वाल्टर भेंगरा, खूंटी
पिछले पांच दशकों के दौरान हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श ने उपस्थिति दर्ज कर ली है. पिछले दो-तीन दशकों से झारखंड आदिवासी लेखकों के उत्कर्ष का केंद्न बना हुआ है. रांची से डॉ रोज केरकेट्टा, पीटर पौल एक्का, वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’, महादेव टोप्पो, शिशिर टुडू, मंगल सिंग मुंडा के बाद निर्मला पुतुल, ग्रेस कुजुर, वंदना टेटे, डॉ फ्रांसिस्का कुजूर, दयामनी बारला, डॉ दमयंती शिंकु, हेसेल सारू के बाद वर्तमान में जसिंता केरकेट्टा, ज्योति लकड़ा, डॉ पार्वती तिर्की, अंजु बरवा, शीलू हेंब्रम आदि आदिवासी महिला रचनाकारों में सक्रिय हैं. डॉ सावित्री बड़ाइक कविता लेखन के साथ समीक्षात्मक आलेख भी नियमित रूप से लिख रही हैं.
इस वर्ष युवा कवि डॉ अनुज लुगुन ने अपने कविता संग्रह “पत्थलगड़ी” के साथ परचम लहराया है तो जसिंता केरकेट्टा ने कविताओं के संकलन “ईश्वर और बाजारवाद” द्वारा उपस्थिति दर्ज करवाई है. ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं. लेकिन उन्होंने अपने कथा सऺग्रह “असुरों की पीड़ा” के साथ आदिवासियों के दुःख -दर्द की गाथा को प्रस्तुत किया है.
समग्र सृजन
पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ की डॉ विश्वासी एक्का “कजरी”,”लछमनिया का चूल्हा”,”मौसम तो बदलना ही था” आदि कृतियों के द्वारा आदिवासी हिंदी लेखन को गति प्रदान कर रही हैं. उधर खैरागढ़ की डॉ देव लकड़ा भी कविताओं के माध्यम से सक्रिय हैं. हाल में अवकाश प्राप्त अपर समाहर्ता अंबिकापुर के निर्मल तिग्गा ने अपने संस्मरण सह आत्म कथात्मक संग्रह “क्या बताऊं क्या छिपाऊं” द्वारा आदिवासी हिंदी लेखन में अपनी सक्रियता दिखाई है. वे कविताएं भी लगातार लिख रहे हैं.
आदिवासी हिंदी लेखन में पूर्वोत्तर राज्य अरूणाचल प्रदेश की पद्मश्री ममंग दई, डॉ जोराम यलाम नाबाम, डॉ जमुना बीनी तादार, रोजी कामेई आदि निरंतरता बनाये रखी हैं. उत्तर बंगाल की डॉ शोभा यल्मो अपनी कृति “याक्थुङ” के कारण चर्चा में हैं. रेमोन लोंगकू अरूणाचल प्रदेश के अत्यंत ही सक्रिय हिंदी आदिवासी साहित्यकार हैं. असम, बंगाल डूवार्स क्षेत्र के चाय बगानों से इस वर्ष आदिवासी युवा कवयित्रियों का एक पूरा झुंड हिंदी साहित्य लेखन में उभर कर सामने आया है. इनमें प्रफुल्ला मिंज, एमलेन बोदरा, शिखा मिंज, जेरेलडीना मुछवार, रोजलीन एक्का, क्रिस्टीना तोपनो, बिमला भोक्ता काफी सक्रिय रही हैं. राजस्थान के हरिराम मीणा, डॉ गंगा सहाय मीणा, केदार प्रसाद मीणा, डॉ हीरा मीणा आदि हिंदी लेखन में सक्रिय हैं. महाराष्ट्र की ऊषा किरण आत्राम, लक्ष्मण गायकवाड़, सुनील गायकवाड़, सुशीला धुर्वे हिंदी रचनाकारों में शामिल हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ स्नेह लता नेगी , दिल्ली दूरदर्शन से जुड़ी अंजेला अनिमा तिर्की के अलावा कई आदिवासी हिंदी रचनाकार इस समय सक्रिय हैं.
पाठ्यक्रम व शोध का हिस्सा
हाल के वर्षों में आदिवासी हिंदी लेखकों की रचनाओं को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातक और स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में प्रधानता के साथ सम्मिलित किया गया है. हरिराम मीणा, ग्रेस कुजुर,जसिन्ता केरकेट्टा,अनुज लुगुन, वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’की विभिन्न कहानियों एवं कविताओं को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र , इंदिरा गांधी जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, मध्य प्रदेश, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टायम, केरल, राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, इटानगर, अरूणाचल प्रदेश , केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद आदि में सम्मिलित किया गया है.
हिंदी साहित्य में दलित विमर्श और नारी विमर्श के बाद आदिवासी विमर्श उन्नीस सौ नब्बे के दशक से आरंभ हो गया था. आदिवासी साहित्य क्या है? हिंदी उपन्यासों और कहानियों में आदिवासी जीवन और इसी तरह विभिन्न मुद्दों को आधार बनाकर अनेक शोधार्थी शोध कार्य कर रहे हैं. यह आदिवासी रचनाकारों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है कि उनकी कृतियों पर विश्वविद्यालय के स्तर पर शोध कार्य किये जा रहे हैं. आने वाले दिनों में हिन्दी लेखन में आदिवासी स्वर सामने आने लगेंगे. दिल्ली सहित विभिन्न प्रदेशों के प्रकाशक आदिवासी रचनाकारों की कृतियों को प्रकाशित करने लगे हैं. अनुज्ञा बुक्स प्रकाशन, नयी दिल्ली, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सत्य भारती प्रकाशन, रांची, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची, आदि प्रकाशन, कोलकाता, आदिवासी प्रकाशन, रांची वगैरह आदिवासी साहित्य को पाठकों के सामने लाने का महती कार्य कर रहे हैं. आदिवासी जन जीवन को गहराई से समझने के लिए आदिवासी रचनाकारों को और अधिक तत्परता से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय होने की जरूरत है. वर्तमान समय में आदिवासी रचनाकारों की उपस्थिति यह संदेश देती है कि पाठकों को वे बेहतर लेखनी से अवगत करते रहेंगे.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.