“इन वायदों पर कौन न मर जाये (मिर्जा गालिब क्षमा याचना, मिर्जा ग़ालिब की पंक्ति है -इस सादगी पे कौन न मर जाये).”
Faisal Anurag
जिसने 20 हजार प्रतिमाह की किस्त पर चुनाव लड़ने के लिए कर्ज लिया हो, वह प्रत्याशी अपने चुनाव क्षेत्र के हर वोटर को चांद की सैर कराने का वायदा कर रहा है. यही नहीं, अगर वह चुनाव जीत गया, तो हर वोटर को तीन-मंजिला मकान, एक हेलीकॉप्टर और आईफोन भी देगा. भारत की राजनीति में चुनावी वायदों की यह फेहरिस्त अब तक के तमाम वायदों पर भारी है. उम्मीदवार तमिलनाडु का है और स्वतंत्र है. इसे उसकी मासूमियत समझ कर हंसा जा सकता है और चाहें, तो इसे तीखा व्यंग्य मानकर दो आंसू भी बहाये जा सकते हैं. और यह भारत की राजनीति के अवसान की पराकाष्ठा भी मानी जा सकती है. इस स्वतंत्र उम्मीदवार ने खुद को जितना प्रहसन का पात्र बनाया है, उससे कहीं अधिक यह भारतीय चुनाव प्रणाली, राजनीतिक दलों और वोटरों का मजाक है.
हर दल और उम्मीदवार चुनावों में वायदे करता है. वोटरों को बेहतर भविष्य का सपना भी दिखाता है. 2014 के चुनावों में तो भारतीय जनता पार्टी ने वायदों का पहाड़ ही खड़ा कर दिया. हरेक के खाते में 15 लाख, दो करोड़ बेरोजगारों को हर साल नौकरी, किसानों और नारियों पर हो रहे जुल्म और नाइंसाफी से मुक्ति के साथ अच्छे दिनों का सपना. हालांकि सत्ता में आने के बाद तब के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बाद में चुनावी वायदों को जुमला करार दिया था. यदि राष्ट्रवाद की पैरोकार एक राष्ट्रीय पार्टी अपने ही वायदे को जुमला कह दे, फिर तो एक स्वतंत्र उम्मीदवार तो कोई भी सपना बेचने को स्वतंत्र है. क्योंकि उसे न तो सत्ता में आना है और न ही वह तमिलनाडु जैसे राज्य में चुनाव जीत सकता है.
2019 के चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय योजना उन्हें वोट नहीं दिला सकी, जिसके तहत हर परिवार को छह हजार रुपये महीना दिया जाना था. लेकिन मोदी के हर खाते में 15 लाख में वह जादू था, जिसने अच्छे दिनों के वायदों पर सफर करना जरूरी समझा. चुनाव घोषणापत्रों के बेमानी होते जाने के पीछे राजनीतिक दलों की वादाखिलाफी का बड़ा योगदान है. भारत के चुनावों में जीतने के लिए जरूरी है कि लोगों के बेहतर कल के लिए सपने बेचे जायें. नेहरू के जमाने में राजकपूर की एक फिल्म आयी थी श्री420. इसमें राजकपूर ने घर का सपना बेचा था. दरअसल तब भी राजकपूर राजनीतिक वायदों के टूटने के दर्द को ही बयान कर रहे थे. यह फिल्म 1955 में बनी थी. तब भारत को आजाद हुए मात्र आठ साल ही हुए थे. एक ओर पंचवर्षीय योजनाओं से भारत की तस्वीर बदलने की बात की जा रही थी ओर दूसरी औरर सपनों के टूटने की आवाज सुनाई देने लगी थी. मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने तो आजादी के समय ही एक नज्म लिखी थी :
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
“वो इंतज़ार था जिसका,
ये वो सहर तो नहीं,
ये वो सहर तो नहीं,
जिसकी आरज़ू लेकर चले थे,
यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल.”
जैसे-जैसे भारत की राजनीति का कारपारेटाइजेशन यानी निगमीकरण हुआ है, वोटरों के बीच उम्मीद और सपने बेचने का दौर ज्यादा शुरू हो गया है. चुनाव लोगों के हितों की बात कर जीते जाते हैं, लेकिन क्रोनी कैपिटल यानी आवारा पूंजी के हित सरकारों के निर्याणों पर हावी रहते हैं. अब तो नयी दुनिया यानी न्यू वर्ल्ड की बात की जा रही है. इसका मतलब साफ है कि जनता के संसाधनों को कारपोरेट घरानों के रहमोकरम पर छोड़ना. रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास तो कह रह हैं कि भारत में केवल चार बैंक ही बचेंगे. यानी अगले तीन-चार सालों में शायद ही सरकारी क्षेत्र में कोई बैंक रहे. कृषि कानून बनाये जा चुके हैं, जिनके आधार पर बड़े घरानों के नियंत्रण की राह साफ कर दी गयी है. यही नहीं, 121 दिनों से लड़ रहे किसानों को मीडिया बहसों से बाहर कर दिया गया है. श्रमिकों के अधिकारों में कटौती करने वाले कानून बनाये जा चुके हैं. कहा जा सकता है कि श्रमिक और किसान को कारपारेट के रहमोकरम पर रहना है और किसानों को गांव छोड़ने के लिए देर-सबेर बाध्य होना है. जिस तरह अमेरिका में कृषि क्षेत्र से किसानों को बेदखल किया गया, उसका नया प्रयोग केंद्र भारत है.
ऐसे हाल में एक स्वतंत्र उम्मीदवार के हसीन वायदे बताते हैं कि राजनीतिक दल ही नहीं, चुनाव प्रक्रिया भी सवालों के घेरे में हैं. चुनाव आयोग के दंतहीन होने की बात तो की ही जाने लगी है. संवैधानिक संस्थानों के बदलते चेहरे और प्रतिबद्धताओं ने साबित कर दिया है भारत का चुनाव ऐसे ही खोखले वायदों के भरोसे छोड़ दिया गया है. नये ग्लोबल ऑर्डर की दुनिया तो इससे भी कहीं अधिक वायदाफरामोश साबित होने जा रही है.
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