Ayodhya Nath Mishra
आज वैश्विक स्तर पर राजनीतिक प्रशासन और लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय चिंतन एवं उससे उद्भूत क्षेत्रीय दलों की अपरिहार्यता को झुठलाया नहीं जा सकता. भाषा-संस्कृति, सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक परिवेश और संतुलित क्षेत्रीय विकास, निवेश, समग्र विकास की अवधारणा सहित कई बिंदुओं को आधार बनाकर राजनीतिक अधिकारिता एवं सुशासन द्वारा नागरिक अधिकारों की रक्षा का आग्रह इन्हें बल प्रदान करते हैं. ऐसे में क्षेत्रीय हित रक्षा के नाम पर आंदोलन और फिर राजनीतिक दल का उदय सहज प्रक्रिया के रूप में देखा गया है. कुछ विचारक इसे देश के क्षेत्रीय वैविध्य एवं असंतुलन के साथ-साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में विशिष्ट पहचान की सुगबुगाहट मानते हैं. आमतौर पर ये दल क्षेत्रीय स्तर पर किसी उलगुलान की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की परिणति के रूप में देखे जाते हैं. इन्हें क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति, वैचारिक चिंतन और विकास की अवधारणाओं के साथ समन्वय बनाकर चलने की अनिवार्यता एवं अपरिहार्यता होती है. यही कारण है कि इन्हें कदम-कदम पर अपनी पहचान बनाए रखने हेतु विरोध, आंदोलन, संघर्ष का सहारा लेना पड़ता है और समझौतावादी दृष्टिकोण की भी अपेक्षा होती है.
इस प्रकार भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में विशेष कर एक सीमित कालखंड में प्राय: हर क्षेत्र में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ. ये उन दलों की भूमिका में कभी नहीं आ सके, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत केंद्रीय सत्ता के विरोध में विचारधारा के तौर पर विद्यमान रहे. इनमें समाजवादी, साम्यवादी और नवोद्भूत भारतीय जनसंघ तथा कतिपय राष्ट्रवादी दक्षिण पंथी पार्टियों का अधिक प्रभाव देखा गया. पर वैचारिक या नेत्री वर्ग के वैयक्तिक अहम के कारण तत्कालीन विपक्षी राजनीतिक धारा में भी बहुत परिवर्तन आया. निरंतर टूटने-जुटने का क्रम जारी रहा. कहीं कहीं तो समाजवादियों के धड़ों ने क्षेत्रीयता को हवा दे अपनी-अपनी दुकान खड़ी कर ली. पर सामान्यत: क्षेत्रीय राजनीतिक चिंतन ने ही क्षेत्रीय पार्टियों के गठन में भूमिका निभाई. इन पार्टियों द्वारा शोषण से आक्रांत स्थानीय क्षेत्रीय समाज को अभिव्यक्ति देने, समस्याओं को राष्ट्रीय फलक पर लाने एवं सम्यक समाधान के जोरदार स्वर बुलंद किए गए, पर जल्दी ही इन पर सत्ता हावी हो गई और लोकगीत का बहम बनाए रखने के लिए उनके द्वारा भी कई नैरेटिव गढ़े जाते रहे. इनमें भाषा-संस्कृति जाति- जमात, संप्रदाय और विकास के मॉडल प्रमुख थे.
बताया जाता है कि एक बार भाषा को क्षेत्रीय अस्मिता के साथ जोड़कर स्वर दिए जाने को राष्ट्रीय राजनीतिक प्रशासन ने स्वीकृति प्रदान कर दी तो फिर क्षेत्रीय दलों की सोच के अनेक दरवाजे खुल गए. उग्र आंदोलन के बाद भाषाई आधार पर तेलुगु भाषा भाषियों की बहुलता को आधार बनाकर आंध्र प्रदेश का गठन हुआ. इस प्रकार क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति की रक्षा का सर्व स्वीकार्य आग्रह क्षेत्रीय दलों की विवशता थी और विशेषता भी. राष्ट्रवाद की हिमायती शिवसेना का भी यही वैशिष्ठ्य कहा जाएगा. 1966 अर्थात अपनी स्थापना काल से ही बाल ठाकरे जी की शिवसेना मराठी भाषा- संस्कृति के प्रति विशेष आग्रही रही. जनता पार्टी की सरकार में बड़े स्तंभ रहे बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक ने 1997 में बीजू जनता दल का गठन कर उड़िया भाषा- संस्कृति को परवान चढ़ाने के साथ-साथ क्षेत्रीय संतुलित विकास को हवा दी. उनकी लोकप्रियता को इस आईना से देखा भी गया. मूलतः कांग्रेस की राजनीति के पहचान बनाने वाली ममता बनर्जी ने भी वामपंथियों के गढ़ पश्चिम बंगाल में मां-माटी-मानुष अर्थात सार्वदेशिक विकास को क्षेत्रीय हित के साथ जोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाया. इसी प्रकार तत्कालीन बिहार के कोयलांचल की मजदूर एवं गांव-गरीब विरोधी पूंजी परक सामंती शोषण के विरुद्ध संघर्ष को शिबू सोरेन के जुझारू नेतृत्व ने स्वर दिया.
कालक्रम से झारखंड मुक्ति मोर्चा एक क्षेत्रीय दल के रूप में उभर कर आया और एक बेहतर क्षेत्रीय पहचान बनायी.राज्य गठन के उपरांत यह दल झारखंड की प्रभावी राजनीति एवं सत्ता में अपना विशेष स्थान रखता है. छत्तीसगढ़ के अजीत जोगी के दल का भी उदय क्षेत्रीय समस्याओं को लेकर थोड़े समय के प्रयास का परिणाम कहा जाएगा. इन दलों के उदय के पीछे सत्तारूढ़ राष्ट्रीय पार्टियों की क्षेत्रीय हितों को नजरंदाज किये जाने के रूप में भी लोग देखते हैं.
दूसरी तरफ समाजवादी नेताओं की महत्वाकांक्षा और वैचारिक मतभिन्नता ने बार-बार नए दलों को जन्म दिया और एक-एक क्षत्रप उसके शीर्ष पर विराजमान होकर अपनी राजनीतिक इच्छा को समाजवादी चाशनी में डुबोकर सत्ता सुख भोगते रहे. आपातकाल की प्रताड़ना से उभरी पीड़ा ने कुछ दिनों के लिए भले ही विभिन्न परस्पर विरोधी सोचों को एक साथ जोड़ा था, पर वह भी टिकाऊ न हो सका .परिणाम ढाक के तीन पात. अलग-अलग जमात की अपनी दुकान. परिणामत: कई क्षेत्रीय पार्टियों का सुविधानुसार अभ्युदय हुआ. मंडल आयोग की सिफारिश की लहर पर सवार ये दल संपूर्ण क्रांति की पुरोधाई को बहुत जल्दी भुला दिए और क्षेत्रीयता के हिमायती बन बैठे. जयप्रकाश बाबू की समग्र क्रांति के युवा तुर्क कहे जाने वाले लोगों ने देश की युवाशक्ति के सपनों को जल्दी ही भुला दिया. इन्हें सत्ता के राजनीतिक व्यामोह ने सामाजिक आर्थिक विकास से परे वर्ग जाति समूह की राजनीति सुविधाजनक लगी.
सभी को तात्कालिक उपलब्धियों में सोशल जस्टिस की पूर्णता दिखाई देने लगी. यहां विचारणीय है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उदय एवं प्रभाव के पीछे मूल कारण क्या है? इतना तो स्पष्ट है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत की सत्ता लंबी अवधि तक कांग्रेस के हाथों में रही. जनता शासन को छोड़ दें तो 1989 तक कांग्रेस बे रोक-टोक अबाध सत्ता सीन रही. कहीं न कहीं केंद्र-राज क्षेत्रीय संबंधों में संतुलन की कमी क्षेत्रीय चिताओं की उपेक्षा और संतुलित क्षेत्रीय विकास की कमी में शुमार रहे.
अंततः क्षेत्रीय दलों की अपरिहार्यता और राष्ट्र हित के प्रसंग में इतना कहना प्रासंगिक होगा कि सभी प्रकार के दल एवं उनकी राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था लोकहित और राष्ट्रहित के लिए प्रतिबद्ध है. आवश्यकता है तो देशकाल स्थिति के अनुकूल राष्ट्र हित में समन्वित समग्र राष्ट्रीय प्रयास की. हां, कौन नहीं चाहेगा कि विकास की किरणें, शांति सुरक्षा और लोकहित उनके क्षेत्राधिकार तक अविलंब से पहुंचे. जन अपेक्षाओं के अनुसार पूर्वाग्रहों एवं संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर सबके विकास, संतुलित विकास, समग्र विकास की अवधारणा को रूपायित करने से ही सभी पक्षों का हित संभव है. आज राष्ट्रीय राजनीति क्षेत्रीय दलों से राष्ट्रीय हित में अनेक अपेक्षाएं रखती हैं!
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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