Faisal Anurag
तीरथ सिंह रावत ने इस्तीफा दिया है या उन्हें इसके लिए बाध्य किया गया है. त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर 114 दिन पहले ही तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री की शपथ दिलायी गयी थी. तब इसे भाजपा आलाकमान का मास्टर स्ट्रोक बताया गया था. देहरादून से छपने वाले अखबारों के अनुसार आरएसएस के एक सर्वे के बाद आलाकमान को अपने फैसले पर फिर से विचार करना पड़ा. इस सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में आठ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में तीरथ रावत के नेतृत्व में भाजपा की दूसरी बार सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं बतायी गयी है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश दोनों ही भाजपा की रणनीति के अहम केंद्र है और भाजपा दोनों ही राज्यों में सत्ता में वापसी के लिए बेचैन दिख रही है. त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी उनके प्रदर्शन के आधार पर ही हटाया गया था और तीरथ रावत की परख 114 दिनों में ही कर ली गयी. वैसे उन्हें मुख्यमंत्री से बनने के बाद छह महीने के विधानसभा का सदस्य होना जरूरी है. तीरथ सिंह रावत के अनुसार निकट भविष्य में किसी उपचुनाव की संभावना नहीं है, इसलिए उन्होंने संवैधानिक मर्यादा को ध्यान में रख इस्तीफे को जरूरी बताया है.
इस समय उत्तराखंड विधानसभा में दो स्थान रिक्त हैं. ढाई महीने पहले ही एक उपचुनाव हुआ था. दिलचस्प मामला यह है कि तब भाजपा आलाकमान ने तीरथ रावत को उपचुनाव लड़ने को कहा था, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए थे. भाजपा विधानसभा चुनाव के पहले किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री की चुनावी हार के लिए तैयार नहीं थी. उत्तराखंड भाजपा के भीतर जिस तरह नेतृत्व को लेकर टकराव देखने को मिलते हैं, उससे भी केंद्रीय नेतृत्व चिंतित है. तीरथ सिंह रावत को दिल्ली से देहरादून भेजने के पीछे भी यही सोचा गया था कि वे किसी भी गुट का हिस्सा नहीं होने के कारण सभी का समर्थन जुटाने में कारगर होंगे. लेकिन तीरथ सिंह का कार्यकाल नेतृत्व के लिए नाउम्मीदी का सबब साबित हुआ है.
उत्तराखंड का गठन 21 साल पहले हुआ था और वहां अब तक लगातार पांच साल का कार्यकाल किसी भी मुख्यमंत्री ने पूरा नहीं किया है. भाजपा हो या कांग्रेस, उत्तराखंड में किसी भी दल में ऐसा नेतृत्व नहीं उभरने दिया गया है जिसका अपना बड़ा जनाधार हो. हरीश रावत को इसका अपवाद कहा जा सकता है, लेकिन वे भी आलाकमान के रहमोकरम पर ही राजनीति करते रहे हैं. प्रेक्षकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि आखिर उत्तराखंड में इतने मुख्यमंत्री भाजपा और कांग्रेस के बहुमत के दौर में ही क्यों बदलते रहे हैं. उत्तराखंड झारखंड और छत्तीसगढ़ के साथ ही बना. शुरूआती राजनैतिक अस्थिरता के बाद 2014 से झारखंड में बहुमत की सरकारों का दौर शुरू हुआ. तीरथ सिंह रावत न तो उत्तराखंड के भाजपा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को रोक सके और न ही आम वोटरों की मायूसी और असंतोष को कम करने में कारगर हुए. लेकिन जाते-जाते वे 22 हजार करोड़ के कोविड पैकेज और 22 हजार नौकरियों का एलान कर गये.
आदित्यनाथ को लेकर की गयी राजनैतिक कवायदों के बावजूद नरेंद्र मोदी के प्रियपात्र और विश्वस्त सहयोगी एके शर्मा को यूपी में मंत्री बनाया गया. योगी को लेकर भी आरएएस के एक सर्वे रिपोर्ट की चर्चा मीडिया के कुछ हिस्सों में हुई है. लेकिन उस रिपोर्ट को आधार बना कर केंद्रीय नेतृत्व कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाया. प्रेक्षकों का आनुमान है कि तीरथ सिंह के बहाने भाजपा ने दो संदेश दिये हैं, एक तो उत्तराखंड के भाजपा नेताओं को और दूसरा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को. ममता बनर्जी भी इस समय विधानसभा चुनाव हारने के बाद मुख्यमंत्री हैं और उन्हें छह माह के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना जरूरी है. बंगाल में विधानसभा की करीब 7 सीटें खाली हैं, जिनमें पांच में उपचुनाव ओर दो में चुनाव होना तय है. इन दो सीटों पर प्रत्याशी की मौत के कारण चुनाव नहीं हुए थे. ममता बनर्जी के लिए सात में तीन सीटों पर चुनाव लड़ने का विकल्प भी है. लेकिन चुनाव का दारोमदार चुनाव आयोग पर है. चुनाव आयोग छह माह के भीतर इन सीटों पर चुनाव का एलान करता है या नहीं, इस पर ममता बनर्जी का भविष्य तय होगा.
कोविड के हालात ही तय करेंगे कि चुनाव का एलान होगा या नहीं. लेकिन हालात का आकलन तो चुनाव आयोग को ही करना है और पिछले कुछ सालों से चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. ममता बनर्जी के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. तो क्या रावत का उदाहरण पेश कर भाजपा नेतृत्व ममता बनर्जी को भी संदेश देना चाह रहा है?