Satyendra ranjan
ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की 2002 में एक डिनर पार्टी में की गई टिप्पणी तब से बहुचर्चित है. हैम्पशर में हुई इस पार्टी में एक अतिथि ने थैचर से पूछा कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है? इस पर थैचर का जवाब था- ‘टोनी ब्लेयर और न्यू लेबर’. हमने अपने विरोधियों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर दिया है. इस टिप्पणी से 12 साल पहले थैचर प्रधानमंत्री पद से हट चुकी थीं. इससे पांच साल पहले उनकी कंजरवेटिव पार्टी लगातार18 साल तक सत्ता में रहने के बाद चुनाव हार कर सत्ता लेबर पार्टी को सौंप चुकी थी. लेकिन 1997 में टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में जो लेबर पार्टी सत्ता में आयी, उसने अपने को न्यू लेबर कहा था.
इस पार्टी में नया यह था कि उसने अपनी सोशलिस्ट नीतियों को छोड़कर उन नव-उदारवादी नीतियों को अपना लिया था, जिसे थैचर के नेतृत्व में कंजरवेटिव सरकार ने 1979 के बाद लागू किया था. थैचर के बाद सात साल उनकी ही पार्टी के जॉन मेजर प्रधानमंत्री रहे. फिर ब्लेयर इस पद पर आये. लेकिन उन दोनों ही सरकारों की नीतियां नहीं बदलीं. बल्कि आज भी यही माना जाता है कि दोनों ने थैचर की विरासत को ही मजबूत किया.
ये उदाहरण आज भारत के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण हो गया है. इसलिए कि ऐसा लगता है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने लेफ्ट पार्टियों के अलावा बाकी तमाम विपक्ष को उसके मुद्दों पर ही राजनीति करने को मजबूर कर दिया है. ये बात खासकर कांग्रेस के संदर्भ में प्रासंगिक है. कांग्रेस जो कभी धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को अपनी पहचान मानती थी, उसने कितने वर्ष पहले इन शब्दों का नाम लिया था, यह शायद उसे भी याद नहीं होगा. बल्कि 2019 के आम चुनाव में हार के बाद वह अधिक से अधिक अपने को बीजेपी के मुद्दों पर बेहतर और अधिक कुशल दिखाने की होड़ में जुटी दिखी है. इसका सबसे बेपर्द इजहार पांच अगस्त 2020 को अयोध्या मे राम मंदिर के भूमि पूजन के दिन हुआ, जब मंदिर निर्माण के स्वागत में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बयान जारी किया. और अब प्रियंका गांधी के नेतृत्व में ही उत्तर प्रदेश में ‘गाय बचाओ, किसान बचाओ’ अभियान शुरू किया गया है.
गाय बचाओ अभियान का पैगाम यह है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार (यानी बीजेपी) गाय बचाने में अकुशल है. इसलिए इसके लिए कांग्रेस को मैदान में उतरना पड़ा है.
राजनीति के वाम एवं दक्षिणपंथी विभाजन के लिहाज से इसे एक रूढ़िवादी- दक्षिणपंथी पार्टी की उससे भी अधिक दक्षिणपंथी कोण से आलोचना करना कहा जाएगा. हाल में अनेक महत्त्वपूर्ण मौकों पर कांग्रेस नेताओं ने अपने इस रुझान का परिचय दिया है. मसलन, लद्दाख में चीन की हालिया घुसपैठ पर राहुल गांधी ने जिस समझ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर हमले किए, उसमें कोशिश अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में खुद को बीजेपी से अधिक अंध-राष्ट्रवादी दिखाने की थी.
आर्थिक मामलों में आज बीजेपी और कांग्रेस के बीच खुद को आम जन के हितों की बेहतर रक्षक दिखाने की होड़ जरूर है, लेकिन नीतियों और आर्थिक दर्शन के सवाल पर कांग्रेस ने शायद ही कोई अलग नजरिया सामने रखने की कोशिश की है. बल्कि कहा तो यह जा सकता है कि मोदी सरकार जिस नव-उदारवादी, क्रोनी कैपिटलिज्म वाली नीति को बेरहम ढंग से लागू कर रही है, उसका सूत्रपात पीवी नरसिंह राव के जमाने पर कांग्रेस की सरकार ने ही किया था.
1991 में उदारीकरण- निजीकरण- भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों की तरफ देश ले जाने की शुरुआत करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने फ्रेंच कवि विक्टर ह्यूगो के इस कथन का हवाला दिया था कि जिस विचार का समय आ गया हो, उसे कोई नहीं रोक सकता. उनका मतलब यह था कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद अब विश्व बैंक- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आर्थिक नुस्खे पर अमल के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
लेकिन अगर उसी कथन को आज के संदर्भ में याद करें, तो यह साफ होता है कि अब उस नुस्खे को अलविदा कहने का वक्त आ गया है. खुद अमेरिका और यूरोप में कोरोना महामारी के बाद जिस तरह सरकारों ने आर्थिक पैकेज का एलान किया और जिस तरह के विचारों को वहां जन समर्थन मिल रहा है, उसका संदेश यह है कि अब वक्त फिर से सार्वजनिक क्षेत्र केंद्रित विकास नीति को अपनाने का है. लेकिन कांग्रेस में नीतिगत स्तर पर ऐसा वैकल्पिक आर्थिक प्रस्ताव सामने रखने की कोई इच्छाशक्ति आज नहीं दिखती. बल्कि उसका सारा रोना यह है कि नरेंद्र मोदी ने पिछले छह साल उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को “चुरा” लिया है.
यानी पार्टी आर्थिक मुद्दों पर अपना पुनर्आविष्कार करने में आज अक्षम नजर आती है. सामाजिक और सांस्कृतिक मसलों पर उसमें अपनी विचारधारा पर खड़े रहने का साहस नहीं है. ऐसे में इसमें कोई हैरत नहीं कि भारतीय राजनीति में उसकी खास प्रासंगिकता लगातार.. क्षीण होती जा रही है. 23 मई 2019 को लोक सभा चुनाव में अपनी पार्टी की भारी जीत के बाद अपने विजय उद्घोष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कहा था कि आम चुनाव में उनकी खास कामयाबी यह रही कि किसी पार्टी या गठबंधन ने धर्मनिरपेक्षता का नाम नहीं लिया, जबकि पहले इसी को बचाने के नाम पर गठबंधन बना करते थे.
ये टिप्पणी वैसे तो पूरे विपक्ष, लेकिन खासकर कांग्रेस के लिए लगातार दो संसदीय चुनावों में हार से भी ज्यादा पीड़ादायक होनी चाहिए थी. इसके बाद उसमें अपने को इस तरह री-इन्वेंट करने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए थी, जिससे अपनी खास पहचान और किस निष्ठा के लिए वह राजनीति में है, उसे वह स्पष्ट कर पाती. लेकिन संभवतः उसने चुनावी हार के साथ-साथ अपनी वैचारिक पराजय भी स्वीकार कर ली. उसके बाद अकेला रास्ता शायद बीजेपी की कॉपीकैट बनने का रह गया. आज हम उसी की परिणति देख रहे हैं.
कांग्रेस के सामने असल मुद्दा उसका यही हाल है. पार्टी का अध्यक्ष कौन बनेगा या राहुल गांधी कब कहां छुट्टी मनाने जाते हैं, ये सवाल बेमतलब हैं. किसी पार्टी की दीर्घकालिक पहचान और प्रासंगिकता उसकी विचारधारा, रणनीति और आम राजनीति से बनती है. चुनावी नाकामी की लंबी अवधि में भी बीजेपी ने इन्हें बनाए रखा था. तो वह तभी प्रासंगिक थी और आज उसका वर्चस्व है. जो पार्टियां इन्हें खत्म कर किसी तरह चुनाव जीतने के लिए हाथ-पांव मारती नजर आएं, वो यही संकेत देती हैं कि उनकी प्रासंगिकता खत्म हो रही है. ऐसी पार्टियों का शायद ही कोई भविष्य होता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.