Surjit Singh
तिरंगे का अपमान. हर तरफ यही बहस है. भावना आहत हुई है. होनी भी चाहिए. तिरंगे का अपमान होने पर गुस्सा भी लाजिमी है. पर कब! ऐसे हर कृत्य पर या अपनी सुविधानुसार. विचार करिए. जो खेमा तब चुप था, उनकी भावना आहत नहीं हुई थी. गर्व किया था. आज वह आहत हैं. गुस्से में हैं. कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो तब आहत थे, आज गर्व कर रहे हैं.
क्या फर्क है ! 15 दिसंबर 2017 और 26 जनवरी 2021 की घटना में फर्क बस यह है कि तब हाईकोर्ट का छत था और अब लाल किला का खंभा. तब तिरंगा को उतार कर भगवा झंडा फहरा दिया था. अब खंभे पर एक झंडा (निशान साहेब) फहरा दिया गया. तब तिरंगा उतारने व भगवा लहराने पर भी आहत नहीं होने वाले आज आहत हैं.
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एक और फर्क है. दोनों घटनाओं की तारीख अलग है. तब एक हत्यारे के पक्ष में भीड़ हाईकोर्ट में पहुंच गई थी. हत्यारे को दिये गये सजा का विरोध करती भीड़ ने हाईकोर्ट की छत पर बने गुंबद पर लहराते तिरंगे को उतार कर भगवा झंडा लगा दिया था. अब किसान आंदोलन में शामिल कुछ सिरफिरे लाल किले तक पहुंच गये और एक खंभे पर अपना झंडा फहरा दिया.
एक फर्क यह भी है कि आज किसान आंदोलन के नेता इस कृत्य की आलोचना कर रहे हैं. लेकिन तब भगवा ब्रिगेड के किसी नेता ने कोई अफसोस जाहिर नहीं किया था. आज जो सोशल मीडिया पर आंसू बहा रहे हैं, इनकी पुरानी पोस्ट पढ़ लीजिये, यही लोग तब गर्व कर रहे थे.
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हम तब भी आहत हुए थे और आज भी आहत हैं. हम तब भी आहत हुए थे, जब लाल किले की प्राचीर को डालमिया को बेच दिया गया. 26 जनवरी की घटना से आहत हुए लोग शायद इस बात पर भी गर्व कर लें. पर इसे उनकी राजनीति या राजनीतिक मजबूरी ही माना जायेगा.
ऐसे कृत्य पर कभी भी गर्व नहीं किया जा सकता. जब तक हम अपनी सुविधानुसार, अपनी राजनीतिक सोच, प्रतिबद्धता, अपराध करने वाले व्यक्ति के धर्म, क्षेत्र, समूह से जोड़ कर आहत होते रहेंगे या गर्व करते रहेंगे, ऐसी घटनाएं नहीं रुकने वाली. जरूरत है ऐसे कृत्य करने वाले को कड़ी सजा देने की. चाहे व किसी भी धर्म, दल, क्षेत्र, जाति या पार्टी से जुड़ा क्यों न हो.