Sunil Badal
नब्बे के दशक में जब रंगीन टीवी और इसके सास-बहू टाइप कार्यक्रमों के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जोरदार प्रवेश भारत में हो रहा था तो कई समाचार पत्रों में इसे सांस्कृतिक हमला बताया था, क्योंकि तब इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रंगीन टीवी की चकाचौंध के बीच अपने उपभोक्ता उत्पादों के लिए बाजार बनाना था, जैसा इन्होंने यूरोपीय देशों में समाज की परंपरा के आगे सोप ओपेरा के माध्यम से एक नया बाजारवाद ही विकसित किया था और वही प्रयोग यहां भी होने वाला था. बहुत से लोगों को लगा था कि टीवी चैनल जनता के मनोरंजन के लिए खुल रहे हैं, पर यहां भी एक नए प्रकार का बाजारवाद और दिखावा भरे रहन-सहन की नींव रखी जा रही थी, जो धीरे- धीरे गांवों तक पहुंच गई है. तब कुछ भारतीय लड़कियों को मिस वर्ल्ड और यूनिवर्स चुनी गईं और बाद में यह क्रम रुक गया. आज भारतीय परिवार भारतीय परंपराओं के इतर और बोल्ड कथानक या दृश्यों वाले धारावाहिक या फिल्मों का आदी ही चुका है.
जब सस्ते स्मार्ट फोन और फ्री डाटा के साथ सूचना क्रांति का एक और हमला हुआ तो इसे किसी ने वैसा खतरा नहीं बताया, जैसा अभी सोशल मीडिया रूप ले चुका है. आज देश के किसी भी हिस्से में कोई भी मामूली घटना सनसनी बनकर कब देश विदेश में फैल जाएगी, कोई नहीं जानता. किसी भी घटना को मोबाइल में क़ैद करते अनगिनत हाथ कब उसे लाइव या अपनी समझ से किस रूप में फैला देंगे, कोई नहीं जानता. अनेक ऐसे मामलों में निहित स्वार्थ में झूठी और नफरत फैलाने वाली बातें जानबूझकर फैलाई गईं, जिससे दंगे फ़साद हुए. हर हाथ में मोबाइल के इस नए युग में एक अनूठी बेलगाम गैर जिम्मेदार नए ढंग की पत्रकारिता में कोई संपादन नहीं होता और सबसे खतरनाक यह है कि इसके भयंकर कुपरिणाम अभी आने शेष हैं, जिससे ऐसा भ्रम फैलेगा कि मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगेंगे.
पढ़ा लिखा परिपक्व वर्ग इसे व्हॉट्सएप यूनिवर्सिटी बोलकर गंभीरता से नहीं लेता, पर भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग जो बहुत पढ़ा-लिखा या मानसिक रूप से परिपक्व नहीं है, वह झूठी गढ़ी हुई या फोटोशॉप की हुई तस्वीरों या आधुनिक कृत्रिम मेधा द्वारा तैयार सोशल मीडिया सामग्री को सच मान लेता है और उसपर चर्चा भी करता है, उसे फैलाता है. जाति, धर्म, राजनीति और अन्य संवेदनशील मुद्दों पर आधारित ये यह जहर तेज़ी से समाज में फैल रहा है, जिसमें कहीं धर्म संकट में है तो कहीं मजहबी पहचान खतरे में है. इतिहास भूगोल की झूठी जानकारी और चरित्र हनन के हजारों फोटो, वीडियो इंस्टा, फेसबुक, रील और यूट्यूब के अलावा व्हॉट्सएप के माध्यम से विभिन्न राजनैतिक पार्टियों, धार्मिक उन्माद फैलाने वाले षड्यंत्रकारियों से लेकर देश के दुश्मनों द्वारा फैलाई जा रही हैं, जिससे समाज के अंदर एक जहरीला बारूद फैलता जा रहा है, जिसे बस किसी घटना की माचिस का इंतजार है और जिस दिन यह आग लगेगी उस दिन नफरत का दावानल कहां तक पहुंचेगा कहना मुश्किल है.
इस आग को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की ताक में पहले देश के दुश्मन रहा करते थे, पर इससे भेदभाव फैलाकर या अपना पक्ष उज्ज्वल बताकर चुनाव जीतने की दौड़ में अनेक राजनैतिक दल भी शामिल हो गए हैं. इसका प्रमाण है अनेक जातीय धार्मिक दंगों की रिपोर्ट. झारखंड जैसा साफ़ सुथरा राज्य भी अब जातीय धार्मिक पहचान के रंग में रंगता जा रहा है. गांव से लेकर सुदूरवर्ती दुर्गम इलाकों तक में झंडों से लेकर जातीय धार्मिक पोशाक और पर्व त्योहारों में शक्ति प्रदर्शन और उसके वीडियो एक प्रतिस्पर्द्धा का रूप ले चुके हैं . झारखंड के अनेक गांवों में आपसी सौहार्द और सद्भावना के बजाय बातचीत में छींटाकशी से लेकर पलामू सहित माओवाद प्रभावित जिलों में अगड़े-पिछड़े, धर्म और जातीय विद्वेष फैलाकर राजनीति चमकाने के संगठित प्रयास अभियान का रूप ले चुके हैं.
सिंहभूम, पलामू, गुमला और माओवाद प्रभावित अनेक जिलों के सुदूरवर्ती गांवों में सरकारी गाड़ी सुरक्षा कारणों से भले न घुस पाए, पर समाज सेवा, चिकित्सा और जागरूकता के नाम पर विशिष्ट कोड अंकित वाहनों का प्रवेश धड़ल्ले से होता है.
माओवादी, जातीय और धार्मिक संगठनों के अलावा राजनैतिक गतिविधियों वाली कुछ गाड़ियां नियमित रूप से घूमती है. यह नहीं कहा जा सकता कि सभी की गतिविधियां संदिग्ध हैं, पर कुछ संदिग्ध स्वयंसेवी संस्थाओं के बारे में चर्चा है कि वे गांवों से प्राप्त आंकड़ों को विकास कार्यों के अलावा विदेशों तक पहुंचाती हैं, जिनकी जांच से बहुत से खुलासे हो सकते हैं. सरकारी एजेंसियों के अलावा राजनैतिक पार्टियों और समाजसेवियों को भी इस मामले पर गहन चिंतन और सुधारात्मक उपायों पर विचार करना चाहिए, वरना सदियों पुरानी सद्भावना और सौहार्द बिगाड़कर एकाध चुनाव तो जीते जा सकते हैं, पर जातीय उन्माद और विद्वेष से विकास की दौड़ में आगे चल रहे भारत को गहरी चोट लगेगी, जो इसके दुश्मन ईर्ष्यालु देश चाहते भी हैं. सबसे बड़ी भूमिका तो अब आम जनता को निभानी है, जो इसी सोशल मीडिया के कारण सच्चाई भी जानती है और भविष्य के खतरों से भी अवगत है. वैसे स्थिति इतनी भी नहीं बिगड़ी कि संभाली न जा सके, क्योंकि जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय राजनीति के दबावों के बावजूद लोग बहुत सी बातों की आपसी में चर्चा करते हैं और अपने अलावा देश समाज का भला सोचते हैं. इन्हें यह भी पता है सामाजिक तानाबाना ऐसा है कि भारतीय परंपरा में सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं और लड़ाइयों से लाभ कुछ स्वार्थी लोगों का भले हो जाए, नुकसान हमेशा आम आदमी का ही होता है.
सरकार साइबर सेल का गठन कर इस दिशा में पहल की है, पर उनका फ़ोकस साइबर ठगी पर ही केंद्रित है, जबकि शत्रु पड़ोसी देशों से जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय उन्माद फैलाने के कई गड़बड़ी वाले मामले सीमावर्ती राज्यों में पकड़ में आए हैं, जहां मिलिट्री इंटेलिजेंस इनपर नजर रखती है. आज की आवश्यकता है कि जिस प्रकार राज्यों में कार्यरत विशेष पुलिस फोर्स को मिलिट्री की ट्रेनिंग दी गई है, उसी प्रकार राज्यों की साइबर सुरक्षा गतिविधियों को प्रशिक्षण और सुविधाएं देकर तेज किया जाए, जो समाज में फैल रही भ्रामक सूचनाओं पर नजर रख सके. अन्यथा घृणा का यह खेल गोला बारूद से भी अधिक घातक सिद्ध होगा. हम सबको भी बिना तथ्यों को परखे हुए किसी भी सोशल मीडिया के वायरल मैसेज को फ़ॉर्वर्ड करने से बचना चाहिए. भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय की तरफ से फैक्ट फाइंडिंग वेबसाइट भी चलाई जा रही है, जिसमें झूठी खबरों और चित्र या वीडियो की जानकारी तुरंत मिल जाती है. इसी प्रकार रिवर्स सर्च की सुविधा गूगल प्रदान करता है, जिससे इसकी जानकारी आसानी से मिल जाती है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.