खाद्य आपात की स्थिति में पलामू के चैनपुर, रामगढ़ प्रखंड के आदिम जनजातिआदिम जनजाति परिवारों के पास अनाज का ब्लैक आउट
ग्रामीणों की हो गई है आर्थिक बदहाली की स्थिति
Pravin Kumar
Palamu: सात माह की गर्भवती आदिम जनजाति परहिया महिला सरस्वती देवी को पिछले एक महीने से दाल तक नहीं मिला. आहार विशेषज्ञों के मुताबिक, प्रत्येक व्यक्ति को अपने एक किलो वजन पर एक ग्राम प्रोटीन दैनिक रूप से सेवन करना चाहिए. कुछ इससे भी बदहाल हालत का सामना कर रही हैं सरहुआ गांव की रहने वाली सरोज देवी और उनका परिवार जो जंगली कंद गेठी खाकर गुजारा करने को विवश हैं. ग्राम पीढ़े की रहने वाली दौलतिया देवी अपने परिवार के दैनिक आहार में 50 फीसदी की कटौती कर गुजारा कर रही हैं. क्योंकि उनके पास खाने के लिए अनाज नहीं है. सरहुआ के ही विजय कोरवा और उमेश कोरवा दोनों परिवार समेत ईंट भट्ठों में कमाने चले गए हैं. अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत दिया जाने वाला खाद्यान्न लेने के लिए उनके परिवार से गांव में कोई भी नहीं हैं. इन परिवारों को यह बिल्कुल मालूम नहीं कि वन नेशन वन कार्ड भी कोई प्रणाली है जिसमें उनको पलायन वाले स्थान में भी खाद्यान्न मिल सकता है. यह खाद्य संकट सिर्फ इन चंद परिवारों तक सीमित नहीं है. भोजन का अधिकार अभियान के सदस्य जेम्स हेरेंज कहते है पलामू जिले चैनपुर एवं रामगढ़ प्रखंड के 1600 से अधिक अधिक आदिम जनजाति परिवारों इस खाद्य संकट से जूझ रहे हैं. खाद्य संकट के लिए सरकारी सिस्टम जिम्मेदार है. दरअसल दोनों प्रखंडों में खाद्य संकट किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से उत्पन्न नहीं हुआ है. इसके लिए सीधे- सीधे खाद्य, सार्वजानिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले विभाग से जुड़े सरकारी पदाधिकारी और जिले के उपायुक्त जिम्मेदार हैं . कारण कि यहां सरकारी व्यवस्था के अनुसार डाकिया स्कीम में सम्बंधित प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी ही डीलर भी हैं. चैनपुर और रामगढ़ दोनों प्रखंडों के लिए चैनपुर प्रखंड के बीएसओ ही डम्मी डीलर हैं जिसका लाईसेंस नंबर 3-2017 है. किन्तु इस अधिकारी ने राशन वितरण का ठेका निजी व्यक्ति के हाथों सौंप रखा है. जिनकी कोई प्रशासनिक जवाबदेही नहीं है. इस वर्ष जनवरी फरवरी से ही इन निजी वितरकों के द्वारा ऑफलाइन किया जाता रहा है, किन्तु उसकी कोई एमआईएस प्रविष्टि समय पर नहीं की गई है. लंबे अंतराल तक एमआईएस प्रविष्टि नियमित नहीं करने से विभागीय वेबसाइट में बैकलोग आंकड़ों की प्रविष्टि संभव नहीं है. यही कारण है कि भौतिक वितरण और कंप्यूटर में दर्ज वितरण में भारी अंतर की वजह से डीलर को खाद्यान्न आवंटन में तकनीकी अड़चने आ रही है.
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बन गई है पलायन की स्थिति
छठ पर्व खत्म होते ही गांव के वैसे सभी पुरुष जो लोग किसी तरह के मजदूरी करने में सक्षम हैं. सभी लोग वगैर किसी सरकारी प्रक्रिया के पड़ोसी राज्य बिहार, यूपी के ईंट भट्ठों से लेकर चेन्नई और बैंगलोर को पलायन कर गए हैं. जिसमें कई ऐसे भी हैं जो पूरे परिवार सहित पलायन कर गए हैं. उनमें से सरहुआ गांव के विजय कोरवा और उमेश कोरवा का परिवार भी शामिल है. पलायन करने वालों में 4 स्कूली बच्चे भी शामिल हैं. जिनमें से 2 बच्चियां शामिल हैं. दोनों प्रखंडों के 50 से अधिक परिवारों के साथ बातचीत से साफ पता चलता है कि वर्तमान में और इस वर्ष एक भी आदिम जनजाति के परिवारों को मनरेगा में काम नहीं मिला है. इन दोनों प्रखंडों में आदिम जनजातियों के लिए आज मनरेगा हाथी का दांत साबित हो रहा है और जिला प्रशासन इनकी बदहालियों से पूरी तरह बेखबर है.
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चकवड और वन तुलसी का बीज था सहारा
महिलाओं ने दैनिक खाद्य जरूरतों के इंतजामात के बारे बताया कि दशहरा के पहले का दुकानों में बहुत उधार हो गया है. फिर चकवड के बीज का सीजन आया तो करीब 15 दिनों तक गांव रह रही महिलाएं अपने परिवार के खाने की चीजें इंतजाम करने हेतु आस- पास और जंगलों से चकवड का बीज इक्कठा कर उसे स्थानीय महाजनों को बेचती थीं . एक दिन में दो से तीन किलो बीज संग्रहित कर पाते थे, जिसके लिए 20 रूपये किलो बेचकर 36 प्रति रूपये किलो चावल खरीद खा रहे हैं. चकवड बीज का सीजन अब ख़त्म हो गया है . अब हमलोग तुलसी बीज संग्रहित कर बेचना शुरू ही किये थे कि मिचौंग तूफान के प्रभाव से जो 3 से 4 दिनों तक लगातार बारिश हो गई, उसने पूरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया . यह बीज 18 रूपये प्रति किलो बिकना प्रारंभ हुआ था लेकिन अब पानी बरस जाने से इसकी कहानी पूरी तरह समाप्त हो गई.
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क्या कहते हैं गांव के बुजुर्ग
ग्राम सरहुआ निवासी 75 वर्षीय लोधा कोरवा अपनी ब्यथा का जिक्र करते हुए कहते हैं, आज गांवों में किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे कंधा देने और अंतिम संस्कार करने तक के लिए कोई पुरुष गांव में मौजूद नहीं हैं .इसी प्रकार कोई बीमार पड़ जाए तो उसे अस्पताल लेने के लिए भी कोई नहीं हैं. वे कहते हैं उनके समय में इस पूरे इलाके में बांस के घनघोर जंगल हुआ करते थे. जंगलों से नाना प्रकार वनोपज मिलते थे जिसे ग्रामीण अपनी खाद्य जरूरतें पूरा करते थे और कुछ वनोपज स्थानीय बाजारों में बेचे जाते थे. फिर सरकार ने डालमिया कंपनी को टेंडर के माध्यम से बांस तथा इमारती लकड़ियों के कटाई का ठेका दे दिया. कंपनी 12 वर्षों तक लगातार जंगलों के बेतहासा कटाई कर जंगलों को वीरान कर दिया. परिणाम आज जंगल माता जो अपने मानव पुत्र- पुत्रियों को पालन करती थी वीरान हो गईं. जिसके कारण मजदूर बाहर कमाने चले जा रहे हैं और गांव सुना पड़ा है.
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क्या है समाधान
जेम्स हेरेंज कहते हैं सरकार ने विगत वर्ष 2022 में 22 जिलों को सुखाड़ क्षेत्र घोषित किया था . लेकिन उसके लिए अकाल संहिता के अनुरूप जो प्रशासनिक कदम उठाये जाने चाहिए थे, उसने कोई रोजगार और राहत कार्य नहीं चलाये. इस वर्ष भी सरकार को ये स्पष्ट मालूम है कि कृषि के मौसम में अनावृष्टि की वजह से खेती पूरी तरह नष्ट हो चुकी है. पलामू जिला वैसे भी सूखे के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है. कठिनाईयों के इस दौर में गर्भवती महिलाएँ, बुजुर्ग और बच्चे सबसे प्रभावित होते हैं. लेकिन इन सबके बावजूद सरकारी महकमा परिस्थितियों से निपटने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाई.l उल्टे 5 महीने से आदिम जनजातियों के राशनिंग प्रणाली को बाधित कर दिया है. अभी तात्कालिक तौर पर जिला प्रशासन को चाहिए कि तत्काल सभी आदिम जनजाति परिवारों को पूरे बकाया खाद्यान्न का वितरण करें. पलायन किये हुए सभी मजदूरों का सर्वे कर उनका श्रमधान पोर्टल पर पंजीयन सुनिश्चित करें. गांव में मौजूद इच्छुक महिलाओं को मनरेगा में रोजगार प्रदान करे. जिन आदिम जनजाति परिवारों को हरा राशन कार्ड निर्गत किया गया है उनको सर्वोच्च न्यायालय के 3 मई 2003 के आदेशानुसार अन्त्योदय कार्ड से जोड़ें. इसके साथ ही राशन वितरण में शामिल निजी व्यक्ति हटाये आदिम जन जातियों के साथ ही वैसे सभी राशन कार्डधारी जिनके कार्डों में वितरण किये जाने वाले वस्तुओं की प्रविष्टि के पन्ने भर चुके हैं उनको नया कार्ड बिना किसी रिश्वत के वितरण किया जाये.