Faisal Anurag
राजनैतिक गठबंधन मात्र से ही वैकल्पिक राजनीति के दरवाजे नहीं खुल सकते. नेताओं या दलों को चुनावी कामयाबी दिलाने वाले मैनेजरों की भूमिका भी कामयाबी की राह नहीं बना सकते. असली सवाल तो सामाजिक शक्तियों का गठबंधन बनाना है. भारत की सांस्कृतिक विविधत और आकांक्षाओं को संबोधित किए बगैर नरेंद्र मोदी की भाजपा को चुनौती नहीं दिया जा सकती. नरेंद्र मोदी ने 2014 के बाद से न केवल राजनैतिक विमर्श की दिशा और एक बड़े तबके के सोचने के तरीके को प्रभावित किया है बल्कि एक नया राजनैतिक संस्कृति भी विकसित किया है.
देखा जाए तो मोदी सरकार की नाकामियां बेहद गंभीर हैं बावजूद उसके वोटरों पर इसका खास असर नहीं दिखता है. 2013 के बाद से ही देश में एक ऐसा वातावरण बना है जिस ने मान्य राजनैतिक परंपराओं और मूल्यों को पीछे छोड़ दिया है.
लेकिन आर्थिक और सामाजिक तौर पर नरेंद्र मोदी की नाकामयाबी राज्यों के चुनावों में बराबर दिखाई है और मोदी के पराजय की पटकथा को अंजाम तक भी पहुचाया है.
विधानसभा के चुनावों के परिणामों में भाजपा को बराबार मिली हार के बावजूद उस बारीक तत्व को समझना जरूरी है कि आखिर केंद्र स्तर पर वही प्रयोग सफल क्यों नहीं हो सकते हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं और उन्हें केंद्रीय सत्ता से पदच्युत नहीं किया जा सकता. यह संभव है लेकिन इसके लिए विपक्ष को केवल जोड़तोड़ वाले गठबंधनों के साथ ही राजनैतिक,आर्थिक और सामाजिक न्याय के सवाल पर एक प्रखर और आक्रामक विकल्प प्रस्तुत करना होगा.
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ममता बनर्जी की दिल्ली यात्रा की एक बड़ी कामयाबी यह है कि उसने जमे हुए बर्फ को पिघला दिया है. विपक्ष पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक और संगठित प्रयास करता दिख रहा है. पेगासस जासूसी प्रकरण पर विपक्ष हमलावर है और राजनैतिक तौर पर उसकी गूंज सत्ता के गलियारे तक सुनायी दे रही है. लेकिन विपक्ष की कामयाबी के लिए जरूरी है कि कांग्रेस भी नए रूप में उभरे. 2014 के बाद से कांग्रेस एक अनिर्णय के अंदाज में है. यहां तक कि उसके बड़े नेताओं के उस पत्र को भी याद किया जा सकता है जिसमें 23 लोगों ने मिल कर कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष के साथ अनेक बदलाव के लिए आवाज बुलंद की है.
जिन नेताओं ने आवाज उठायी उसमें ज्यादा तर वे क्षत्रप हैं जिनके कारण ही कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा हुई है और वे किसी भी वास्तविक बदलाव की राह में रोड़ा बन कर खड़े हैं. इनमें तो कुछ भाजपा में जा चुके हैं. इन से ज्यादतर की सहानुभूति भाजपा खास कर नरेंद्र मोदी से है. यदि वे पाला नहीं बदल पाएं हैं तो इसका कारण उनका पुराना कांग्रेसी होना नहीं बल्कि उनकी उपयोगिता को लेकर भाजपा भी संशांकित है. ऐसे तत्वों का भाजपा इस्तेमाल तो करती है.लेकिन डन्हें सहयात्री बनाने से परहेज भी करती है.
विपक्ष के वर्तमान हलचल का एक बड़ा कारण तो बंगाल में मिली नरेंद्र मोदी और अमित शाह की करारी हार है. 2015 में यही जोड़ी तो बिहार में भी हारी थी लेकिन तब वह मनोवैज्ञानिक माहौल नहीं बना था जो बंगाल चुनाव के बाद बना है. बंगाल ने यह राह दिखायी है कि इस जोड़ी के जादू को तोड़ा जा सकता है बशर्ते नेतृत्व कार्यकर्ताओं के पास एक अलग नजरिया हो. इस संदर्भ में इन दिनों प्रशांत किशोर की भी खूब चर्चा हो रही है. जब से प्रशांत किशोर की राहुल गांधी की मुलाकात हुई है उनके कांग्रेस में आने की खबर जोरों पर है.
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तो क्या प्रशांत किशोर कांग्रेस के उस यथास्थितिवादी नेताओं की भीड़ और प्रभाव को कम कर एक नए कांग्रेस को तैयार कर सकते हैं. हिन्दुस्तान टाइम्स ने 15 जुलाई को बताया था कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए गांधी परिवार के सामने एक खाका पेश किया था. मामले से परिचित लोगों में से एक ने कहा कि 22 जुलाई की बैठक यह जानने के लिए थी कि प्रशांत किशोर के सुझावों के बारे में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से राय मांगी गयी है.
22 जुलाई को राहुल गांधी ने इस संदर्भ में कांग्रेस के अनेक वरिष्ट नेताओं के साथ बैठक की. प्रशांत किशोर के कांग्रेस के नए महासचिव अभियान के रूप में शामिल किए जाने की संभावना है.
प्रशांत किशोर की अब तक की छवि एक ऐसे चुनाव प्रबंधक की है जिसके नाम कामयाबी जुड़ा है. अब तक अलग-अलग राजनैतिक विचारों और दलों के 9 चुनाव अभियानों का प्रबंधन उनके नेतृत्व में हुआ. उत्तर प्रदेश को छोड़ कर शेष में उन्हें सफलता मिली. एक ओर 2014 में प्रशांत ने भाजपा और मोदी के लिए प्रबंधन में भूमिका निभाया. इसके बाद से वे सात अन्य चुनावों में नीतीश कुमार, अमरेंद्र सिंह, जगन मोहन रेड्डी,स्टालिन और ममता बनर्जी के को कामयाबी दिलाने में भूमिका दिलायी. उत्तर प्रदेश उनके लिए एक अनुर्वर प्रदेश साबित हुआ जहां कांग्रेस 2017 में अपनी पुरानी सीटों की संख्या भी हासिल नहीं कर सकी. तो क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति को प्रशांत समझ नहीं पाए या उनके प्रयोग की जमीन ही बंजर थी. इस सवाल का बड़ा महत्व यह है कि 2022 में एक बार फिर उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं और कांग्रेस के लिए यह एक बड़ी परीक्षा है. प्रियंका गांधी सामाजिक एकता या गठबंधन की बात कर रही हैं.
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विपक्ष और कांग्रेस को यदि मोदी का विकल्प बनना है तो उसे सामजिक ताकतों के सवालों को संबोधित करना होगा और पार्टी और गठबंधन की नीतियों में इसकी स्पष्ट झलक मिलनी भी चाहिए. किसी भी चुनावी कामयाबी के लिए यह एक बड़ी चुनौती है जो आर्थिक चुनौती से भी बड़ी है. विपक्ष को उन सवालों के हल तलाश करने की जरूरत है जो नए सामाजिक समुदायों के बीच उठ खड़े हुए हैं.