Faisal Anurag
वैचारिक गतिरोध, नेतृत्व के त्वरित निर्णय लेने की प्रवृति और नेताओं के अवसरवाद से जूझती कांग्रेस को नया तेवर, आज की चुनौतियों का सीधा मुकाबला करने का साहस, संगठन को प्रतिबद्ध और संघर्षशील गति देने में राहुल गांघी कामयाब हो सकेंगे या नहीं यह तो उनके वैचारिक संघर्ष की गहराई से ही पता चलेगा. राहुल गांधी ने पहली बार तेवर, भाषा और आइडियोलॉजी के साथ एक नयी बहस की शुरूआत कर दी है. राहुल गांधी ने कहा है जो डरते हैं वे पार्टी छोड़ कर जा सकते हैं.
राहुल ने कांग्रेस के बाहर साहस के साथ नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ लड़ रहे लोगों की सराहना करते हुए उन्हें कांग्रेस में आने का निमंत्रण दिया है. कांग्रेस के 136 साल के इतिहास में यह पहला अवसर है जब कांग्रेस के किसी नेता ने साफ शब्दों में आरएसएस से लड़ने के लिए पार्टी को नया रूप देने की बात कही है.
वैसे तो जवाहर लाल नेहरू के जमाने में कांग्रेस में आंतरिक मतभेद और बहस चलता रहा है. बावजूद इसके नेहरू की समाजवादी नीति ही कांग्रेस की दिशा बनी रही. नेहरू को कांग्रेस में मौजूद यथास्थितिवादियों, सामंतो और पुरातन जन विचारों के पोषकों के साथ निरंतर जूझना पड़ा. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को विभाजित करने का साहस दिखाते हुए उन नेताओं को बाहर कर दिया जो राष्ट्रीयकरण और नियोजित विकास नीति के विरोधी थे, और जिन्हें सिंडिकेट के नाम से जाना था.
कांग्रेस के इतिहास में इंदिरा गांधी ने वैचारिक संघर्ष की निरंतरता से जीत हासिल किया और एक नया कांग्रेस बना लिया. मोरार जी देसाई, निजिलिंगप्पा, संजीव रेड्डी जैसे दिग्गज से लड़ कर इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को नया तेवर दिया. इसके पहले कामराज योजना में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को सरकार से बाहर पार्टी के काम के लिए भेजा गया. 1977 में इंदिरा गांधी की पराजय के बाद से वैचारिक बहस और उसकी दिशा कमजोर पड़ी हुई है.
राजीव गांधी को कांग्रेस की विरासत का तो ज्ञान का था लेकिन वे जब तक परिपक्व नेता हुए उन्हें लिट्टे की हिंसा में जान गंवानी पड़ी. राजीव गांधी भारत को वैज्ञानिक तरक्की और आधुनिक बनाने की योजनाओं को लागू करने का प्रयास किया और सत्ता के विकेंद्रीकरण के माध्यम से गांवों और पंचायतों को मजबूत बनाने का प्रयास किया. उन्होंने दिल्ली से चले एक रूपये में मात्र 15 पैसा गांवों तक जाने की बात कर काबिज सत्ताशील समूहों को चुनौती दी. लेकिन बोफोर्स और राममंदिर शिलान्यास ने राजीव गांधी की पराजय की राह बना दी.
इसे भी पढ़ें-मॉनसून सत्र से पहले पीएम मोदी और शरद पवार की मुलाकात राजनीतिक पंडितों के बीच चर्चा का विषय
इसके बाद से गांधी परिवार को कोई सदस्य प्रधानमंत्री या मंत्री नहीं बना. नरसिंह राव के पास किसी वैचारिक संघर्ष का न तो इरादा था और न ही सपना. सोनिया गांधी ने भी वैचारिक तौर पर पार्टी के भीतर की कमजोरियों पर कभी प्रहार नहीं किया. डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो कांग्रेस ब्यूरोक्रेटिक ट्रेंड का शिकार बन गयी.
2014 में कांग्रेस की पराजय के बाद हालात बदले. कांग्रेस के अनेक नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा में गए. यहां तक जिस युवा टीम पर राहुल गांधी को भरोसा था उनमें कई उनका साथ छोड़ भाजपा और मोदी के साथ चले गए. राहुल गांधी को इस का अहसास तो 2019 के चुनाव के समय ही हो गया था, जब उन्होंने कहा कि वे अकेले आरएसएस भाजपा के खिलाफ लड़ते राहुल का पार्टी के नेताओं ने साथ नहीं दिया. यह बात हार की समीक्षा बैठक में कही थी और पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. तब से कांग्रेस एक तदर्थवाद की शिकार है.
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही कांग्रेस विपक्ष की केंद्रीय भूमिका भी निभा नहीं पायी है. कोविड काल में जरूर राहुल गांधी ने ट्वीट के माध्यम से सरकार को एक्सपोज करने का प्रयास जारी रखा. चीन की नीति का सवाल हो या आर्थिक नीति या फिर महामारी से निपटने के तरीके राहुल गांधी के तीखे तेवर दिखते रहे. पिछले दो सालों से कांग्रेस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के सहारे ही कहीं-कहीं नजर आती रही.
किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए यह परेशान करने वाला दौर हो सकता है. इस बीच कांग्रेस के 23 सीनियर नेताओं ने राहुल गांधी पर निशाना साधा. उनका निशाना तो परोक्ष है, लेकिन उसका मकसद जाहिर है. इनमें तो दो भाजपा की शरण में जा चुके हैं और गुलाम नबी आजाद जैसे नेता नरेंद्र मोदी से संबंध को को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं. राहुल गांधी का ताजा बयान एक तरह से पार्टी के भीतर स्थापित नेताओं के लिए एक बड़ी चुनौती है, क्यांकि राहुल गांधी ने न डरने की बात की है जो इस समय ज्यादातर नामी नेताओं के आचरण से साफ दिखता है.
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या केवल राजनीतिक सहस की कमी नहीं है. नरसिंह राव ने कांग्रेस की घेषित मिश्रित अर्थव्यवस्था और गुटनिरपेक्षता की तरह से बदल दिया. भारत गुटनिरपेक्ष देशों का सर्वमान्य नेता था और उसकी वैश्विक आवाज थी. राव के जमाने से वह कमजोर हो गयी. समाजवादी रूझान को पीछे छोड़ते हुए लिबरलाइजेशन, निजीकरण और ग्लोब्लाइजेशन की घनघोर क्रोनी पूजी की राह पकड़ी गयी जो अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में मजबूत हुआ और उसके बाद से गतिवान ही रही. इसने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन से उभरे मूल्यों को किनारे धकेल दिया बल्कि उपभोक्तावाद, अंधआस्था और नवसमंतीकरण की प्रवृति को मान्यता दिया.
राहुल गांधी यदि वास्तव में कांग्रेस को दिशा देना चाहते हैं तो आज खतरा डरने वाले नेताओं भर से नहीं है बल्कि इस अर्थक नीति से भी है जो विषमता, गरीबी और वंचना का कारक बनी हुई है. क्या कांग्रेस इस आर्थिक नीति के खिलाफ लड़ने और एक नयी आर्थिक अवधारणा देश को दे सकती है? यही वह सवाल है जो कांग्रेस के भविष्य, आरएसएस के मूल्यों के खिलाफ समानांतर विश्वदृष्टि और एक पार्टी को प्रासंगिक बना सकती है.
इसे भी पढ़ें-बीएसएफ के अलंकरण समारोह में शाह ने कहा, जिस देश की सीमाएं सुरक्षित हों, वह देश सुरक्षित है
2014 के बाद भारत में उभरे बुनियादी वैचारिक नजरिये के खिलाफ लड़े बगैर भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुकाबला नहीं किया जा सकता है. बयान जितना असान है कांग्रेस को नया तेवर देने की राह उतनी ही कठिन है.