Faisal Anurag
नारे बता रहे हैं कि हमलावरों को किसने निर्देश दिया होगा. सिंघु बॉर्डर पर किसानों और डेढ़ दो सौ के करीब लोग पहुंचे. इनमें कई उसी तरह के मास्क में थे जैसा कि पिछले साल जेएनयू आंदोलन के समय हमले में दिखा था. इनके नारे का आशय है दिल्ली से आये ऑर्डर के अनुसार, बॉर्डर खाली कराना है. 28 जनवरी की रात गाजीपुर में इसी तरह कुछ लोग एक भाजपा विधायक के साथ जमा हो गए थे. टिकरी बॉर्डर पर भी इसी तरह के हमले का खतरा है. सिंघु बॉर्डर पर हमलावारों ने पथराव किया और फिर तलवार भी लहराए.
जिस तरह के हालात दो दिनों से बनाये गये हैं, किसान और स्थानीय लोगों के बीच झड़प जैसे हालात बनाये जा रहे हैं. जनता के प्रतिरोध अधिकार को कुचलने का यह तरीका नया नहीं है. गाजीपुर की घटना के बाद जिस तरह किसान जनसैलाब दिखायी दे रहा है. वह सिंघु पर भी दिखेगा,यह तय है. लेकिन सवाल यह है. नागरिकता विरोधी आंदोलन हो या जामिया की घटना या फिर जेएनयू इसी तरह के नकाबपोश आए थे. नकाब पहनकर आने की घटना बताती है कि भीड़ स्वतः नहीं आयी है, बल्कि उसे किसी के निर्देश पर जुटायी गयी है.
अंग्रेजों ने भी फुट डाल कर आंदोलनों को बांटने का कार्य किया था. लेकिन इन दिनों जिस तरह का बन रहे हैं, वह तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है. एक देश जो अपने संविधान और लोकतंत्र पर गर्व करता है. वहीं नागरिकों के आंदोलन पर हमला सामान्य परिघटना नहीं हो सकती है. सिंघु बॉर्डर पर पंजाब और हरियाणा के किसानों ने डेरा जमा रखा है.
गंभीर सवाल यह है कि दिल्ली की तरफ से सिंघु बॉर्डर जाने के तमाम रास्ते बंद हैं और पुलिस के नियंत्रण में हैं. फिर वहां सौ दो सौ लोग कैसे पहुंच गए. 26 जनवरी से ही देखा जा रहा है दिल्ली पुलिस मूक दर्शक नजर आ रही है. लाल किले पर पुलिस की अनेक तस्वीरें और वीडियो वायरल हैं जिसमें वे चुपचाप खड़े हैं. भीड़ को इतना आसान राह दिया जा रहा है.
इससे अनेक संदेह पैदा हो सकते हैं, गृहमंत्री अमित शाह के काल में पिछले साल से मास्क पहनकर हमले की जो घटनाएं हुई हैं. वह किसकी विफलता मानी जायेगी. जैसा कि रवीश कुमार ने एक पोस्ट में लिखा है कि क्या शिवराज पाटिल को बैकडेट से फिर इस्तीफा देना होगा. डॉ मनमोहन सिंह के राज में शिवराज पाटिल को गृहमंत्रालय की नाकममी के बाद इस्तीफा देना पड़ा था. क्या यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि दिल्ली में मास्क पहने हमलावार बड़ी संख्या में कैसे आ जाते हैं. यह कोई अकस्मात प्रवृति तो नहीं ही दिखायी देती है.
गाजीपुर की घटना के बाद पूरा हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आंदोलित हो गया है. मुजफ्फरनगर में किसानों की पंचायत में लाखों किसानों की भीड़ जुटी है. इसी तरह अनेक टोलों पर किसानों के बड़े-बड़े समूहों का प्रदर्शन जारी है. किसानों का यह आवेग बहुत कुछ बता रहा है.
ऐसा जान पड़ता है कि न तो पुलिस ने और न ही सरकार ने गाजीपुर की घटना के बाद के हालात से कोई सबक सीखा है. किसानों को पत्थरों या तलवारों से डराने का कोई भी प्रयास शायद ही सफल होगा. जो किसान आंदोलन अब तक दिल्ली के चार बॉर्डरों तक ही दृश्यमान था. अब गांव-गांव में दिखायी देने लगा है. कम से कम हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो यह बता रहा है.
यदि जनता के खिलाफ जनता को लड़ाने की कोशिशें जारी रहेंगी, तो इसके भयावह दुष्परिणाम की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है. सिंघु हो टिकरी या गाजीपुर बॉर्डर अब केवल स्थान भर नहीं हैं बल्कि किसानों की अस्मिता के हिस्से बन गए हैं. ऐसी अस्मिता जिसकी नसों में लोकतंत्र की जीवंतता प्रभावित होगी. 30 जनवरी को जब देश महात्मा गांधी की शहादत को याद करेगा, किसान आंदोलन को नया तेवर देने का संकल्प लेने को मचल रहा है.
आने वाले दिन में आंदोलन के तूफान से भरे होने की संभावना है. जिसे रोकना शायद ही संभव हो. टकराव या हिंसा का कोई भी प्रयास आत्मघाती साबित होगा.