Premkumar Mani
आम तौर पर धर्मनिरपेक्षता, इहलौकिकता और सर्वधर्मसमभाव को एक ही चीज माना जाता रहा है. यह धारणा सबसे अधिक गांधीवादियों ने विकसित की. भारत का संविधान स्टेट को सेक्युलर अथवा इहलौकिक घोषित करता है. संविधान सभा ने इस पर ही अपनी मुहर लगाई थी, लेकिन कांग्रेस के अधिकांश नेता सर्वधर्मसमभाव में यकीन करते थे, सेकुलरवाद में नहीं. गांधी इसके अगुआ थे. यह भी सच्चाई है कि बड़ी संख्या में वहां इहलौकिक-धर्मनिरपेक्ष तबीयत के लोग भी थे. जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस जैसे लोग साइंटीफिक टेंपर और स्टेट की धर्म से निरपेक्षता में यकीन करते थे. कांग्रेस की छतरी से बाहर काम करने वाले भगत सिंह भी इसी विश्वास के थे. दलित प्रश्न पर सक्रिय डॉ अम्बेडकर तनिक भिन्न तबीयत के थे. मनुष्य के लिए वह धर्म की जरूरत समझते थे, किन्तु उनका धर्म ईश्वरनिरपेक्ष और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न था. यह विचार धर्म की प्रचलित अवधारणा से भिन्न है. इसके लिए उन्होंने पुराने बौद्ध धर्म को कुछेक संशोधनों के साथ स्वीकार किया था. उनकी धर्म-क्रांति एक दिलचस्प विषय है, जिस पर उस तरह चर्चा नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए थी.
सच्चे अर्थों में इहलौकिक या सेक्युलर वह होता है, जो किसी पारलौकिक सत्ता में यकीन नहीं करता. पुराने जमाने में भी ऐसे लोग थे, जो किसी कर्तृवाद में यकीन नहीं करते थे. उनके पास साक्ष्य कम, अनुमान और तर्क अधिक थे. भारत में इसे लोकायत पंथ कहते थे. लोकायत मत के लोग ईश्वर की उपेक्षा कर के जीवन और जगत पर विचार करते रहे हैं. विज्ञान के व्यवस्थित अध्ययन ने जगत और जीवों के विकास की एक वैज्ञानिक अवधारणा और उसके समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत किये. इस तरह इहलौकिकता के विश्वास को वैज्ञानिक आधार मिल गया. जो प्रकृति और जीवों के विकासवादी सिद्धांत की जगह किसी सृष्टिकर्ता के होने में विश्वास करता है, वह इहलौकिक अथवा सेक्युलर नहीं हो सकता.
बौद्ध और जैन मत को छोड़ कर दुनिया के प्राय: सभी संस्थागत धर्म-मजहब किसी न किसी तरह के कर्तृवाद में यकीन करते हैं. सेमिटिक या इब्राहिमी धर्म तो ईश्वर को जगत से पृथक अवस्थित बताते हैं. भारत के सनातनी मत में द्वैत के साथ एकात्म या अद्वैत की भी अवधारणा है जिसके अनुसार ईश्वर और जीव अलग नहीं, एक साथ है. इस्लामी सूफीवाद में इस अवधारणा को अनलहक कहा जाता है, जो इस्लाम की मूल अवधारणा के अनुसार गलत है. इस तरह धर्म-मजहब ईश्वर के विचार से इतना गुत्थम-गुत्थ हो गया कि इहलौकिकता और सर्वधर्मसमभाव को एक ही अर्थ में रखना मुश्किल हो गया.
आधुनिकता और लोकतांत्रिक विश्वासों ने जब राजनीतिक सक्रियता को प्रभावित किया, तो वहां धर्म और उससे समाज की निरपेक्षता के विचार सामने आये. राजनीति में इसका अर्थ हुआ स्टेट का किसी मजहब से अलग होना. यह ख्याल धीरे- धीरे विकसित हुआ. दुनिया के विभिन्न हिस्सों में यह अपने हिसाब से हुआ. हमारे देश में भी. अंग्रेजों के भारत में राजनीतिक स्तर पर मजबूत होने के साथ यहां की रजवाड़ी-सामंती राजनीतिक व्यवस्था कमजोर हुई. ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र किसी न किसी रूप में यहां चर्चित हुआ. 1947 तक भारत का दो तिहाई क्षेत्र ब्रिटिश कॉलोनी था, तो एक तिहाई देशी रजवाड़ी व्यवस्था के तहत था. कश्मीर, हैदराबाद, ग्वालियर, जूनागढ़ जैसी दर्जनों बड़ी रियासतें तो थीं ही, सैंकड़ों छोटी रियासतें भी थीं. जैसे राजस्थान का लगभग नब्बे फीसद हिस्सा इन छोटी रियासतों से भरा था. इन तमाम देशी रियासतों में सामाजिक पिछड़ापन बना रहा और लोकतांत्रिक आधुनिक गतिविधियां सुस्त रहीं. इसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है.
यूरोप में धर्मनिरपेक्षता और इहलौकिकता के विचार अधिक तेजी से फैल रहे थे. जैसा पहले बतलाया कम से कम राजसत्ता को धर्मनिरपेक्ष रखने का आग्रह तो मजबूत होता जा ही रहा था. पोप और चर्च की ताकत सिमट रही थी. प्रथम विश्वयुद्ध के साथ जब उस्मानिया राज का अंत हुआ तब एक मुस्लिम देश तुर्की में भी एक सामाजिक क्रांति हुई और एक धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक व्यक्तित्व अतातुर्क कमाल पाशा का अभ्युदय हुआ. भारत की परेशानी यह रही कि इसी वक्त खिलाफत आंदोलन आरम्भ हो गया, जो उस्मानिया राज और खिलाफत के समर्थन में था. गांधी इसका नेतृत्व कर रहे थे. खिलाफत के समर्थन में हजारों कट्टर मुसलमान ब्रिटिश राज को शत्रु भूमि मान कर इस से बाहर (हिजरत पर) चले गए. ऐसे लोगों को मुजाहिर कहा जाता है. लगभग बीस हजार मुजाहिर इस क्रम में मरे. कमाल तो यह था कि इन्हीं धर्मांध मुजाहिरों में से तीन (सफीक सिद्धकी, अहमद हसन और शौकत उस्मानी) ताशकन्द में गठित (1920) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक भी बने. ऐसे में जहां राष्ट्रीय और वाम आंदोलन शुरू से ही विचार के स्तर पर दिग्भ्रमित रहा, वहां दूसरी गतिविधियां कितना सेकुलर हो सकती थीं.आधुनिकता के वैश्विक प्रभाव में हमारा संविधान जरूर सेकुलर हुआ, लेकिन साइंटीफिक टेंपर को वहां व्यवस्थित करना संभव नहीं हुआ. व्यवहार में (आंशिक तौर पर ही सही) सर्वधर्मसमभाव ही स्वीकार हुआ.
धर्मनिरपेक्षता और इहलौकिकता पर व्यापक विमर्श आज भी हमारी सामाजिक-राजनीतिक जरूरत है. नयी पीढ़ी को तो इसमें रुचि लेनी ही चाहिए. पुरानी धार्मिक मान्यताओं (इस में सभी धर्मों को रखा जाना चाहिए ) के साथ हम भविष्य की यात्रा नहीं कर सकते. मनुष्य जाति को धर्म और आध्यात्म की जरूरत होगी. लेकिन इसका लोकायतिकरण आवश्यक होगा. अंबेडकर ने ईश्वररहित बौद्ध धर्म के रूप में एक विकल्प जरूर रखा था, लेकिन ऐसा लगता है, वह जल्दीबाजी में थे. बौद्ध धर्म के आंतरिक पाखण्ड पर उनका ध्यान उस गंभीरता से नहीं गया, जैसा जाना चाहिए था. इसलिए उनका नवबौद्ध आंदोलन अधिक सफल नहीं हो सका. उसकी आध्यात्मिक विशेषताओं को लेकर वह उस स्तर पर भी गंभीर नहीं हुए, जैसे जे कृष्णमूर्ति हुए थे. शायद अंबेडकर को अपने जीवन के समापन का अहसास हो चुका था. उन्होंने एक आरम्भ कर दिया शायद इस विश्वास के साथ कि उनके अनुयायी इसे पूरा करेंगे. लेकिन अनुयायी लकीर के फकीर निकले. उनकी जो चुनौती थी, उसे स्वीकार करना सब के बूते का नहीं था. बहरहाल यह सवाल आज भी बना हुआ है. इसके विविध पक्ष पर विचार किया ही जाना चाहिए.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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