Nishant bhuwanika
आस्था के महापर्व पर इस वर्ष कोरोना काल में जमकर राजनीति तो हुई लेकिन किसका फायदा और किसका नुकसान ये अब जनता को ही समझना होगा. आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा शुरू में जारी किए गए गाइडलाइन को राजनीतिक दबाव और जन भावना को देखते हुए संशोधित तो कर लिया गया, लेकिन क्या रांची नगर निगम तालाबों और छठ घाटों की सफाई और प्रशासन कोरोना को देखते हुए दिये गये दिशा निर्देशों को पालन करने में सक्षम नजर आती है?
लॉकडाउन के बाद से हेमंत सरकार ने शुरू से ही कड़े निर्णय लिए हैं. जिनमें अंतर राज्य बस संचालन से लेकर जिम और शैक्षणिक संस्थानों को बंद रखने जैसे फैसले शामिल हैं. ऐसे में राज्य सरकार द्वारा छठ पर्व पर नदी तालाब और घाटों तक जाने से रोकना राज्य हित में ही रहा होगा. जानकारों की माने तो सरकारी अस्पतालों में इतनी व्यवस्था नहीं है कि अगर राज्य में दिल्ली की तरह कोरोना विस्फोट होने लगे तो इलाज संभव नहीं है. अस्पतालों में बेड की कमी किसी से भी छिपी हुई नहीं ऐसे में राज्य सरकार द्वारा लिए गए फैसले को पूरी तरह से गलत ठहराना सही नहीं होगा.लेकिन यह राजनीति की ही माया है कि लोगों का ध्यान भी रखो और निंदा के पात्र भी बनो.
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दूसरी ओर विपक्ष के विधायक, सांसद, मेयर और डिप्टी मेयर ने जल क्रीड़ा कर राज्य सरकार के इस गाइडलाइन का विरोध किया था. लेकिन अगर झारखंड में भी दिल्ली की तरह ही कोरोना विस्फोट होने लगे तो क्या उनमें से कोई भी जिम्मेवारी लेने के लिए आगे खड़ा होगा. निगम भी कितने भी बड़े दावे क्यों न कर ले, लेकिन सबको पता है कि हर साल जब बरसात के पानी को सड़क पर आने से निगम नहीं रोक सकता, तो दो दिनों में तालाबों और नदी घाटों पर की क्या सफाई कर सकेगा?
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इन सबके बीच राज्य की जनता को ही अपने विवेक से कार्य करना होगा. लोगों को ये सोचना होगा कि जहां एक ओर इस वैश्विक महामारी से सभी परेशान हैं वहां नदी घाटों पर जाकर आस्था के नाम पर अपने और अपनों के साथ खेलवाड़ किया जाना कितना सही है ?
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