Gurdeep Singh Sappal
सरकार कहती है कि इनसे वो बेड़ियां टूट जायेंगी, जिन्होंने खेती को जकड़ रखा है. नये बाजार बनेंगे, बड़े स्केल पर तकनीक का लाभ मिलेगा. बड़ी पूंजी कृषि सेक्टर में उपलब्ध हो सकेगी. लेकिन क्या हकीकत सीधे-सीधे यही है?ये कानून खेती को corporatise करने का रास्ता खोलते हैं.
आप कहेंगे कि इसमें हर्ज क्या है? किसान की केवल जमीन और लेबर होगी. फिर बीज corporate के, खाद corporate की, खर्च corporate का, risk corporate का, वो ही फसल सीधे खरीद भी लेंगे और पैसा किसान को मिल जायेगा.
बुरा क्या है?
पर, किसान क्यों डरता है? क्योंकि उसके अनुभव इतने अच्छे नहीं हैं. जैसे गुजरात में पेप्सिको कंपनी ने आलू उत्पादकों से कॉट्रैक्ट फार्मिंग का करार किया था.उनमें चार ऐसे आलू उत्पादक हुए, जिनकी फसल पेप्सिको खराब ठहरा कर नहीं उठायी. ऐसा होता है, लेकिन कहानी इसके बाद शुरू हुई.
पेप्सिको ने जो फसल नहीं ली, किसानों ने वो बाजार में बेच दी. आम तौर पर इसमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. लेकिन पेप्सिको ने इसके लिए चारों को कोर्ट में घसीट लिया और एक-एक करोड़ रुपये हर्जाने का दावा कर दिया. गनीमत थी कि चुनाव नजदीक थे और राजनीतिक दबाव में केस वापिस हो गया.
एक और उदाहरण है. गन्ना किसानों और चीनी मिलों के बीच कॉट्रैक्ट ही होता है. दोनों में बाकायदा करार होता है कि किसान तय रटे पर और तय तारीख पर फसल बेचेगा. चीनी मिल उसे 14 दिन में भुगतान कर देगी, नहीं तो 15% ब्याज देगी. अब इस कॉट्रैक्ट का कितना पालन होता है, सब जानते हैं. क्या किसानों को तय तारीख पर पेमेंट मिलती है? क्या किसानों को ब्याज मिल जाता है?और ताकत किसके पास है? किसानों के पास या चीनी मिलों के पास? जवाब सब किसान जानते हैं. उस पर इन नए कानूनों में किसानों के लिए कोर्ट का रास्ता भी मुश्किल कर दिया गया है. मगर कैसे?
इन नए कानूनों के बाद अब अगर निजी कंपनियों को उपज बेचने में किसान के साथ कोई नाइंसाफी हुई तो वो किसी कोर्ट में सीधे नहीं जा सकेगा. कृषि ट्रेडिंग का कोई भी विवाद अब केवल SDM या बड़ा अधिकारी ही निपटायेगा.
Arbitration के नाम पर किसानों को कोर्ट का अधिकार छिनता नजर आ रहा है. उनके सवाल हैं कि अब कहां का SDM फैसला लेगा? जहां किसान की उपज पैदा हुई है वहां या जहां से खरीदी हुई है वहां? आजकल कहीं भी बैठ कर खरीदी हो सकती है. वो जगह खेत से सैकड़ों किमी दूर हो सकती है, दूसरे राज्यों में भी हो सकती है. क्या किसान को arbitration के लिए वहां जाना होगा?
और SDM अगर जरा सा भी कमजोर हुआ या corrupt हुआ, तो उसे कौन प्रभावित कर सकेगा? किसान या निजी कंपनी?कोई गलत तरीका नहीं है, दुनिया में अब प्रचलित है. लेकिन arbitration बराबर की ताकत वालों के लिए है. किसान और कंपनियों के बीच ताकत का रिश्ता इक तरफा है.
सरकार कहती है कि दुनिया तो देखो, तरक्की होने दो.
लेकिन दुनिया में सेफ्टी नेट भी तो हैं. जैसे अमेरिका में corporate खेती है. लेकिन वहां की सरकार फिर भी किसानों के सपोर्ट के लिए करीब 20 billion डॉलर की सब्सिडी देती है. कीमतों के उतार-चढ़ाव में हस्तक्षेप करती है.
बीमा, मार्केटिंग, export में सब्सिडी देती है. भारत में क्या ऐसी कोई योजना है? अपने यहां तो फसल बीमा तक corporate मुनाफे का सौदा बना चुका है.
और अब MSP पर भी चुप है. किसान सड़कों पर मांग कर रहा है कि MSP पर लिखित वादा करो, पर सरकार केवल जुबानी बातें कर रही है. ये APMC में सुधार तो सिर्फ एक पहलू है. असली कहानी तो WTO से भी जुड़ी हैं. UPA के food security act के बाद से ही WTO का दबाव डाल है कि MSP खत्म हो.
farm subsidy को WTO ने red, amber और green की category में बांटा है और उसका दबाव है कि red कैटेगरी की सभी सब्सिडी समाप्त हो. वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने शान्ता कुमार कमेटी बनायी थी, जो FCI के रोल को खत्म करना चाहती थी और MSP के कॉन्सेप्ट को समाप्त करना चाहती थी.
APMC में बहुत सी कमियां हों, लेकिन कीमतों को नियमित करने में उसका दबाव होता है. APMC के बाहर कीमतों पर न सरकार का कंट्रोल होगा न किसानों का. वर्ष 2010 में committee on state agriculture ministers on deregulation of APMC ने कहा था कि APMC को deregulate करने से किसानों को फायदा नहीं हुआ था, बल्कि किसानों के हित के सभी safeguard खत्म हो गये थे. वर्ष 2006 में बिहार में APMC act समाप्त कर दिया था, पर उसके नतीजे अच्छा नहीं रहे.
यही नहीं, 2018-19 में standing committee on agriculture ने कहा था कि APMC को समाप्त करने से किसानों का हित नहीं होगा. कोई तो कारण है कि गुजरात में private APMC की अनुमित दे दो गयी थी, लेकिन आज तक एक भी सफल निजी मंडी का कोई उदाहरण वहां भी नहीं है.
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