Shivedndra
लोजपा में हुए विवाद ने और चिराग पासवान की वर्तमान परिस्थिति ने वंशवाद की सदियों पुरानी बहस को फिर हवा दे दी है. पार्टी से बगावत करने वाले चिराग के चाचा पशुपति पारस ने भतीजे चिराग को तानाशाह बताया है. ऐसे में जब लोग चिराग को वंशवाद का प्रोडक्ट बताते हुए पशुपति के कदम को सही बता रहे हैं, तो देश की राजनीति में पैठ वंशवाद को हम कैसे भूल सकते हैं.
बेशक, नेहरू-गांधी राजवंश द्वारा 6 दशकों से अधिक समय से शासित कांग्रेस पार्टी वंशवाद को भारतीय राजनीति के शासन सिद्धांत में बदलने के लिए जिम्मेदार है, लेकिन अन्य सभी दलों ने भी नेपोटिज्म वाली राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. मसलन, महाराष्ट्र में बाल ठाकरे परिवार और शरद पवार परिवार. बिहार में लालू यादव परिवार. जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला परिवार. मध्य प्रदेश में सिंधिया परिवार. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का परिवार. पंजाब में प्रकाश सिंह बादल और हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला और देवीलाल का परिवार, हिमाचल में वीरभद्र सिंह और दिल्ली में शीला दीक्षित जैसे परिवारों ने इसके फलने-फूलने की जिम्मेवारी उठायी. यानी यह रोग अब भारत के राजनीति शरीर में गहरे तक पैठ चुका है. चूंकि बिहार में अभी चाचा-भतीजे यानी चिराग और पारस का विवाद गरम है, तो आज बात बिहार की करते हैं.
जैसे राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस है, ठीक वैसे ही बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव भाई भतीजावाद के झंडाबरदार माने जाते हैं. बेटा-बेटी-बीवी-साले साहब सबको उन्होंने राजनीति में ला खड़ा किया. लेकिन उनसे थोड़ा पीछे चलें, तो मुख्यमंत्री थे सत्येंद्र नारायण सिन्हा उर्फ़ छोटे साहब. जिनकी पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू, सबके-सब लोकसभा के सदस्य बने. बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह के बेटे उनकी मर्जी के खिलाफ राजनीति में आये. श्री बाबू अपने बेटों को राजनीति में लाने के खिलाफ थे. लेकिन उनके पुत्रों शिवशंकर सिंह और बंदीशंकर सिंह ने राजनीतिक दुनिया में कदम रखा. दोनों विधायक रहे. बंदीशंकर सिंह तो मंत्री भी बने. हालांकि डॉ श्रीकृष्ण सिंह के परपोते 2015 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे और चुनाव हार गये. श्रीबाबू के परिवार से वर्तमान में कोई भी सदस्य किसी सदन में नहीं है.
दीप नारायण सिंह बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री थे जिनका कोई बेटा नहीं था, तो उनकी विरासत आगे नहीं बढ़ी. तीसरे मुख्यमंत्री विनोदानंद झा के पुत्र कृष्णानंदन झा अभी झारखंड की राजनीति में सक्रिय हैं. वे बिहार में पूर्व मंत्री भी रहे हैं. इसके अलावा केबी सहाय और महामाया प्रसाद सिंह के परिजनों ने भी राजनीति में हाथ आजमाने के प्रयास तो किये, मगर पार्टी और जनता ने कोई खास समर्थन नहीं दिया. 1968 में महज़ 3 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने सतीश प्रसाद सिंह की बेटी सुचित्रा सिन्हा राज्य सरकार में मंत्री रह चुकी हैं और राजनीति में काफी एक्टिव हैं. सातवें मुख्यमंत्री बीपी मंडल के पुत्र मणिंद्र कुमार मंडल उर्फ ओम बाबू, एक टर्म जदयू के विधायक रहे. उनके अन्य परिजन भी सियासत में हैं.
रामसुंदर दास और अब्दुल गफूर के पुत्र, दरोगा प्रसाद राय के बाद उनकी पत्नी, उनके पुत्र, कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर, ये सब विधायक बने. कर्पूरी ठाकुर के पुत्र तो मंत्री भी बने और राज्यसभा सदस्य भी.
केदार पांडेय के पुत्र, चंद्रशेखर सिंह की पत्नी, भागवत झा आजाद के पुत्र कीर्ति आजाद, ये सभी सांसद बने. डॉ. जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नीतीश मिश्र मंत्री भी रह चुके हैं.
अगर देखा जाये तो बिहार के मुख्यमंत्रियों की लिस्ट में सिर्फ नीतीश कुमार ही ऐसे हैं, जिनके परिवार से फ़िलहाल कोई पॉलिटिक्स में नहीं उतरा. अगर नेपोटिज्म के इन नायकों को कटघरे में खड़ा किया जाता है तो ये काफी मासूम बन कर कहते हैं कि उन्हें जनता ने योग्यता के आधार पर चुना है. लेकिन हकीकत यह है कि भारत में राजनीति जनसेवा का माध्यम न होकर एक पारिवारिक व्यवसाय है.
राजसिंहासन वाले राजाओं की जगह नेताओं और उनके खानदान ने ले ली है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने वंश को आगे बढ़ाते जा रहे हैं. कमोबश हर दल में यही हाल है. अगर डैडी जी सांसद हैं, तो उनके प्यारे शहजादे या शहजादी उनके निर्वाचन क्षेत्र को अपने उत्तराधिकार के रूप में देखते हैं. भारत के लगभग हर हिस्से में और हर पार्टी में नेपोटिज्म (वंशवाद) पैठ जमाये बैठा है. आपकी शिक्षा-दीक्षा जो भी हो, मेरिट, सार्वजनिक जीवन, ज्ञान, कौशल, सब बेकार है. अगर आपके पास सही सरनेम है तो अगले चुनाव में टिकट पक्का है. आजादी के बाद करीब तीन चौथाई सदी पुराना होने के बावजूद हमारा लोकतंत्र ‘लोक’ से काफी दूर रह गया है.