गांव की कहानी
लेखक : बिरसिंह मुण्डा(भूतपुर्व सरपंच),मंगरा मुण्डा ,सदे मुण्डा,जोटो मुण्डा
तारूब गाँव खूँटी जिला स्थित मरंगहदा थाना के तिलमा पंचायत में खूँटी से पूर्वोतर की दिशा में बसा हुआ है. खूँटी से इसकी दूरी 23 किलोमीटर है और मारंगहादा से इस गाँव की दूरी 8 किलोमीटर है. इस गाँव में गेले टुटी किलि के 122 मुण्डा परिवार बसे हुए हैं. इसके साथ ही 2 महतो परिवार, 2 सँवासी परिवार, 1 ठाकुर परिवार और 2 मृधा (डोम) परिवार रहते हैं. सभी लोग यहाँ पर अपने पूर्वजों के काल से ही रहते आ रहे हैं. गाँव के लोगों ने जंगल के साफ करके ही इसे बसाया है.लगभग 5590 की जनसंख्या वाले इस गाँव में महिलाओं की आबाद पुरूषों की संख्या से ज्यादा है.
तरूब गांव के नामाकरण की कहानी
सुतियाम्बे-कुड़ुम्बे से चलने के बाद तारूब की नींव रखने वालों ने हटिंगचाउली में डेरा जमाया था. इस वक्त ये लोग कंद-मूल के सहारे ही अपना जीवन निर्वाह करते थे. इन लोगो की दिनचर्या किसी बंजारे (खाना बदोश) की तरह थी. दिनभर ये लोग कंद-मूल की तलाश में ही रहते थे. इसी सिलसिले में ये लोग दक्षिण दिशा की ओर आ गए. उस वक्त कांची नदी बहुत संकरी थी. दिन भर कंद-मूल तलाशने के बाद जब लोग अपने-अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे, तब तक शाम हो चुकी थी और बारिश के पानी से कांची लबालब भर चुकी थी. उसका पानी जोरों से उफान मार रहा था. नदी बहुत चौड़ी हो गई थी. जमीन का कहीं पर अता-पता नहीं था. इन लोगों के ठंड लगने लगी और ठंड से बचने की कोई व्यवस्था नहीं थी. उन्होंने कांची नदी के उस पार रुके हुए अपने भाईयों को आवाज देकर आग का अंश इस पार भेजने को कहा. इन लोगों ने धनुष और तीर के सहारे जलता हुआ आग का अंश इस पार भेजा.
आग तापकर ही इन लोगों की जान बची. जहाँ पर ये लोग रुके थे वहाँ पर चारों ओर केउन्द और चार के पेड़ों की भरमार थी. केउन्द और चार के फलों को खाकर ही ये लोग अपना दिन बसर करने लगे. मुण्डारी भाषा में तारूब का शाब्दिक अर्थ है चार के पेड़ की भरमार. इसलिए इस गाँव का नाम तारूब पड़ा. वर्तमान समय में इस गाँव में चारों ओर केउन्द पेड़ों की भरमार है.
यह गाँव तीन खेवट में बँटा हुआ है. पहले खेवट में राजा का अधिकार हुआ करता था तथा दूसरे खेवट में जमींदारों का अधिकार हुआ करता था. जो मालगुजारी वसूल करके राजा तक पहुँचाते थे. 3/1 खेवट में मुण्डाओं का अधिकार चला आ रहा है.
शिक्षा के मामले में यह गाँव काफी आगे है. गाँव के 30 प्रतिशत लोग (स्त्री-पुरुष) शिक्षित हैं. इस गाँव के अधिकांश लोग साक्षर है. यह गाँव पाँच शीट में फैला हुआ है. इस गाँव का शीट संख्या 1, 2 और 4 जंगल से भरा हुआ है. शीट संख्या 3 में केवल खेती की जाती है.
सीमान
तारूब गाँव के पूर्व दिशा में अड़ाडीह गाँव स्थित है. पश्चिम दिशा में ग्राम रबंगदा:,उत्तर में कुजराम, तो दक्षिण में तिलमा एवं जोरदा:. गाँव के पूर्वोतर दिशा में छोटी-छोटी पर्वत मालाएँ हैं. अलग-अलग पहाड़ों को अलग-अलग नाम से जाना जाता है. जिनमें बामाड़ें बुरू, होचोहोचो बुरू, बाड़ीद: बुरू,ड़ेरा बुरू, काड़ाकोम बिर, जायपाटा बुरू, पाटकी बुरू शामिल हैं. इसी दिशा में बहुत बड़ा एक जंगल है. जो सिरूम के जंगल के बाद इस क्षेत्र का दूसरा बड़ा जंगल है. इस गाँव के उत्तर दिशा में 2.5 किलोमीटर की दूरी पर जंगल से सटकर काँची नदी बहती है.
काँची नदी पश्चिम से पूरब की ओर बहती है. इस नदी में पूरब की ओर आगे बढ़ने पर दशोम (दशम) जलप्रपात मिलता है. गाँव से दक्षिण दिशा में सरना स्थित है, जहाँ सरहुल और बताउली में पूजा की जाती है. गाँव के उत्तर दिशा में होरा बुरू स्थित है. दिसम्बर महीने में पूर्णिमा को नौ दिन बाद यहाँ पर पूजा करने की प्रथा है. तारूब गाँव के पश्चिम दिशा में चापुन इकिर स्थित है. अच्छी फसल की कामना करते हुए यहाँ पर वर्ष में एक बार सामूहिक रूप से पूजा-अर्चना की जाती है. दक्षिण दिशा में ही बासिना नाम का एक पूजा स्थल है. जो एदेल बेड़ा नाम की जगह पर स्थित है. यहाँ पर बारह वर्ष में एक बार पूजा की जाती है. इस अवसर पर भेड़ की बलि दी जाती है. किसी भी प्रकार के दुख को गाँव से दूर रखने के लिए यह पूजा की जाती है. गाँव के उत्तर दिशा में दिबि पूजा स्थान है.
यहाँ पर वर्ष में एक बार (जून के अंत या जुलाई की शुरुआत में) पूजा की जाती है. पूजा के अवसर पर एक लाल बकरा, एक काला भेड़ और एक कारी पठिया (काली बकरी) की बलि दी जाती है. इसके साथ ही साथ वहाँ पर चार चेंगनों की (मुर्गी के बच्चो की) बलि देने की प्रथा है. दिबि पूजा में सामग्री के रुप में पान, सुपारी, सिरनी, गांजा, अफीम एवं फूल की जरूरत पड़ती है. दिबि पूजा इस विश्वास से करते हैं कि गाँव में कोई बड़ी बीमारी न घुस सके.
सरना में सात मुर्गे मुख्यत: पुण्डी (सफेद), अरा (लाल), सुकड़े (लाल काला का मिलावट), मलि (चितकबरा), अरा पुरता (लाल-सफेद) एवं दो काला मुर्गा की बलि दी जाती है. तपन इली (देवताओं को अर्पण किया जाने वाला चावल का मद्य) से सरना में पूजा की जाती है. और वहीं से सभी इकिर का नाम लेकर देवताओं से प्रार्थना की जाती है.
विवाह प्रणाली
इस गाँव में चार प्रकार की विवाह प्रणाली का प्रचलन है और इसे मान्यता दी जाती है.
(1) माँ-बाप की इच्छा से विवाह
(2) हाट-बाजार अथवा हरण विवाह
(3) प्रेम विवाह
(4) विधवा विवाह
माँ-बाप की इच्छा से विवाह
माँ-बाप की इच्छा से होने वाली शादी पूरे रीति-रिवाज के साथ होती है. इस प्रकार की शादी पूरे परंपरागत तरीके से और सुनिश्चित ढंग से आयोजित की जाती है. सबसे पहले अगुआ वर एवं वधु पक्ष के एक-दूसरे को बारे में जानकारी देता है. फिर पूरे विधि-विधान के साथ शादी सम्पन्न होती है.
इस तरह के विवाह में सबसे पहले लड़का के पिता एवं रिश्तेदार तथा गाँव के कुछ लोग लड़की के घर जाते हैं. जिस लड़की को देखने जाते हैं, वही लड़की लोटा में पानी लेकर मेहमानों के सामने जाती है और पारंपरिक तरीके से स्वागत करते हुए जोहार करती है. शादी के लिए आये मेहमान जब लड़की को पसंद करते हैं तो बात आगे बढ़ायी जाती है. लड़का वाले लड़की वालों के लड़का देखने के लिए आमंत्रित करते हैं.
उसके बाद लड़की वाले अपने रिश्तेदारों के साथ लड़का वालों के घर जाते हैं. लड़का पसंद होने पर लड़की के माता-पिता लड़का को लड़की देखने के लिए अपने घर आमंत्रित करते है.
लड़का अपने दोस्त के साथ लड़की देखने लड़की के घर जाता है. लड़की लोटा में पानी लेकर लड़का के सामने आती है और पारंपरिक तौर से लड़का और उसके दोस्तों का स्वागत करती है. उसके बाद लड़का-लड़की के हाथ में कुछ पैसा देता है. इसके बाद लड़की अपने घर वालों के सामने लड़का से बात-चीत करती है. लड़की के घर वाले लड़का और इनके दोस्तों को खाना खिलाकर उसी दिन विदाई कर देते हैं. इस प्रक्रिया के बाद लड़का के पिताजी और अगुवा लड़की के घर जाते हैं और लोटा पानी का दिन तारीख तय करते हैं.
लोटा पानी के दिन सर्वप्रथम लड़की के घर लड़का वाले नया कुटुम्ब के लिए आते हैं. इस दिन लड़की वाले लड़का वालों से लड़की की माँ, चाची, मौसी, फुआ तथा मामी के लिए 9-11 साड़ी, दादी के लिए जिया लेदरा-पडिया कीचरी (सवांसी के द्वारा बनायी गयी साड़ी) दुल्हन के लिए तीन साड़ी (एक हल्दी साड़ी, एक लगन साड़ी एक शादी की साड़ी) एवं सिंगार तथा लड़की के भाई के लिए एक जोड़ा बैल, डाली टका एवं एक धोती की मांग करते हैं. इस मांग से जब लड़का वाले सहमत होते हैं तो मेहमानों को नहाने के लिए नदी ले जाते हैं.
नदी से नहाने के बाद सारे कुटुम्ब वापस लड़की के घर आते हैं. गाँव की महिलाएँ उन मेहमानों का स्वागत करती है. उन मेहमानों और गाँव वालों के सामने लड़की को गोदी करके आंगन में निकाला जाता है. लड़की के साथ उसकी एक सहेली होती है. लड़का वाले लड़की के कपड़ा और पैसा देते है. उस समय लड़की की सहेली को भी पैसा दिया जाता है. लेन-देन के अन्त में लड़की से अन्तिम बार पूछा जाता है कि तुम्हें लड़का पसंद है या नहीं. हाँ में उत्तर मिलने के बाद कुटुम्ब मान कर मेहमानों की विदाई कर दी जाती है. इसी प्रकार लड़का के घर लड़की वाले कुटुम्ब भोजन के लिए जाते हैं और इसकी सारी प्रक्रिया पूरी करते हैं. इस दौरान शादी की तिथि तय की जाती है.
तय तिथि के अनुसार लड़का वाले लड़की के घर अपने रिश्तेदार, दोस्त, मेहमान, बाजा-गाजा एवं पारंपरिक पइका नाच के साथ बारात लेकर जाते हैं. बारात पहुँचने के बाद लड़की के माता-पिता को द्वारा रिश्तेदार, मेहमान, दोस्त और बारातियों का पारंपरिक तरीके से स्वागत किया जाता है. इसके बाद शादी का कार्यक्रम शुरू हो जाता है. शादी सम्पन होने के बाद बारातियों को भेज दिया जाता है. भोजन के बाद दुल्हन के साथ बारातियों को विदा किया जाता है.
इस प्रकार की शादी पहले दिन में की जाती थी. परन्तु आजकल शादी रात में की जाती है और बारातियों के सुबह विदा किया जाता है. इस तरह की शादी के बारे में लोगों ने बताते हुए कहा कि यदि कोई लड़का बारातियों के साथ शादी के लिए घर से निकलता है और जिससे शादी होनी है वो लड़की अगर किसी दूसरे लड़के के साथ भाग जाती है या शादी नहीं करने की इच्छा से कहीं चली जाती है तो लड़का लड़की की बहन से शादी करके वापस घर आता है. कहने का तात्पर्य है कि लड़का बिना दुल्हन के घर वापस नहीं आता.
हाट-बाजार/हरण विवाह
इस तरह के विवाह में युवक अपनी पंसद की युवती के हाट-बाजार अथवा मेला से हरण करके ले जाता है. जब किसी युवक को कोई युवती पसंद आ जाती है और शादी के प्रस्ताव को वह नहीं मानती है तब वह युवक अपने अन्य साथियों के सहयोग से इस युवती को हाट-बाजार अथवा किसी जगह से हरण कर लेता है. बाद में पूरे विधि-विधान के साथ उनकी शादी करा दी जाती है. इस शादी के दोनों पक्ष के लोग स्वीकृति दे देते हैं.
प्रेम विवाह
यदि कोई युवक तथा युवती एक दूसरे को पसंद करते हैं और प्रेम करते हैं तो युवती युवक के साथ बिना शादी के ही साथ रहने लगती है. इस प्रकार के युवक-युवतियों को समाज उनके रिश्तों को मान्यता देने के लिए दोनों के माता-पिता से बात करके विधि-विधान से शादी कर दी जाती है.
यदि इस प्रकार का विवाह किसी कारणवश विधि-विधान से नहीं हो पाता है तो भी युवक-युवती साथ-साथ रहते हैं. इस दौरान उनके पुत्र अथवा पुत्री के जन्म को भी मुण्डा समाज मान्यता देता है. परंतु उन पुत्रों अथवा पुत्रियों की शादी से पहले उनके माता-पिता को विधि-विधान से शादी करनी पड़ती है. यदि माता-पिता विधि-विधान से शादी नहीं करते हैं तो उनके पुत्र अथवा पुत्रियों की शादी नहीं हो पाती है.
इस प्रकार की शादी में समाज का कोई विरोध नहीं होता. बस एक शर्त होती है कि प्रेमी-प्रेमिका दोनों एक ही किलि के न हो. यदि ऐसा होता है तो उन दोनों के बीच जो रिश्ते होते हैं, उसकी मान्यता समाज नहीं देता. इस तरह के युवक-युवतियों के लिए मुण्डा समाज में दण्ड का प्रवाधान है. क्योंकि मुण्डा समाज की मान्यता है कि एक ही किलि के लोगों के बीच खून का रिश्ता होता है. एक ही किलि की युवक-युवतियां आपस में भाई-बहन होते हैं. जो प्रेमी-प्रेमिका एक ही किलि के होते हैं उन्हें समाज बिटलाहा (बहिष्कृत) घोषित कर देता है.
इस तरह के विवाह में कोई युवक अथवा युवती आदिवासी को छोड़कर दिकु (गैर आदिवासी या अन्य समुदाय के लोग) के साथ शादी नहीं कर सकता. मुण्डा लोग अन्य आदिवासी (संताली, हो, उराँव) से शादी विवाह कर सकते हैं. यदि कोई युवक अथवा युवती गैर आदिवासी से प्रेम करता है और शादी करने की इच्छा रखता है अथवा शादी कर लेता है वैसे जोड़ियों को भी दण्ड दिया जाता है. लड़का और लड़की के माता-पिता के घर में पूजा-पाठ करना होता है. इस पूजा में सफेद बकरा की बलि दी जाती है. उसके बाद ही गाँव वाले अथवा रिश्तेदार लड़का अथवा लड़की के घर में खा सकते हैं. गैर आदिवासी में शादी करने वाले जोड़ी को घर से निकाल दिया जाता है. अगर शादी करने वाले जोड़ी अपने ही घर में रहते हैं तो गाँव वाले तथा रिश्तेदार इस लड़का अथवा लड़की के घर में नहीं खाते है. कहने का तात्पर्य है कि ऐसी शादी में मुण्डा समाज परिवार का ही बहिष्कार कर देता है.
विधवा-विवाह
मुण्डा समाज में विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करने पर कोई रोक नहीं है. किसी घर में यदि कोई स्त्री विधवा हो जाती है तो वह उस घर में ही अपने देवर से शादी कर सकती है. यदि वह उस परिवार से बाहर शादी करना चाहती है तो उसे अपने मृत पति के घर वालों से सहमति लेनी पड़ती है. ऐसे विवाह के लिए उसे अपने गाँव से बाहर किसी दूसरे गाँव में शादी करनी होती है. इसके लिए विधवा होने के पश्चात उसे ससुराल छोड़कर अपने नईहर (मायके) जाना पड़ता है.
इस गाँव में जितनी पूजा की जाती है सभी में बलि देने की प्रथा है. बलि दिए गए पशुओं के सिर को इकट्ठा करके चावल और दाल के साथ पूजा स्थल पर ही खिचड़ी पकायी जाती है. उस खिचड़ी को पूरे गाँव के पुरुष वर्ग और बच्चे प्रसाद के रूप में वहीं पर ग्रहण करते हैं. बलि दिए गए पशु (मुर्गा, मुर्गी, बतख,भेड़, बकरा) के बाकी शरीर को गाँव वाले आपस में बाँट लेते हैं और अपने-अपने घरों में परिवार और कुटुम्ब जनों के साथ पका कर खाते हैं. पूजा करने से पहले गाँव के लोग मिलकर चंदा इकट्ठा करते हैं और बलि देने के लिए पशु की व्यवस्था करते हैं.
पर्व त्योहार
इस गाँव में बा पोरोब , मागे पोरोब, करम पोरोब सहित अन्य सांस्कृतिक आयोजनों में ढोल, नगाड़ा, मांदर एवं नाच-गान के साथ उत्सव मनाने की परंपरा है. उत्सव में गाँव की सामूहिकता, सामुदायिकता एवं समानता की झलक देखने को मिलती है.
बा पोरोब (सरहुल)
इस गाँव के लोग बा पोरोब (सरहुल) में अपने मृत-पूर्वजों के स्मरण करते हैं और इसे एक विजय दिवस के रूप में मनाते हैं. इसे पुष्प त्योहार के रूप में जाना जाता है. यह त्योहार मार्च के अन्त में अथवा अप्रैल के आरम्भ में मनाया जाता है. बा पोरोब के पीछे एक ऐतिहासिक कहानी है-एक बार मुण्डाओ: और अंग्रेजों के बीच में घमासान युद्ध छिड़ गया. सभी मुण्डा एक जुट हो गए. युद्ध में अपने समुदाय के लोगों को पहचानने के लिए उन्होंने अपने कान में और सिर में सखुआ के फूल खोंस लिए थे. सखुआ के जंगलों ने भी छिपकर वार करने में मुण्डाओं की काफी मदद की.
इस युद्ध में मुण्डाओं की जीत हुई थी. तब से ये लोग सखुआ के फूल की और सखुआ के पेड़ों की पूजा करते हैं. बा पोरोब (सरहुल) में सखुआ कक् पेड़ों की पूजा की जाती है और इस पोरोब (सरहुल) को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह पोरोब हमेशा जीत की याद दिलाता रहता है.
मागे
मागे पर्व के अवसर अच्छी फसल की कामना करते हुए अपने पूर्वजों एवं सिंङबोंगा के नाम से चावल की छिलका रोटी एवं हँडि़या से पूजा किया जाता है. इस पोरोब में मेहमनों के आमंत्रित किया जाता है. इस अवसर पर गाँव में फुदी खेलने की परम्परा है. साथ ही धांगर के सिर में तेल लगाने तथा उससे पूछने का रिवाज है कि अगले वर्ष भी वह धांगर रहने को तैयार है कि नहीं. इस अवसर पर धांगर को नया कपड़ा दिये जाते हैं.
मागे पोरोब पारोब ग्राम सभा द्वारा साल भर के वसूले गए जुर्माने की रकम से खस्सी खरीदी जाती है. उस खस्सी के माँस को पूरे गाँव में बाँटा जाता है. रात में उस खस्सी के मांस के अपने-अपने घरो में पका कर मेहमानों के साथ मिलकर खाते हैं.
करम
इस गाँव में करम पर्व भदो महीना के एकादशी के दिन पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. यह पर्व धान रोपनी समाप्ति के बाद मनाया जाता है. करम पूजा धन-सम्पतिा, लखी-लक्ष्मी, एवं मनुष्य (मेरोम एंगा, बाबा एंगा, कोदे एंगा, उरि एंगा, ओड़ो सोबेन कोअ बुगिन लेकाते पोआ-पोसा हच्बओ का) की अच्छी वृद्धि एवं शुभ कामना के लिए की जाती है. यह पर्व अगस्त-सितम्बर में मनाया जाता है.
लोकगीत
अन्य मुण्डाओ की तरह ही इस गाँव में भी जदुर, जापि, ओर जदुर, गेना, करम, मागे चिट्टिद, शैली में लोक गीत गाया जाता है. इन्हीं शैलियों पर इनके पर्व-त्योहार के सारे लोकगीत आधारित रहते हैं. शादी-विवाह के मौके पर बाला गीत गाया जाता है.
वाद्य-यंत्र
इस गाँव कक लोग पर्व-त्योहार एवं सांस्कृतिक उत्सवों के मौके पर अपने नाच-गान के साथ वाद्य-यंत्र के रूप में ढोल, नगाड़ा, रूतु (बाँसुरी), बानम, कोन्दरा, करताल व मांदर का प्रयोग करते हैं. इस गाँव में पहले टुईला का भी प्रयोग किया जाता था. लेकिन अभी इस गाँव में टुईला देखने को नहीं मिला (लुप्त प्राय होता जा रहा है).
जंगल से संबंध
जंगल इन लोगों के जीवन का एक अभिन्न अंग है. कृषि उत्पादों के अलावा बाकी सारी जरूरत की वस्तु इन्हें जंगल से ही प्राप्त होते हैं. काँची नदी होने के कारण आसपास की जमीन बहुत उपजाऊ है. यही कारण है कि तारुब के जंगल में तरह-तरह के कीमती पेड़-पौधे पाए जाते हैं.
स्वशासन व्यवस्था
पंचायती राज के कारण स्वशासन व्यवस्था में थोड़ी फेर बदल हुई है. पहले ग्राम सभा में जो निर्णय होता वह ग्राम सभा में मुण्डा और पहान की अध्यक्षता में विचार विमर्श के बाद ही किया जाता था. गाँव के लिए कोई सार्वजनिक निर्णय ग्राम सभा में विचार-विमर्श के बाद ही लिया जाता है. स्वशासन व्यवस्था की पद्धति इस गाँव में प्राचीन काल से ही चली आ रही है और इस पद्घति में बाहरी तत्वो का हस्ताक्षेप बिल्कुल भी नहीं होता है.
सांस्कृतिक महत्व के केंद्र
इस गाँव में कुछ ऐसे स्थान हैं जो सांस्कृतिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. ये स्थान लोगों को एक-दूसरे से जोड़कर रखते हैं. इनमें से सबसे पहला स्थान है सामुदायिक वन.
(1) सामुदायिक वन: यह ऐसी जगह है जहाँ पर सामूहिक रूप से लोग नृत्य गीत कर सकते हैं बैठकें कर सकते हैं. इस वन में गाँव के युवक-युवतियाँ पारंपरिक नाच-गान सीखते हैं. इस गाँव में पहले गिति ओड़अ: (सोने के लिए घर) का प्रचलन था. यह प्रचलन आज से पाँच-दस वर्ष पहले तक यह परंपरा देखने को मिलती थी. इस परंपरा के अन्तर्गत गाँव के युवक-युवतियाँ अलग-अलग सामूहिक रूप से सोते थे और बुजुर्गे से अपने प्राचीन नृत्य-गीत सीखा करते थे. परन्तु गिति ओड़अङ का प्रचलन अब खत्म सा हो गया है. आज सामुदायिक वन गिति ओड़अ: के कुछ उद्देशयों के पूरा करने में सहयोग कर रहा है. इस वन में युवक-युवतियाँ सामुहिक रूप से सोती नहीं है. परन्तु इस वन का उपयोग प्राचीन गीत और नृत्य सीखने के लिए जरूर करते हैं.
(2) पूजा स्थल: गाँव के जितने भी पूजा स्थल हैं वे गाँव के लोगों के लिए सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र हैं. इन जगहों पर लोग प्राचीन काल से ही सामूहिक रूप से पूजा अर्चना करते आ रहे हैं. बलि दिए गए बकरे के मुण्ड अथवा मुर्गें को पूजा स्थल में ही खिचड़ी के साथ पकाया जाता है और प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं.
(3) ससन दिरि: ससनदिरि अथवा कब्रिस्तान भी इनके लिए सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र है जिसमें इनकी प्राचीन संस्कृति छिपी हुई है. इनके पूर्वजों की सबसे बड़ी निशानी ससनदिरि पर चढ़ाए गए कतारबद्ध पत्थर ही हैं. यहाँ पर अलग-अलग खूँट की अलग-अलग पंक्ति बनी हुई है. रैयतो के लिए मुख्य ससन से दूर अलग एक ससन बनी हुई है. जिस व्यक्ति की मृत्यु गाँव से बहुत दूर कहीं पर हो जाती है और उसके मृत शरीर को लाने में ये लोग असमर्थ होते हैं तो ससन से बाहर ही अलग उसके नाम का पत्थर चढ़ाया जाता है. सांस्कृतिक महत्व के केन्द्र के रूप में ससनदिरि बहुत महत्वपूर्ण जगह है जिससे लोग सीधे-सीधे जुड़े हुए हैं.
(4) अखड़ा: गाँव का अखड़ा भी सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र हैं. पर्व त्योहारों में अथवा शादी-विवाह में लोग सामूहिक रूप से हाथों में हाथ डालकर रात भर नाचते-गाते हैं.
(5) गुयु: धान की फसल को काटकर खलिहान में लाने के बाद खलिहान में गुयु (पुआल या से बनायी हुई झोपड़ी) बनायी जाती है. गुयु का मुँह खलिहान की तरफ खुला हुआ होता है. अपनी-अपनी गुयु में लोग अपने फसलो की रखवाली करते हैं. फसल को खलिहान में लाने के बाद हर खलिहान में छोटे-छोटे गुयु देखने को मिल जाते हैं. कई लोग थोड़ा बड़ा आकार का गुयु बनाते हैं ताकि तीन-चार लोग इसमें रह सकें. फसल की रखवाली होती रहती है और आपस में बात-विचार भी होता रहता है. कभी-कभी घर में मेहमान आ जाने पर उन्हें भी गुयु में सोने का स्थान दिया जाता है. फसल की रखवाली के लिए गुयु बनाने की परम्परा प्राचीन काल से ही है. यह स्थान लोगों के लिए एक सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र है.
(6) ढेकी (देमकी): ढेकी धान या चावल को कूटने के लिए एक प्राचीन मशीन है. इसे कुसुम, सखुआ या इमली जैसी मजबूत लकड़ी से बनाया जाता है. ढेंकी को ये लोग खुद से ही बनाते हैं. यह दस फुट लम्बी लकड़ी से बना हुआ होता है. इसके दोनों बगल में दो खूँटा लगा हुआ होता है. जोकि ढेंकी को पैर की तरफ से एक हाथ पहले बना हुआ होता है. ढेंकी का पूरा भर इन्हीं दो खूँटे पर रहता है. इसके सिर के तरफ एक गढा बना हुआ रहता है. इसे सेल के नाम से जाना जाता है. इसके सिर के पास लकड़ी का बना हुआ तुकुई जुड़ा हुआ रहता है,जो कि सेल (गढे) में आधा समाया हुआ रहता है. ढेंकी के पैर की तरफ भी एक गढा बना हुआ होता है. ढेंकी के निचले हिस्से में महिलाएँ पैर से दबाव बनाती हैं तो अगला हिस्सा उठ जाता है.
इसके बाद सेल (अगली छोर का बना हुआ गढा) में धान या चावल को डाल दिया जाता है. ढेंकी से धान या चावल की कुटाई होती है. ढेंकी मुण्डाओं की संस्कृति का एक केन्द्र है. क्योंकि इसमें केवल घर की महिलाएँ ही कुटाई का काम नहीं करती बल्कि आस पड़ोस की महिलाएँ भी आकर इसका इस्तेमाल करती हैं. यह एक तरह से सामूहिकता को बढ़ावा देता है. धान-चावल कूटते हुए महिलाएँ अपने-अपने सुख-दुख की बातें करते हैं. साथ ही अगल-बगल की गतिविधियों की चर्चा करते हैं. पर्व-त्योहारों में ढेंकी के पास महिलाओं का ताँता लगा हुआ रहता है.
(7) सेल-तुकु (ओखली): जंगल, पहाड़ से मजबूत पत्थर को लाया जाता है और लोहे की छेनी से काटकर गढानुमा बनाया जाता है. इसे सेल कहते हैं. मजबूत लकड़ी से भी सेल बनाया जाता है. सेल बनाने का काम लोहारों के सौपा जाता है. तुकु के केन्दु, इमली, कुसुम, सखुआ या कास्म्बर (गम्हार) की लकड़ी से बनाया जाता है. पहले यह 7 फीट लम्बा बनाया जाता था परन्तु अब 4-5 फीट का बनाया जाता है. तुकु के निचले हिस्से में साम्बे के पिरोया जाता है. यह लोहे का बना हुआ चूड़ी के आकार की चौड़ी पट्टी होती है. सेल में महिलाएँ धान, दाल, मडुआ, गेहूँ, अदवा चावल (अरवा चावल) कच् डालकर तुकु से कूटती हैं. यह भी मुण्डाओं की संस्ड्डति का केन्द्र है. अनाज को कूटने के लिए यहाँ पैसा नहीं लिया जाता है. पैसे के बदले महिलाएँ कूटा हुआ अन्न का थोड़ा सा अंश सेल-तुकु के मालिक के लिए छोड़ देती हैं.
(8) घनि: घनि अक्सर सखुआ, कुसुम, जामुन, कटहल की लकड़ी से बनाया जाता है. इसका आकार लम्बवत गच्लाकार (डमरू जैसा) रहता है. इसकक् ऊपर से संकु आकार का छेद बना हुआ रहता है. इसकी गहराई 3 फीट रहती है. उसकक् बीचच्-बीच छेद बनाया जाता है और उसी के साथ तेल निकासी कक् लिए एक नली जैसा बना हुआ रहता है. घनि हिलडूल न करे इसके लिए उसका निचला हिस्सा भी तीन फीट गहरा जमीन में गड़ा हुआ रहता है.
ऊपर में एक लम्बवत खूँटा डाला जाता है, जिसे निग बोलते हैं. उसी से जुड़ा हुआ कोवर रहता है जिसमें एक भरी पत्थर बँधा हुआ रहता है, जिससे घनि में दबाव बनता है. केवर को पकड़कर लोग घुमाते हैं और सरसों, करंज, कोइन्डी (महुआ का बीज), कजरीडी, सुरगुजा, बारू को पीसा जाता है और तेल निकाला जाता है (तेल की पेराई होती है.) तेल की पेराई के बाद घनि में एक कटोरा तेल घनि के मालिक के लिए छोड़ दिया जाता है. घनि भी मुण्डाओं की संस्कृति का एक केन्द्र है. वर्तमान समय में इस गाँव में घनि की संख्या बहुत कम है.