Faisal Anurag
दशकों से युद्धक्षेत्र बने अफगानिस्तान में लोकतंत्र, मानवाधिकार और शांतिपूर्ण राजनैतिक सह अस्तित्व के भविष्य को ले कर वैश्विक बेचैनी स्वाभाविक है. अफगानिस्तान 1980 के बाद से ही गृहयुद्ध का शिकार है. सितंबर में अमेरिकी सैनिकों की अंतिम वापसी के बाद अफगानिस्तान की दिशा क्या रुख लेगी, यह एक पेचीदा सवाल बना हुआ हे. तालिबान के साथ दोहा में हो रही वार्ताओं में कई सवाल अब भी उलझे हुए. कतर की राजधानी दोहा में तालिबान प्रतिनिधि से भारत ने संपर्क भी संपर्क साधा हे. यह भारत के अफगानिस्तान नीति में बड़े बदलाव का संकेत है. द हिंदू ने इस मुलाकात का खुलासा किया है.
कतर के सरकारी अधिकारी अल कहतानी ने भारत तालिबान संपर्क की पुष्टि की है. हालांकि भारत के विदेश मंत्रालय ने न तो द हिंदू के समाचार का खंडन किया और न ही इसकी पुष्टि की है. सूचना के अनुसार यह मुलाकात सोमवार को हुई थी. जिस समय भारत का एक राजनयिक यह मुलाकात कर रहा था, उस दौरान विदेश मंत्री जयशंकर की दोहा में उपस्थिति की भी खबर है. इससे जाहिर होता है कि भारत अफगानिस्तान में अपनी भूमिका को लेकर बेहद सजग है. अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में भारत के अरबों डालर लगे हुए हैं और अनेक योजनाएं अभी अधूरी है. पाकिस्तान भी अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका की तलाश कर रहा है. तालिबान को शांतिवार्ता में हिस्सेदार में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका है. रूस और चीन की दिलचस्पी भी स्पष्ट है और वे बड़ी भूमिका की तैयार कर रहे हैं.
कहतानी ने द हिंदू से ठहरावग्रस्त अफगान शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका के बारे में द हिंदू के एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि यह एक बहुत जटिल प्रश्न था. उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान की जमीन किसी भी देश के लिए Proxy नहीं बननी चाहिए. हां, अधिक स्थिर अफगानिस्तान होना पाकिस्तान और भारत के हित में है. कतर के सरकारी अधिकारी का यह बयान कूटनीतिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण है. इस बीच भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार की मुलाकात एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर हुई है. अफगानिस्तान से अमेरिका अपने सैनिकों को वापस तो बुला रहा है, लेकिन वह अफगानिस्तान पर नियंत्रण छोड़ना नहीं चाहता है. इसके लिए उसकी कोशिश है कि अफगानिस्तान सीमा पर बन रहे पाकिस्तान के एयरबेस के इस्तेमाल की उसे इजाजत मिले. हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने ऐसे किसी भी बेस में अमेरिका की उपस्थिति की संभावना को खारिज कर दिया है. आने वाले दिनों में ही यह पता चल सकेगा कि पाकिसतान के प्रधानमंत्री अपने एलान के साथ कोई समझौता करते हैं या नहीं.
1980 तक अफगानिसतान एक ऐसे प्रगतिशील देश की छवि बना रहा था, जहां एक समाजवादी रुझान की सरकार बनी थी. इस सरकार का पहले तो बबरक करमाल ने नेतृत्व किया. बाद में नजीब ने. नजीब के आमंत्रण पर ही सोवियत सेना ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया था, क्योंकि तब तक समाजवादी रुझान की सरकार के खिलाफ कट्टरपंथी हिंसा परवान चढ़ने लगी थी और अमेरिका और पाकिस्तान की इस प्रक्रिया में भूमिका जगजाहिर है. पश्चिमी देशा की मदद से ही तालिबान ने गृहयुद्ध में जीत हासिल की और राष्ट्राध्यक्ष नजीबुल्लाह को सरेआम फांसी दे दी गयी. लेकिन इसके बाद भी अफगानिस्तान में हथियारों का चलना बंद नहीं हुआ. अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद NATO के देशों ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और तालिबान को बेदखल किया. लेकिन अमेरिका और अन्य NATO देशों की सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद न तो गृहयुद्ध खत्म हुआ और न ही हिंसा. दुनिया की दो बड़ी सैनिक ताकतों पहले रूस और बाद में अमेरिका भी अफगानिस्तान में शांति की गारंटी नहीं दे सके. अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद एक तिहाई से ज्यादा हिस्से पर तालिबान काबिज है और वह अपने क्षेत्र का विस्तार कर रहा है.
शांति वार्ता के कामयाब होने के बाद अफगानिस्तान में लोकतंत्र, मानवाधिकार, औरतों की आजादी और सहअस्तित्व का भविष्य क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता है. तालिबान का अपना नजरिया है और वे आधुनिक समाज और लोकतंत्र के संदर्भ में कोई सकारात्मक रुख भी नहीं रखते. ऐसे में वर्तमान अफगान की गनी सरकार का क्या होगा, यह भी स्पष्ट नहीं है. अशरफ गनी और अफगान राष्ट्रीय परामर्श परिषद के अध्यक्ष अब्दुल्ला अब्दुल्ला इसी सप्ताह राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलने अमेरिका जा रहे हैं. इस यात्रा पर टिप्पणी करते हुए तालिबान प्रवक्ता जबीउल्ला मुजाहिद ने कहा कि दोनों अफगान नेता अपनी सत्ता और निजी हितों को बचाने की बात करेंगे, जिससे अफगानिस्तान का कोई भला नहीं होने वाला, जबकि अफगान सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि दोनों अफगान नेता दोहा की वार्ताओं में आ रही अड़चनों के साथ-साथ अमेरिका से खुफिया और सैन्य सहायता जारी रखने को कहेंगे. गनी की दुविधा इससे साफ जाहिर है.