Dr. Pramod Pathak
प्राचीन रोमन साम्राज्य के जमाने की एक कथा है कि एक बार रोम में खाद्यान्न का संकट उठ खड़ा हुआ. उन दिनों रोम में लोगों को मुफ्त खाद्यान्न दिया जाता था. साथ ही लोगों को सर्कस और खेल तमाशे भी खूब दिखाए जाते थे. ताकि लोग इसी में व्यस्त रहें. एक बार ऐसा हुआ कि राज्य द्वारा खाद्यान्न आपूर्ति में दिक्कत आने लगी. सलाहकारों ने राजा तक यह बात पहुंचाई. रानी भी वहीं थी. बात सुनते ही रानी ने तुरंत अपनी राय दी कि यदि रोटी नहीं दे सकते तो कोई दिक्कत नहीं. खूब सर्कस दिखाओ. लोग सर्कस देखकर तालियां बजाने में मशगूल हो जाएंगे और रोटी की समस्या भूल जाएंगे. यानी मुद्दों को गैर मुद्दे के शोर से दबा दो. आज की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को यह कथा काफी हद तक परिभाषित करती है. मुद्दों पर बात ही नहीं होती. आज की सियासत मुद्दों के इर्द-गिर्द नहीं, बल्कि गैर मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही है. नए नारों, नए वादों, नए सपनों में लोग इस कदर उलझकर भ्रमित हो गए हैं कि वस्तु स्थिति से सरोकार ही छूट गया है. शायद आज की राजनीति का यही चलन है. समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाना आज के राजनीतिक प्रबंधन की सबसे सफल रणनीति है.
विश्व प्रसिद्ध मैनेजमेंट गुरु एवं लेखक टॉम पीटर्स की एक बड़ी मशहूर पुस्तक है थ्राइविंग ऑन केऑस. इसका हिंदी अनुवाद होगा अव्यवस्था के दौर में सफलता. वर्ष 1987 में लिखी गई यह पुस्तक व्यापार प्रबंधन से संबंधित है और उसे वक्त के वैश्विक व्यापारिक परिस्थितियों में व्याप्त अस्थिरता में सफल होने के लिए कैसी रणनीतियां होनी चाहिए, इसकी बात करती है. लेकिन यदि आज के समकालीन राजनीतिक परिवेश पर कोई पुस्तक लिखना चाहे तो यह शीर्षक सटीक बैठेगा. वैश्विक से लेकर राष्ट्रीय परिस्थितियों तक का यदि आकलन किया जाए तो कमोबेश वैसी ही अव्यवस्था का दौर है, जिसकी बात उस पुस्तक में वैश्विक बाजार के संदर्भ में की गई है. दरअसल इस दौर को आभासी यानी वर्चुअल दौर कहते हैं. यदि ढंग से विश्लेषण करें तो इसका मतलब होगा भ्रम का दौर, झूठ का दौर, आडंबर का दौर, बनावट का दौर. सोशल मीडिया के इस दौर में सिर्फ माया है, सत्य नहीं. यही बात राजनीति पर भी लागू होती है. इसीलिए आज की सियासत मुद्दों के नहीं, बल्कि गैर मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है.
गैर मुद्दों का शोर इतना ज्यादा है कि लोग मुद्दों के बारे में सोच ही नहीं पा रहे. मुद्दे तो वही हैं, जो दशकों से चले आ रहे हैं-भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, बुनियादी समस्याओं का समाधान, महंगाई, बढ़ती आबादी, सबके लिए स्वास्थ्य, उग्रवाद इत्यादि. यदि थोड़ा और विस्तृत और व्यापक मुद्दों की चर्चा करें तो प्रदूषण, कानून एवं व्यवस्था, आम आदमी के लिए न्याय, नागरिक सुविधाएं, प्रति व्यक्ति आय, महिला सुरक्षा, बाल कुपोषण जैसे विषय ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, लेकिन बहस इन पर चलने की बजाय इस पर चल पड़ी है कि देश का नाम इंडिया है कि भारत. अरे भाई संविधान तो पहले से ही बोलता है कि इंडिया ही भारत है और भारत ही इंडिया है. इसे कुछ लोग हिंदुस्तान भी बोलते हैं. हम वह गीत भी अक्सर गाते हैं-सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा. अंग्रेजी में इंडिया और हिंदी में भारत हम बहुत दिनों से प्रयोग में ला रहे हैं और कोई अड़चन नहीं आई. भारतीय प्रबंध संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेट बैंक ऐसे कई नाम हैं, जो अंग्रेजी में इंडिया और हिंदी में भारत के नाम से जाने जाते हैं. इनको बदलना खासे मेहनत का काम होगा. अब फिर से यह बहस क्यों चल पड़ी, यह समझ में नहीं आ रहा. वैसे बीच-बीच में यह बहस पहले भी चलती रही है. लेकिन फिर रुक भी गई, लेकिन इस बार इंडिया को हटाकर सिर्फ भारत बनाने की बहस ज्यादा जोर-शोर से चल पड़ी है.
लगता है लोग इसको लेकर गंभीर हैं, किंतु इसकी प्रक्रिया भी लंबी होगी. संविधान के संशोधन से लेकर अन्य कई तकनीकी और वैधानिक कदम उठाने पड़ेंगे. संविधान के प्राक्थन में ही लिखा हुआ है इंडिया जो कि भारत है. इस भाग को बदलने में कठिनाई है. वैसे यह बहस चल ही रही थी कि इसके साथ एक और भी बहस चल पड़ी है सनातन धर्म पर, सनातनी परंपरा पर. एक प्रदेश के युवा मंत्री ने अचानक से एक नई चर्चा शुरू कर दी. स्वाभाविक है, अब इस पर भी दो खेमे में लोग बंटे दिखाई दे रहे हैं. मजे की बात यह है कि इस तरह की बहस बीच-बीच में एक अर्से के बाद शुरू कर दी जाती है. समझ में नहीं आता कि इस तरह की बहस शुरू करने के पीछे कोई सोचा समझा प्रयोजन होता है या फिर लोग बाग़ वैसे ही कुछ बोलने के लिए कुछ बोल देते हैं. अब सनातन धर्म पर टिप्पणी करने का क्या उद्देश्य है यह समझ में नहीं आया. भारत विश्व गुरु कब बनेगा.
यानी बहस के विषय तो बहुत थे, लेकिन समझने वाली बात यह है कि 140 करोड़ के देश में आम आदमी की समस्याएं बहुत ज्यादा हैं और उन पर बहस चलाने से आम आदमी को राहत दिलाने में मदद मिल सकती है. बड़ी-बड़ी बातों पर बहस चलाने से जमीनी मुद्दे गौण हो जाते हैं. अब तो एक और भी बड़ी बहस का मुद्दा खड़ा हो गया है. एक राष्ट्र एक चुनाव का मुद्दा. इस पर भी लोग दो खेमें में बंटे दिखाई दे रहे हैं. रोचक स्थिति यह है कि हर खेमे के पास मजबूत तर्क है. अभी यह देखना है कि और इस तरह के कितने बहस खड़े होते हैं आम आदमी को उलझाने के लिए. यही आम आदमी की मुसीबत है कि वह तय नहीं कर पाता है की कौन सा तर्क व्यवहारिक है कौन सा नहीं. व्हाट्सएप और फेसबुक पर जुटी सेना आम आदमी को भ्रमित करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ती. नतीजा यह होता है कि आम आदमी भी रोटी भूल कर सोशल मीडिया पर लग जाता है. यानी सर्कस देखने लगता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.