Faisal Anurag
इमरजेंसी चाहे जिस तरह की भी हो, भारतीय लोकतंत्र, नागरिक आजादी और आर्थिक-सामाजिक समानता की मुहिम के लिए प्रेतछाया और भयावह दु:स्वप्न है. इसका आतंक न जाने कितने जुल्मों की दास्तान के साथ स्मृतियों में दर्ज है. इंदिरा गांधी के पूरे कार्यकाल का वह 21 महीना भारतीय लोकतंत्र पर कलंक के बतौर दर्ज है. वह दौर था, जब पूरी दुनिया भारत के लोकतंत्र के तानाशाही में बदलने के खतरे को लेकर चिंतित थी. लेकिन इमरजेंसी के दौर का एक और हकीकत यह है कि देश ने इमरजेंसी के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर बुलंद किया और 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी को उनकी पार्टी सहित सत्ता से बेदखल किया. 1977 के उस दौर में भारतीय समाज के कई निरंकुश प्रवृत्तियों की पहचान भी हुई और लोकतंत्र की राह में उसे बड़ी बाधा माना गया.
1975 के 25-26 जून को इमरजेंसी का एलान हुआ, लेकिन भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी छटपटाहट तो यह है कि उससे सबक के बावजूद भारत में निरंकुश और बगैर घोषणा के इमरजेंसी जैसी प्रवृत्तियों का खतरा टला नहीं है. संविधान और लोकतंत्र के साथ संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमले की प्रवृत्तियां मुखर ही रहती हैं. खास कर जैसे-जैसे भारत में आर्थिक सुधारवाद की लहर को हवा दी गयी है, वैसे-वैसे सत्ता के केंद्रीकरण की प्रवृत्तियां मजबूत दिखती हैं. इमरजेंसी में तो संविधान के मौलिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की धाराओं को नकार दिया गया था, इसे तो अपवाद साबित होना चाहिए था. प्रेस सेंसरशिप का जो प्रयोग उस दौर में हुआ था, उसकी अनेक मिसालें दी जाती रही हैं. लेकिन यह प्रेस सेंसरशिप बगैर इमरजेंसी के एलान के किस तरह काम करती है, यह तो आज के दौर में भी देखा जा सकता है. सोशल मीडिया पर विचार रखना तो देशद्रोह और यूएपीए की धाराओं में आतंक मानने का सिलसिला जारी है. असम और दिल्ली की अदालतों ने जिस तरह राजनैतिक विरोध को आतंक मान लेने की प्रवृत्तियों पर टिप्पणियां की हैं, वह एक बड़ी इमरजेंसी की ओर ही इशारा है. भारत यदि लगातार लोकतंत्र और मानवाधिकार की रेंटिंग में नीचे जा रहा है, जो एक बेहद खतरनाक संकेत है.
राजनैतिक कारणों से कांग्रेस, इंदिरा गांधी और संजय गांधी को इमरजेंसी के लिए दोषी करार देना इतिहास की एक सच्चाई है, लेकिन यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि इमरजेंसी का विरोध करने वाले समूहों के नेताओं की निरंकुश, एकाधिकारवादी और तानाशाही प्रवृत्तियां साफ दिखती हैं. जिस तरह 1955-77 की इमरजेंसी में तथ्यों को छिपाया गया है, उससे कहीं ज्यादा आंकड़ों में हेराफेरी और तथ्यों को नकारने की प्रवृत्तियां आज की हकीकत हैं. दरअसल इसका गहरा संबंध उस कारपारेटपरस्ती से है, जो अधिकतम मुनाफा के लिए तमाम संवैधानिक मान्यताओं, परंपराओं और विचारों की स्वतंत्रता के खिलाफ मुहिम का हिस्सा हैं. नागरिकों के संप्रभुत्व को राजनीतिक नियंत्रण से ये ताकतें चुनौती देती हैं. तमाम संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता जिस तरह खतरे में है, उसकी गंभीरता बेहद चिंताजनक है.
1975 की इमरजेंसी के लिए कांग्रस के नेता तो कई बार देश से माफी मांग चुके हैं, लेकिन जो ताकतें सामाजिक-वैज्ञानिक सोच और व्यक्ति के निर्णय लेने की स्वतंत्रता की राह की बाधा के तौर पर क्रियाशील हैं, उससे मुकाबले की तैयारी ही नहीं दिखती. इसी कारण सत्तावादी प्रवृत्तियों को फलने-फूलने का मौका मिल जाता है. आज के दौर में आपातकाल के साथ मूलभूत अंतर यह है कि सत्तावादी एकाधिकारी शासन उदारवादी संस्थानों और चुनावी बहुमत के आधार पर सत्तावादी संस्कृति को सामान्य करके काम करता है. यानी इस सत्तावादी संसकृति को धर्म, जाति और अंधविश्वास के सहारे लोकप्रिय बना दिया जाता है.
भारत के लोकतंत्र का संघर्ष की चुनौतियां बेहद संगीन दौर में हैं. इमरजेंसी की याद हर तरह की तानाशाही सत्तवाद के गैर संवैधानिक सत्ताकेंद्र के उभरने के प्रति सजग करती है. इंदिरा गांधी तो भारत और वैश्विक जनमत के दबाव में 1977 में आमचुनाव का एलान भी कर दिया लेकिन इस तरह का दबाव भी अब सत्तावादियों के लिए चिंता का सबब साबित नहीं होता है. लोकतंत्र का गहरा सरोकार एक ऐसे आधुनिक विचार और समाज निर्माण से है, जो तमाम अतीतवादी व्यामोह से मुक्त होती है. जिन देशों में भी लोकतंत्र कामयाब हुआ है, उन्होंने अपने अतीत से सबक सीखा है और एक वैज्ञानिक आधुनिकता को सामाजिक आचरण बनाया है. दक्षिणी एशिया के देशों की त्रासदी यह है कि वह सर्वसत्तावादी नायकत्व से मुक्त होना ही नहीं चाहता. इमरजेंसी का सबक तो यही है कि समाजिक और आर्थिक समानतामूलक लोकतंत्र की प्रवृत्तियों को विकसित करते हुए संविधान के मूल्यों, नागरिक आजादी और नागरिक स्वतंत्रता को मजबूत किया जाये. इसके लिए जरूरी है कि असहमति और प्रतिरोध को देश के खिलाफ साजिश मान कर लोगों को जेल में बंद करने के बजाय उससे उठने वाले सवालों पर बहस तेज की जाये.