Nishikant Thakur
पिछले सप्ताह भारतीय संसद का शरदकालीन सत्र के अवसान होते ही संसद को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया. वैसे भारतीय संसद ऐतिहासिक है और इसमें लिए गए हर फैसले देश के हरेक व्यक्ति के लिए अमूल्य होते हैं. दरअसल, इसमें हमारे हित की रक्षा के लिए वे धुरंधर राजनीतिज्ञ होते हैं, जो हमारे बीच से ही एक-एक व्यक्ति द्वारा चुनकर भेजे जाते हैं. इसलिए कि हमारे संविधान निर्माता कानून के मर्मज्ञ थे.
उन्होंने बड़ी मेहनत करके देश के कोने-कोने की समस्याओं को पूरी शिद्दत से समझकर उनके भविष्य को अंधकार से निकालकर उज्ज्वल प्रकाश की ओर ले जाने का रास्ता दिखाया. देश का कोई व्यक्ति उस ग्रन्थ को खुली आंखों से पढ़कर यह नहीं कह सकता कि उसके हित की कोई बात नहीं की गई है. यदि ऐसा कोई कहता है, तो आजादी के इतने वर्षों बाद भी वह या तो देश को समझ नहीं पाया है और संविधान को पढ़कर उसमें वर्णित अपने को गौरवान्वित भी महसूस नहीं किया. ऐसे में उसकी चर्चा करने का यहां कोई औचित्य नहीं; क्योंकि उसने यह ठान लिया है कि उनका हित इस ग्रंथ में नहीं हैं और वे इसकी कमियां निकालकर आपको भी उलझन में डाल देंगे.
जब से संसद का गठन हुआ और सांसदों ने अपना काम-काज शुरू किया, तभी से कुछ ऐसी घटनाएं वहां होती रहीं, जिसकी एक सामान्य व्यक्ति ने कल्पना नहीं की थी. एक सामान्य व्यक्ति यही तो जानता है कि संसद में जो उनके प्रतिनिधि चुनकर भेजे गए हैं, वह उनके हित में लगे हुए हैं, फिर उन्हें उनके लिए सोचने का क्या औचित्य?
लेकिन, 1952 से आज तक संसद में जो कुछ हुआ, वह तो इतिहास हो गया, लेकिन इस शरदकालीन सत्र में जो कुछ देखा गया, उसे अकल्पनीय ही माना जाएगा. इस सत्र में देश के जनहित के लिए कुछ भी हो नहीं सका और जितने दिन भी संसद चला, वह सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच टकराव में ही निकल गया. जबकि, संसद के एक मिनट का खर्च ढाई लाख रुपये होता है. ऐसे में एक दिन और फिर पूरे सत्र के खर्च की आप गणना कर सकते हैं.
देश के कई विधानसभाओं में दो दलों का आपस में भिड़ना, मारपीट करना आम बात हो गई है. रही संसद की बात, तो कई बार इसकी भी मर्यादा तार-तार होते हुए देश ने देखा है और स्वयं को शर्मसार भी महसूस किया है. यदि उन घटनाओं को क्रमवार लिखा जाए, तो आपत्तिजनक लगेगा, लेकिन कुछ घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है.
उदाहरण के लिए 26 अगस्त, 2006 के दुर्भाग्यशाली दिन को याद कीजिए. 24 नवंबर, 2009 को अमर सिंह और अहलूवालिया की हाथापाई को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता. फिर 5 सितंबर, 2012 को बसपा सदस्य ने सपा सांसद का कॉलर पकड़ा. फिर 13 फरवरी, 2014 के दिन लोकसभा में मिर्ची का स्प्रे फेंका गया. यह तो कुछ छोटे-मोटे उदाहरण भर हैं, लेकिन यदि गिनती करेंगे, तो दर्जनों में ऐसी घटनाएं हमें देखने को मिल जाती हैं.
जैसा कि देश का मानना है कि हमारा संसद भवन गरिमायुक्त है, क्योंकि वहां चुनिंदे राजनेताओं को हम चुनकर भेजते हैं, लेकिन जब हम उनके कृत्यों को जानने-समझने लगते हैं, तो मन को ठेस लगती है. जब कभी संसद के इस शरदकालीन सत्र की जब बात होगी, तो इन घटनाओं का भी उसमें उल्लेख अवश्य होगा कि कैसे पूरा का पूरा सत्र व्यक्ति विशेष पर केंद्रित होकर उसी पर खत्म हो गया. इस बार यही तो हुआ, जब विपक्ष ने उद्योगपति गौतम अडाणी और प्रधानमंत्री के बीच संबंधों को लेकर चर्चा कराने की मांग करता रहा, लेकिन संसद के दोनों सदनों को कई-कई दिनों के लिए अध्यक्ष और सभापति ने सदन को स्थगित कर दिया.
विपक्ष से कहा गया कि इस विषय पर चर्चा नहीं की जा सकती. देश यह समझ नहीं सका है कि एक व्यक्ति को साधने के लिए उस पर सदन में बहस ही नहीं होगी? पर ऐसा क्यों? अगर हम पाक साफ हैं, तो फिर उस पर सार्वजनिक चर्चा क्यों नहीं कराई जा सकती. आखिर जो व्यक्ति विश्व की सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका का अपराधी घोषित किया जा चुका हो, उस पर चर्चा क्यों नहीं कराई जा सकती? फिर सच्चाई से पर्दा उठेगा कैसे और देश विश्व में सार्वजनिक रूप से शर्मसार क्यों होता रहेगा! इस बात से देश यह समझने को मजबूर हो गया है कि दाल में कुछ काला तो जरूर है.
इसी प्रकार सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस के लिए विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी के लिए सीधे शब्दों में कहते है कि उनकी सांठ-गांठ है और जॉर्ज सोरोस विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी के माध्यम से भारत के सत्तापक्ष को पलटने का षड्यंत्र रच रहा है. रही बात सत्तारूढ़ दल की, तो इससे कौन इनकार कर सकता है कि यदि कोई देश में अशांति फैलाना चाहता है, तो उसकी कानूनी जांच कराकर उन्हें जेल के अंदर क्यों नहीं डाला जाता?
इस बार संसद के शरदकालीन सत्र में जो सबसे दुखद बात रही, वह यह कि आखिर गृहमंत्री के बोल क्यों सदन में ऐसे बिगड़ गए, जिन्होंने बाबासाहब भीमराव अंबेडकर तक को अपमानित कर डाला और अब अपनी गलती को छुपाने के लिए मीडिया के सिर पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं और स्वयं अपना मुंह छिपाते घूम रहे हैं? क्या उन्हें इतना भी ख्याल नहीं रहा कि जिस सत्ता की बुलंदी पर वह आज बैठे हैं, वह किसकी देन है!
क्या उन्हें नहीं मालूम कि संविधान सभा में जितने भी व्यक्ति शामिल थे, सभी उच्चकोटी के वकील थे और उन्होंने देश के लिए कुर्बानी और लगातार इस संविधान के निर्माण में वर्षों लगे रहे कि हमारा कल कैसा हो, उसका विकास कैसे हो. उसी संविधान सभा के मुख्यकर्ता बाबासाहब भीमराव अंबेडकर ही थे.
संविधान सभा के उद्भट विद्वान और वकील अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे. आज भी संविधान की मूलप्रति को देखेंगे, तो प्रथम हस्ताक्षर अध्यक्ष होने के कारण डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हैं, लेकिन उसे गढ़ने का काम बाबासाहब ने किया. उन्होंने देश को एक रीति-नीति से चलाने का निर्माण किया और आज देश यदि किसी व्यक्ति को पूजता है, तो वह बाबासाहब ही हैं. पता नहीं किस गुमान में गृहमंत्री बाबासाहब भीमराव अंबेडकर को भरे संसद में अपमानित कर दिया. अपनी इस भूल को स्वीकार करने के स्थान पर मीडिया के मत्थे इसे मढ़कर कहते हैं कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया. अगर सच्चाई का पता लगाया जाए, तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. लेकिन, क्या अब ऐसा हो पाएगा!
सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा अपनी किसी भूल की जांच कराई जाएगी? यदि हां, तो फिर इस बात की भी जांच जरूर कराई जानी चाहिए कि सत्तारूढ़ दल के जो दो सांसद जख्मी हुए, उनके जख्मों का सच क्या है? देश तो यह जानना चाहेगा कि क्या राहुल गांधी ने उन सांसदों को धक्का दिया या उन्हें ही भीड़ से किसी ने धक्का दिया? अब प्रश्न यह भी है कि इसका गवाह कौन बनेगा, सत्तारूढ़ के सांसद या विपक्षी सासंद या निष्पक्ष सीसीटीवी. लेकिन, निष्पक्ष गवाह ने तो उस समय अपनी आँखें बंद कर ली थी, फिर सच्ची गवाही कौन देगा?
वैसे दोनों पक्षों के बयान मीडिया रिपोर्ट के अनुसार आ रहे हैं.
जिसमें राहुल गांधी कहते हैं कि संसद के गेट पर सत्तारूढ़ दल के सांसद उन्हें संसद में जाने से रोक रहे थे, वहीं सत्तारूढ़ का आरोप है कि उन्होंने सांसदों को धक्का दिया और उनके संसद सदस्य के सिर में चोट लगी. अब सच्चाई का पता तो जांच यदि होती है, तो उसके बाद ही सामने आएगा, लेकिन क्या इस वर्ष के शारदकालीन सत्र में घटी इन सारी घटनाओं की जांच होगी? देशहित में अच्छा तो यह होगा कि इन घटनाओं की जांच कराई जाए, ताकि सच्चाई जनहित में सामने आ सके.
डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं, ये इनके निजी विचार हैं.