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किसान व केंद्र बातचीत के रास्ते पर एनआइए की नोटिस

Faisal Anurag केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को निरस्त करने के किसी भी विचार को ठुकरा दिया है. किसान नेताओं को एनआइए की नोटिस के बाद तो तय यह संभावना और भी मजबूत हो गयी है. कृषि मंत्री ने साफ कहा है कि सरकार संशोधनों पर तो विचार कर सकती है, लेकिन कृषि कानूनों को निरस्त करने को तैयार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट गठित समिति के एक सदस्य ने भी कृषि कानूनों को रद्द किये जाने के बाबत इसी तरह की बात कही है. किसान नेता चौधरी राकेश टिकैत ने भी कहा है कि किसान 2024 तक आंदोलन करने के लिए तैयार हैं. उनका साफ इशारा 2014 के आम चुनावों की तरफ है. वे संदेश दे रहे हैं कि किसान जिस सरकार को ला सकते हैं, उसे सत्ता से हटा भी सकते हैं. आंदोलन में शिरकत कर रहे 27 नेताओं को एनआइए ने नोटिस भेज कर उपस्थित होने को कहा है. किसान आंदोलन के नेताओं ने साफ कहा है कि कोई भी किसान या आंदोलन के हिस्सेदार एनआइए के समक्ष उपस्थित नहीं होंगे. एनडीए के सहयोगी रहे अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने ट्वीट कर केंद्र पर आरोप लगाया है कि वह किसानों को डराने की कोशिश कर रही है. पिछले कुछ समय से यह ट्रेंड बना हुआ है कि आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ एनआइए,सीबीआई और आईटी का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता है. अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं. जब नागरिकता कानून के खिलाफ असम में आंदोलन परवान चढ़ा और लोगों की भागीदारी बढ़ी तो नेताओं के खिलाफ एनआइए सक्रिय हो गयी. असम के जाने माने नेता अखिल गोगोई के खिलाफ यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया और उन्हें जेल भेज दिया गया. अखिल गोगोई अकेले ऐसे नेता नहीं थे. जिनपर देश विरोधी गतिविधियों के खिलाफ धाराएं लगायी गयीं. असम में ही 7 लोगों के खिलाफ इस तरह के मामले दर्ज किए गए. शाहीनबाग में जब महिलाओं ने सड़क पर धरना शुरू किया, तो जामिया के छात्रों के खिलाफ भी दिल्ली पुलिस का इस्तेमाल किया गया. केंद्र सरकार ने किसानों के साथ अब तक दस दौर की बातचीत की है. लेकिन बातचीत में गतिरोध बार-बार पैदा हुआ है. किसान नेता केंद्र सरकार के साथ बातचीत से पीछे नहीं हटना चाहते. इसका एक बड़ा कारण यह है कि वह इस दुष्प्रचार के शिकार नहीं होना चाहते हैं कि किसान हठधर्मी हैं. लेकिन वे अपने एक सूत्री मुद्दे से पीछे भी नहीं हटना चाहते. सुप्रीम कोर्ट ने एक अलग से समिति बनाकर बातचीत का एक ओर मंच बनाया है. लेकिन यह समिति विवादों में फंस कर रह गयी है. समिति के एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने खुद को कमिटी से अलग कर लिया है. लेकिन अन्य तीन बने हुए हैं. इस समिति के एक सदस्य अनिल घनावत ने तो साफ कहा है कि यदि कृषि कानून निरस्त होंगे, तो अगले 100 सालों तक सरकार कृषि क्षेत्र में सुधार नहीं ला पाएगी. घनावत खुद को किसान नेता कहते हैं. लेकिन यह सर्वविदित है कि अनिल घनावत उन लोगों में शामिल हैं जो कृषि क्षेत्र के पूंजीवादीकरण- कॉरपोरेटीकरण की खुली वकालत करते रहे हैं. उनका मानना है कि कृषि में कॉरपारेट पूंजी का प्रवाह जरूरी है. जबकि देश के ज्यादातर किसान संगठन इससे सहमत नहीं हैं. दरअसल यह कृषि को लेकर भारत में इस समय दो तरह की विश्व दृष्टिकोणों के बीच जोरदार टकराव चल रहा है. कृषि कानूनों के समर्थक अमेरिकी कृषि मॉडल के लिए भारत को खुला बाजार बनाना चाहते हैं. और दूसरी अवधारणा ऐसी कृषि संस्कृति की बात करती है, जिसमें किसान,खेती और समाज के बीच एक गहरा अंतरसंबंध होता है. भारत की कृषि संस्कृति भारतीय अस्मिता का भी हिस्सा है. किसानों को लग रहा है कि इसी पर तीनों कानून हमला कर रहे हैं. जब से विश्व बाजार के दरवाजे खोले गये हैं, भारत की खेती किसानी निशाने पर है. डंकल प्रस्ताव जो पिछली सदी के अंत दशक के शुरूआत में डब्लूटीओ बनकर उभरा, कृषि सुधारों के नाम पर कॉरपोरेटाइजेशन की वकालत करता रहा है. भारत की सरकार पर इसका दबाव तब से ही रहा है. लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिशा में खुलकर कदम आगे बढ़ाया है.मौजूदा सवाल यह है कि क्या किसानों के साथ बातचीत के रास्ते बंद गली के उस मुकाम पर पहुंच गया है. जिसमें आगे जाने का रास्ता नहीं है? दूसरा गंभीर सवाल यह है कि किसान आंदोलन को भी एनआइए का दबाव डालकर कमजोर किया जा सकेगा. केंद्र के रूख के बाद तो साफ दिख रहा है कि किसानों की दोनों प्रमुख मांगों को लेकर उसका नजरिया बदलने नहीं जा रहा है. प्रधानमंत्री हों या अन्य मंत्री बार-बार यही कह रहे हैं. कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने नयी बात यह कही है कि केंद्र संशोधनों के लिए तो तैयार हैं. लेकिन कानून निरस्त किये जाने के लिए नहीं. न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को भी कानूनी बनाने के लिए वह तैयार नहीं दिख रही है. एनआइए की नोटिस पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया तो सुखबीर सिंह बादल ने दिया है. बादल ने ट्वीट किया है 90वें दौर की वार्ता की निराशा के बाद केंद्र ने दमन के लिए एनआइए का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. पूछताछ के नाम पर किसानों को डराने की कोशिश की. उन्होंने निंदा करते हुए लिखा है कि किसान देशद्रोही नहीं हैं. उन्होंने लिखा नौवें दौर की बातचीत के नाकामयाब होने के बाद ये एकदम स्पष्ट हो गया है कि भारत सरकार केवल किसानों को थकाने,कमज़ोर करने का प्रयास कर रही है. किसान इस तरह के नोटिस की परवाह नहीं करेंगे. उन्हें जितना अधिक तंग किया जाएगा, उतना संघर्ष तेज़ होगा. 26 जनवरी के पहले यह साफ दिखने लगा है कि किसानों के ट्रैक्टर परेड की घोषणा के बाद सरकार बातचीत को लेकर ज्यादा परेशान नहीं है. वह अपनी एजेंसियों के सहारे किसान नेताओं पर दबाव बनाने की रणनीति को अंजाम देने जा रही है. किसान नेताओं को एनआइए की नोटिस इसी दिशा का संकेत दे रहा है.

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