Vijay Shankar Singh
सीजेआई जस्टिस एनवी रमन्ना का यह कथन संसद की कार्यशैली पर एक टिप्पणी है और यह इस बात का संकेत है कि सरकार बनाये जाने वाले कानूनों की गुणवत्ता, मंशा और उद्देश्य के बारे में कंफ्यूज रहती है. नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में शायद ही कोई कानून ऐसा बना हो जो सेलेक्ट कमेटी के परीक्षण के बाद बना हो. टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने तेजी से बनाये जा रहे कानूनों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि सरकार चाट पापड़ी की तरह कानून बना रही है. सांसद डेरेक एक राजनीतिक व्यक्ति हैं तो उनका कमेंट तंजिया और राजनीतिक है. लेकिन सीजेआई एक क़ानूनदा और देश की न्यायपालिका के प्रमुख हैं तो इनका कथन, परिमार्जित और शालीन है.
यह सरकार संवाद में यकीन नहीं करती है. यह सरकार हर संवाद को विवाद की नज़र से देखती है. चाहे नोटबंदी की बात हो या जीएसटी लागू करने की या चीन के साथ सीमा विवाद की या महामारी से निपटने के नीतियों की या जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की या नागरिकता कानून में संशोधन करने की या कृषि सुधार के नाम पर लाये गए तीनों कृषि कानूनों की या बड़े सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के नाम पर पूंजीपतियों को बेचने की या एलआईसी सहित, रेलवे, कैंटोनमेंट की जमीनें बेचने से जुड़े कानून सहित अन्य महत्वपूर्ण विधेयकों की, हर कानून आनन-फानन में हंगामाखेज माहौल में पास कराया गया है.
60 वर्षों तक संसदीय जीवन का अनुभव रखने वाले एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने एक सनसनीखेज आरोप लगाया कि 50-60 गुंडे बुला कर सदन के अंदर महिला सांसदों से दुर्व्यवहार कराया गया और उसी हंगामे में एलआईसी का बिल पास कराया गया.
यह सारे कानून सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज होंगे और वहां इनपर न्यायिक, इनकी ज़रूरत, मंशा और उद्देश्य पर बहस होगी और जब सुप्रीम कोर्ट में सरकार असहज होगी, तो कहा जाएगा कि, यह न्यायिक सक्रियता है या न्यायपालिका का कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण है. तब यह भी कहा जायेगा कि यह शक्ति पृथक्करण (Seperation Of Powers) के सिद्धांत का हनन है. पर सरकार और कानून बनाने का दायित्व निभाने वाला कानून मंत्रालय यह नहीं सोचेगा कि कानून को निर्धारित संसदीय प्रक्रिया के अनुसार पास क्यों नहीं कराया गया.
संसद में कानून बनाये जाने की प्रक्रिया भी दी हुई है और कौन किस-किस विषय पर कानून बना सकता है, यह भी तय है. पर सरकार कृषि कानून, कृषि व्यापार के शीर्ष में बनाती है, क्योंकि उसे अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना है और जब ओबीसी पर जातियों का विवाद सामने आता है, तो इसे टालने के लिए वह संविधान में संशोधन करके इसे राज्यों को भेज देती है.
लोकसभा के अध्यक्ष हों या राज्यसभा के उपसभापति और सभापति, सभी सदन में हो रहे हंगामे से परेशान तो हैं और राज्यसभा के सभापति वैंकेया नायडू और उपसभापति हरिवंश तो, बेचारे बन कर रो भी चुके हैं. पर, जब किसान बिल पर मत विभाजन की मांग हुई तो हरिवंश और एलआईसी पर मत विभाजन की मांग हुई तो वेंकैया नायडू ने उसे स्वीकार न करके ध्वनिमत से, विधेयक को पारित घोषित कर दिया. फिर बेचारे रोने लगे. दोनों को पता था कि मत विभाजन की मांग मान लेने पर, यह बिल राज्यसभा से पास नहीं हो पायेगा. पर क्या वे बेबस थे कि बिल पास कराना ही है?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.