Faisal Anurag
कोआपरेटिव फेडरलिजम यानी सहकारी संघवाद. नीति आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच के अंतरसंबंधों पर जोर दिया. दरअसल सहकारी संघवाद के वर्तमान हालात को लेकर सवाल उठते रहे हैं. केंद्र पर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में बेवजह दखल देने के आरोप भी हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बारबार सहकारी संघवाद का उल्लेख कर दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी सरकार न केवल लोकतंत्र के संवैधानिक मूल्यों पर अमल करती है बल्कि संविधान प्रदत्त संघवाद की संरचना को मजबूती देती है.
प्रधानमंत्री के दावे के उलट भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण और सहकारी संघवाद के सहअस्तित्व को लेकर अंदेशा व्यक्त किया जाता रहा है. इस संदर्भ में डेमोक्रेसी के ताजा रिपोर्ट को याद किया जा सकता है जिसमें भारत 53वें स्थान पर है. 2020 में भारत 51वें स्थान पर था. 2018 में उसका स्थान 41वां था. तीन सालों में 41 से 53 पर खिसकना लोकतंत्र के साथ सहकारी संघवाद को लेकर गहरा सवाल उठाता है.
डेमोक्रेसी इंडेक्स का निर्धारण चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता ओर स्वतंत्रता, बहुलतावाद, नागरिक स्वतंत्रता और सरकार के कामकाज को ध्यान में रख कर ही तैयार किया जाता है. सहकारी संघवाद के लोकतांत्रिक व्यवहार को इस संदर्भ में गहरायी से देखा जाना चाहिए. सहकारी संघवाद केवल किसी राज्य या केंद्र के सहकार पर ही निर्भर नहीं करता है. बल्कि नीति निर्धारण में राज्यों के विचारों को अहमियत देने से भी सरोकार रखता है.
तीन कृषि कानूनों का उदाहरण दिया जा सकता है. यह कानून पहले अध्यादेश के रूप में लाया गया. फिर संसद से पारित करवाया गया. देश के आधे दर्जन से ज्यादा राज्यों ने आरोप लगाया कि इस संदर्भ में न तो उन्हें विश्वास में लिया गया और न ही उनसे विचार विमर्श किया गया.
आरोप लगाने वालों में महाराष्ट्र,पंजाब, केरल और बंगाल जैसे राज्य शामिल हैं. क्या यह सहकारी संघवाद की वास्तविकता को उजागर नहीं करता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविड से निपटने में केद्र राज्य के सहयोग की खूब चर्चा की है. लेकिन राज्यों के अपने पक्ष है जिनकी चर्चा नहीं की जाती है.
राजनैतिक तौर पर सहकारी संघवाद की सहजता के लिए जरूरी है कि सत्तारूढ और विपक्ष के दलों के साथ भी एक सहज विचार विमर्श की प्रक्रिया हो. लेकिन 2014 के बाद से देश में विपक्ष को आरोपों से बदनाम किया जाता रहा है. दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने उर्जा पर बोलते हुए कहा कि पहले की सरकारों ने उर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को अपना लिया होता तो मूल्यवृद्धि का संकट ही नहीं आता.
प्रधानमंत्री यह भूल गए कि ओएनजीसी का निर्माण किन हालतों में किया गया था. और लाभ कमाने वाले इस सरकारी प्रतिष्ठान को अब बेचे जाने की चर्चा क्यों जा रही है. भारत में उर्जा स्रोतो की खोज के लिए ओएनजीसी के साथ किस तरह के खिलवाड़ हुए हैं. यह जानकारों से छुपा हुआ नहीं है.
प्रधानमंत्री ने विनिमेश प्रक्रिया को एक बार फिर सही बताया है. नीति आयोग को संबोधित करते हुए उन्होने कहा कि देश को ज्यादा धन की जरूरत है ताकि सुधारों को जारी रखा जा सके. कृषि सेक्टर को ज्यादा से ज्यादा आधुनिक तकनीक देने और धन प्रवाह के लिए आर्थिक सुधार अनिवार्य है.
कृषि, बुनियादी ढांचे, विनिर्माण, मानव संसाधन विकास, जमीनी स्तर पर सेवा वितरण और स्वास्थ्य और पोषण के लिए आर्थिक सुधारों की अनिवार्यता पर जोर दिया जा रहा है. सहकार संघवाद के लिए जरूरी है कि विकास की नीति और प्रक्रिया में राज्यों के विचारों को महत्व दिया जाए. राज्यों को केवल योजना को अमल लाने वाली एजेंसी भर नहीं समझा जाए.
सहकारी संघवाद का संबंध भारतीय समाज,संस्कृति और राजनीतिक विविधता से भी है. जीएटी राशि के राज्यों की हिस्सदारी का विवाद पुराना नहीं है. कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सारे रूप से केंद्र पर राज्यों की उपेक्षा का सवाल उठाया है.
राज्यों को लगता है कि उसके अधिकार क्षेत्र में केंद्र के दखल से राज्य के लिए विकास राशि जुटाने में बाधा आ रही है. इस तरह के आरोप केरल,पंजाब, झारखंड सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री विभिन्न रूप से लगाते रहे हैं. कर बंटावारे को लेकर राज्यों की शिकायते सहकार संघवाद सहजता के लिए चुनौती रही हैं. इसी तरह राज्यों के राजनीतिक अस्थिरता के समय केंद्र और राज्यपाल की भूमिका भी सवालों में है. महाराष्ट्र में जिस तरह हाल ही में फडनवीस को शपथ दिलाया गया था उसे अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसे अनेक उदाहरण केंद्र के दखल को ही बताते हैं.
एक विशेषज्ञ सिंबायोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में लॉ स्टूडेंट सिद्धार्थ कपूर के अनुसार केंद्र की फंडिंग से चलने वाली कई बड़ी, फ्लैगशिप योजनाएं लागू की. यह उसके सत्ता के विकेंद्रीकरण के वादे से मेल नहीं खाता. इन योजनाओं के लक्ष्य तय करने और उन्हें तैयार करने में राज्यों की कोई भूमिका नहीं है. मिसाल के लिए, केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में ‘आयुष्मान भारत’ नाम की विशाल योजना शुरू की है.
जिसे विपक्षी दलों के शासन वाले कई राज्य अपनी अधिकार क्षेत्र में दखल मानते हैं. ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, कर्नाटक और दिल्ली ने इसे लागू करने से इनकार कर दिया था. केंद्र सरकार ने पीएम-किसान नाम की योजना के ज़रिये किसानों की वित्तीय मदद शुरू की है. इस पर भी राज्यों की राय नहीं ली गई.
केंद्र राज्यों के बीच के संबंध का सवाल नया भी नहीं है. कांग्रेस के जमाने से यह सवाल उठता रहा है. विपक्ष के अनेक दलों के दबाव के बाद सहकारिया आयोग का गठन 1988 में किया गया था. सहकारिया आयोग ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 263 के अनुसार परिभाषित करते हुए परामर्श करने के लिये एक स्वतंत्र राष्ट्रीय फोरम के रूप में अंतर्राज्यीय परिषद स्थापित किये जाने की महत्त्वपूर्ण सिफारिश की थी. फोरम का रूप सब को पता है.
सहकारिया आयोग की अन्य सिफारिशे तो धूल ही खा रही है. राजनीतिज्ञ अब तो सहकारिया आयोग की सिफारिशों की चर्चा तक नहीं करते. जब कि आज इस तरह के विचार की जरूरत वे महसूस करते हैं.
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है