Shravan Garg
एक सामान्य और असहाय नागरिक को अपनी प्रतिक्रिया किस तरह से देना चाहिए? पंजाब कांग्रेस के मुखिया और मुख्यमंत्री पद के दावेदार नवजोत सिंह सिद्धू के इस उत्तेजक बयान पर राहुल गांधी समेत सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की ज़ुबानों पर ताले पड़ गए हैं कि (धार्मिक) बेअदबी के गुनहगारों को खुले आम फांसी दे देना चाहिए. अमृतसर और कपूरथला के दो धर्मस्थलों पर पवित्र गुरु ग्रंथ साहब के अपमान की अलग-अलग घटनाओं के सिलसिले में दो लोगों को “धर्मप्राण” भी़ड़ ने पीट-पीट मार डाला. जिन लोगों की जानें गईं हैं उनकी पहचान को लेकर किसी भी तरह की जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है. जिन लोगों ने मारपीट की घटना को अंजाम दिया उनके नाम-पते भी अज्ञात हैं. घटना की जांच रिपोर्ट भविष्य में जब भी सामने आएगी तब तक के लिए सब कुछ रहस्य की परतों में कैद रहने वाला है.
विधानसभा चुनावों के ऐन पहले इन घटनाओं का होना (इसी तरह की एक घटना 2017 के चुनावों के पहले 2015 में हुई थी) और उन पर एक जिम्मेदार नेता की उग्र प्रतिक्रिया लोकतंत्र और न्याय-व्यवस्था की मौजूदगी और प्रभाव के प्रति डर पैदा करती है.
सिद्धू की मांग न सिर्फ़ भविष्य को लेकर चिंताएं उत्पन्न करती है, अतीत की उन तमाम दुर्भाग्यपूर्ण मॉब लिंचिंग घटनाओं को भी वैधता प्रदान करती है, जिनमें धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोपों में एक समुदाय विशेष के लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थी. दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उस तरह की घटनाएं अब बंद हो चुकी हैं.(हरिद्वार में हाल ही में हुई हिंदू संसद में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ दिए गए उत्तेजक भाषण उसका संकेत है). सत्ता की राजनीति ने सबको ख़ामोश कर रखा है. ऐसा लगता है सब कुछ किसी पूर्व-निर्धारित स्क्रिप्ट के मुताबिक ही चल रहा है.
किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाने अथवा बेअदबी करने के आरोप में बिना किसी साक्ष्य, मुकदमे और गवाही के धार्मिक स्थलों अथवा सड़कों पर भीड़ द्वारा ही अगर सजा तय की जानी है, तो हमें अपने देश की भौगोलिक सीमाएं उन मुल्कों के साथ समाप्त कर देना चाहिए. जहां धर्म के नाम पर इस तरह की क़बीलाई संस्कृति आज के आधुनिक युग में भी कायम है. हम जिस सिख समाज को अपनी आँखों का नूर मानते आए हैं वह इस तरह के भीड़-न्याय को निश्चित ही स्वीकृति नहीं प्रदान कर सकता.
कहना मुश्किल है कि वे तमाम राजनीतिक दल और धर्मगुरु, जो नागरिकों की बेअदबी और जीवन जीने के ईश्वर-प्रदत्त अधिकारों के सरेआम अपहरण के प्रति अपमानजनक तरीके से मौन हैं, जलियांवाला बाग जैसी कुरबानियों में झुलसकर निकले राष्ट्र को 1947 के दौर में वापस ले जाना चाहते हैं या अक्टूबर 1984 में प्रकट हुए देश के तेजाबी चेहरे की ओर.
अहिल्याबाई होलकर के जिस ऐतिहासिक इंदौर शहर में मैं रहता हूं, उसमें 31 अक्टूबर 1984 के दिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की आँखों देखी याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सिख रिहाइशी इलाक़ों में चुन-चुनकर घर जलाए जा रहे थे, धार्मिक स्थल सूने और असुरक्षित हो गए थे. लोग मदद के लिए गुहार लगा रहे थे. आग बुझाने वाली गाड़ियां एक कोने से दूसरे कोने की ओर भाग रहीं थीं. पुलिस चौकियों पर जलते मकानों से सुरक्षित बचाए गए सामानों के ढेर लगे हुए थे. कोई ढाई सौ साल पहले मराठा साम्राज्य के दौरान होलकरों द्वारा निर्मित ऐतिहासिक राजवाड़ा के एक हिस्से में आग लगा दी गई थी.
इंदिरा गांधी के अस्थि कलश का जुलूस जब उसी राजवाड़ा की दीवार के नज़दीक से गुज़र रहा था, उसके जलाए जाने की क़ालिख इस ऐतिहासिक इमारत और शहर के चेहरे पर मौजूद थी. वे तमाम सिख जो उस दौर की यंत्रणाओं और अपमान से गुज़रे थे, उनके परिवार आज उसी शहर में शान और इज्जत से रहते हैं. उन दुर्दिनों के बाद भी किसी ने यह मांग नहीं की कि घटना के दोषियों को सड़कों पर फांसी की सजा दी जानी चाहिए.
बेअदबी की घटनाओं के बाद राहुल गांधी की किसी भी संदर्भ में की गई इस टिप्पणी में कि लिंचिंग शब्द भारत में 2014 के बाद आया है, कांग्रेस की असहाय स्थिति और सिद्धू की फांसी की मांग पर भाजपा (और उसके अनुषांगिक संगठनों) की चुप्पी में कट्टरपंथी पार्टी के अपराध बोध की तलाश की जा सकती है. सिद्धू के इस आरोप के क्या मायने निकाले जाने चाहिए कि :’एक समुदाय के ख़िलाफ़ साज़िश और कट्टरपंथी ताक़तें पंजाब में शांति भंग करने की कोशिश कर रही हैं’? सिद्धू अपनी बात को साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहना चाहते?
कोई साल भर तक राजधानी दिल्ली के बार्डरों (सिंघु ,टिकरी और ग़ाज़ीपुर) पर चले अत्यंत अहिंसक आंदोलन और उसके दौरान कोई सात सौ निरपराध किसानों के मौन बलिदानों से उपजी सहानुभूति के आईने में पंजाब के मौजूदा घटनाक्रम को देखकर डर महसूस होता है. पंजाब के किसानों के सामने चुनौती अब अपनी कृषि उपज को उचित दामों पर बेचने की नहीं बल्कि यह बन गई है कि राज्य की हुकूमत को किन लोगों के हाथों में सौंपना ज़्यादा सुरक्षित रहेगा!
किसी भी धर्म या आस्था को लेकर की गई बेअदबी हो अथवा नागरिक जीवन का हिंसा के ज़रिए असम्मान किया गया हो,क्या दोनों स्थितियां अलग-अलग हैं या एक ही चीज़ हैं? अगर अलग-अलग हैं तो दोनों के बीच के फ़र्क़ को अदालतें तय करेंगी या यह काम भीड़ के ज़िम्मे कर दिया जाएगा? दूसरे यह कि क्या ऐसा मानना पूरी तरह से सही होगा कि लिंचिंग की घटनाओं को क़ानूनों के ज़रिए रोका जा सकता है? कहा जा रहा है कि पंजाब द्वारा केंद्र की स्वीकृति के लिए भेजे गए क़ानूनी प्रस्तावों को अगर मंज़ूरी मिल जाती तो बेअदबी की घटनाएं नहीं होतीं. लिंचिंग एक मानसिकता है जो धर्मांधता से उत्पन्न होती है .सिर्फ़ क़ानूनी समस्या नहीं है. दुनिया का कोई भी धर्म या क़ानून भीड़ की हिंसा को मान्यता नहीं देता. दिक्कत यह है कि लिंचिंग को धर्म के बजाय सत्ता की ज़रूरत में तब्दील किया जा रहा है. मुमकिन है सिद्धू का बयान भी सत्ता की तात्कालिक ज़रूरत की ही उपज हो.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.