Faisal Anurag
रिहाना,ग्रेटा थनबर्ग के बाद अब मीना हैरिस ने भी किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट किया है. मीना हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी हैं. मीना हैरिस ने भी सीएनएन की खबर को रिट्विट करते हुए लिखा है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर हमला हुआ है. मीना हैरिस ने लिखा है : यह कोई संयोग नहीं है कि एक महीने से भी कम समय पहले विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र पर हमला हुआ और अब बड़ी जनसंख्या वाले लोकतंत्र पर हमला होते हम सब देख रहे हैं. दोनों हमले एक दूसरे से अलग नहीं हैं. हम सभी को भारत में इंटरनेट शटडाउन और किसान प्रदर्शकारियों पर सुरक्षाबलों की हिंसा को लेकर नाराजगी जतानी चाहिए.
रिहाना,थनबर्ग और मीना हैरिस की आवाज दुनिया भर में सुनी जा रही है. किसान आंदोलन के समर्थन में किए गए तीनों के ट्वीट ने भारत के किसानों के आंदोलन को दुनिया भर में एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. रिहाना एक मशहूर पॉप सिंगर हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि दुनिया भर में उनके एक अरब से ज्यादा प्रसंशक हैं.
उनके ट्वीटर हैंडल को करोड़ों लोग फॉलो करते हैं. ग्रेटा थनबर्ग स्कूली के समय से ही जलवायु परिवर्तन के सवाल को लेकर मशहूर हुई हैं. दुनियाभर के सत्ताधीशों की नींद हराम करने वाली ग्रेटा को दुनिया सुनती है. इस क्रम में मीना हैरिस का नाम जुड़ना अहम है.
रिहाना ने डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों का जम कर विरोध किया था और जॉर्ज फ्लायड की हत्या के खिलाफ उभरे जनांदोलन का समर्थन किया था. मीना हैरिस ने भी अमेरिका में हुए लोकतंत्र पर हमले को भारत में हो रहे हमले से जोड़ा है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश,हरियाणा और राजस्थान में बड़े पैमाने पर किसान खाप पंचायतों में जुट रहे हैं. भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में पहली बार ही एक आंदोलन भारत भर में अपना असर दिखा रहा है. केंद्र सरकार और किसानों के बीच वार्ता की उम्मीदें हर दिन कमजोर होती जा रही हैं. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के एक कॉल की दूरी वाले बयान के बाद भी जिस तरह किसानों के खिलाफ घेराबंदी हो रही है. उससे दोनों के बीच पहले से ही कमजोर भरोसा टूटने के कगार पर है.
पंचायतों में युवाओं की बड़ी संख्या की भागीदारी किसी भी सरकार के लिए चिंता का सबब होना चाहिए.
बजट के बाद तो यह कहा ही जा सकता है कि सरकार विनिमेश के जिस रासते पर चल रही है, वह आने वाले दिनों में किसानों के साथ अन्य समूहों के बड़े आंदोलनों का गवाह बनेगा. भारत सरकार के बजट का संदेश यह भी है कि वह कृषि कानूनों को लेकर सख्त है. उसमें कोई नरमी नहीं दिख रही है. आंदोलन से निपटने के मोदी सरकार के रास्ते भी बता रहे हैं कि निकट भविष्य में शायद ही कोई हल निकले.
जानकारों की बात मानी जाए तो कहा जा सकता है कि इससे भारत सरकार के उन इरादों को शायद ही मंजिल मिले. जिसमें विदेशी पूंजीनिवेश का सपना है. इमरजेंसी के पहले इंदिरा गांधी ने जेपी आंदोलन से उभरे हालात के हल के लिए बातचीत का रास्ता बंद नहीं किया था और न ही इस सवाल पर सख्त नजरिया अपनाया था. इमरजेंसी के दौर में भी मीसा जैसे काले कानूनों का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन कई सावधानियां भी बरती गयी थीं. लेकिन पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है राजद्रोह और देशद्रोह का इस्तेमाल आम कर दिया गया है.
दिल्ली के पुलिस कमिश्नर ने पत्रकारों से बात करते हुए घेरेबंदियों को जायज ठहराया है. पत्रकारों के सवाल का जबाव देने के बजाय वे ही सवाल करने लगे हैं. दिल्ली पुलिस के जवानों को स्टील की लाठी थमाने के मामले के तूल पकड़ने के बाद उसे वापस तो लिया गया है. लेकिन इस सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि भारत जैसे जनतंत्र में पुलिस को आंदोलनकारियों से निपटने के लिए स्टील की लाठी थमाने का विचार आया ही क्यों ? जालियानवाला बाग में संहार को अंजाम देने वाले जनरल डायर को तो अंग्रेज शासक भी समर्थन नहीं दे पाए थे. लेकिन स्टील की लाठी अपने आप में एक बड़ा सवाल है जो किसी भी सरकार के लिए शर्म का विषय है.
किसान नेता चौधरी राकेश टिकैत ने भी साफ कहा है कि तय है कि अक्टूबर-नबंवर के पहले सरकार किसानों के सवालों का हल नहीं निकालने जा रही है. राकेश टिकैत ने यह भी स्पष्ट किया है, किसानों को सर्दी के बाद एक और सर्दी का इंतजार करते हुए गर्मी और बरसात का सामना करते हुए डटे रहना होगा.
मतलब साफ है कि किसान लंबे समय तक दिल्ली बॉर्डर पर डटे रहेंगे. इस बीच आंदोलन का असर गांवों को भी आंदोलित करता रहेगा. सरकार की घेरेबंदी किसानों का हौसला तोड़ सकेगी, इसे लेकर संदेह है, क्योंकि केवल खाप ही सजग नहीं है. बल्कि दुनिया भर में इसे समर्थन भी हासिल हो रहा है.