान के उभरने के अंदेशे को नकारा नहीं जा सकता है. ताजिकिस्तान,कीर्गिसतान, अजरबैजान सभी देश परेशान दिख रहे हैं. सावियत संघ से अलग होने के बाद से इन देशों ने कट्टरपंथ की राह नहीं लिया और अपने अपने देशों में धार्मिक सद्भाव को बनाए रखा. मध्य एशिया के देशों की समस्या यह है कि अफगानिस्तान से उनमें से कुछ की सीमा लगती है और उन देशों में भी कट्टरपंथी विचारों वाले समूह मौजूद है. यद्यपि वे कमजोर और हाशिए पर हैं.
तालिबान नेता मुल्ला गनी बरादर उदार होने का संकेत तो दे रहे हैं, लेकिन अफगान नागरिकों को ही उसका भरोसा नहीं है. अफगान अराजकता के लिए जिम्मेदारी तो कोई नहीं लेगा, लेकिन पिछले 31 सालों में महाशक्तियों की महत्वकांक्षाओं और दुनिया के चौधरी बनने की प्रतिस्पर्धा ने इस खूबसूरत देश को कुल मिलाकर अनिश्चित भविष्य ही दिया है. मीडिया रिपोर्ट बताते हैं कि किस तरह काबुल, हेरात और कंधार में लोग डरे हुए हैं. लोकतंत्र की ऐसी करारी हार कम ही देखने को मिली है. सउदी अरब हो या संयुक्त अरब अमिरात ने खामोशी और दूरी बना रखी है. इरान भी चिंतित दिख रहा है. अमेरिका में बाइडेन को जबरदस्त आलोचना का शिकार होना पड़ा है. ऐसा लगता है कि डोनाल्ड ट्रंप इसी अवसर की तलाश में थे. ट्रंप ने तीखा हमला किया है. न्यूयॉर्क टाइम्स के हेडलाइन है : काबुल के अचानक पतन से अमेरिका के अफगान युग की समाप्ति. रिपब्लिकन पिछले चुनाव में ट्रंप की हार के बाद इस अवसर को अपनी राजनैतिक बढ़त के रूप में देख रहे हैं. अमेरिकी राजनीति पर तालिबान की इस फतह का गहरा असर पड़ने जा रहा है.
देर सबेर ही सही इस सवाल का जबाव तो अमेरिका से पूछा ही जाएगा कतर की राजधानी दोहा में अफगान शांति वार्ता आखिर क्या तय किया गया था कि एक अफगानी लोकतंत्र की कीमत पर कट्टरपंथी तालिबान को तरजीह दी गयी. दोहा वार्ता हालांकि ट्रंप ने ही शुरू किया था. सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने के लिए तालिबान को तैयार किया गया था. तालिबान को तब अमेरिका और पश्चिमी देशों ने ही मदद किया था. इमरान खान यह कई बार कह चुके हैं. काबुल में तब के शासक नजीबुल्लाह तक भोगे नहीं थे, इन्हें तालिबान ने सार्वजनिक तौर पर फांसी दिया. अमेरिका पर अलकायदा के हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैनिक भेजे, लेकिन 20 सालों तक तालिबान को खत्म नहीं कर सका. ज्यादातर अफगान तालिबान के समर्थक नहीं हैं, बावजूद उसे खुद पाली मिलता ही रहा. 15 अगस्त 2021 काबुल का पतन उदार और प्रगतिशील विचारों और व्यक्ति की स्वतंत्रता पर संजीदा प्रहार है.