अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान के भविष्य की बढ़ती चिंताओं के बीच दुनिया के ताकतवर देश अपने हितों के अनुकूल रणनीति को अंजाम देने लगे हैं. दशकों से अफगानिस्तान के आमलोग शांति और विकास के लिए तरस रहे हैं दो महीने के भीतर अमेरिकी सैनिकों की वपसी हो जाएगी. अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अफगानिस्तान को उसकी सरकार और सेना के हवाले कर देगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा है कि अफगानिस्तान की तीन लाख संख्या वाली सेना 75 हजार तालिबान लड़ाकों पर भारी साबित होंगे. बाइडेन ने उन आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया है जो अमेरीकी सैनिकों की वापसी के बाद के हालात को लेकर हैं. लेकिन बाइडेन ने बयान के 24 घंटे के भीतर रूस के दौरे पर गए तालिबान के प्रवक्ता शहाबुद्दीन दिलावर ने यह कह कर चौंका दिया है, यदि आज तालिबान चाह ले तो वह 15 दिनों में अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा. दिलावर यह कहना भी नहीं भूले की तालिबान ने अफगानिस्तान के 75 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमा लिया है. जिस तेजी से तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा जमा रहा है, उससे अशरफ गनी की चुनी हुई सरकार के भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं.
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इस बीच रूस दौरे पर ही गए भारत के विदेश मंत्री ने भी अफगानिस्तान की शांति को क्षेत्रीय शांति के लिए जरूरी बताया है. रूस के विदेश मंत्री के साथ जयशंकर ने अफगानिस्तान के भविष्य को ले कर दोनों देशों की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की है. भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में अपनी भूमिका को लेकर चिंतित है. पाकिस्तान और चीन भी अफगानिस्तान में अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए तत्पर है. अमेरिकी सेना की वापसी के बावजूद अफगानिस्तान को लेकर विश्व के अनेक देशों में प्रतिस्पर्धा साफ दिखने लगी है.
अमेरिका अपनी सेना वापस जरूर बुला रहा है, लेकिन अपने हितों के लिए अफगानिस्तान में ऐसी सरकार चाहता है जो उसका हिमायती हो. चीन की बढ़ती ताकत को लेकर अमेरिका के तल्ख स्वर तेज हैं. अफगानिस्तान में चीन की किसी भी प्रभावी भूमिका को लेकर अमेरिका चिंतित है.
तालिबान ने स्पष्ट किया है कि चीन की वह बड़ी भूमिका अफगानिस्तान के पुर्निनिर्माण में चाहता है. चीन भी पुराने सिल्क रोड के आधुनिक परियोजना बेल्ट एंड रोड इनेशिएटिव के लिए अफगानिस्तान को जरूरी मानता है. 20 सालों तक सोवियत सेना और 20 सालों तक अमेरिकी सेना के खिलाफ अफगानिस्तान में युद्ध का माहौल रहा है. सोवियत सेना को वापस जाना पड़ा, अब अमेरिकी सेना भी वापस जा रही है. अमेरिकी सेना नौ ग्यारह के बाद अफगानिस्तान पर धावा बोला था.
तालिबान को अपदस्त करने में तो कामयाबी मिली, लेकिन तालिबान को खत्म नहीं किया जा सका. अमेरिका और तालिबान के बीच शांतिवार्ताओं के बावजूद अफगानिस्तान के राजनैतिक भविष्य की तस्वीर साफ नहीं हो पायी है. तालिबान जिस गति से अपनी ताकत बढ़ा रहा है, उससे गनी सरकार के भविष्य को लेकर चिंताएं बड़ी हैं. हजारों अफगान सैनिक तो ताजिकिस्तान में शरण ले चुके हैं. तालिबान की बढ़ती ताकत को लेकर अफगानी महिलाओं में भी बेचैनी है. महिलाओं के हथियारबंद प्रदर्शन स्वतंत्रता को लेकर उनकी आशंका को ही जाहिर करता है. तालिबान के शासनकाल में महिलाओं के तमाम अधिकार छीन लिए गए थे. उनके पढ़ने-लिखने पर भी पाबंदी लगा दी गयी थी. तो क्या तालिबान अपनी इस पुरानी नीति में बदलाव करेगा ? ऐसा कम ही जान पड़ता है.
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अफगानिस्तान में लोकतंत्र, चुनाव और आधुनिकता को लेकर भी अनेक सवाल पैदा हो गए हैं. तालिबान इन सवालों पर नया नजरिया अपनाएगा, यह नहीं कहा जा सकता है. तो क्या अफगानिस्तान एक नयी अशांति की ओर फिर उन्मुख होगा. इस सवाल को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. दुनिया की दो मजबूत सेनाओं सोवियत और अमेरिकी सेना को अफगानिसतान जिन परिस्थितियों में छोड़ चला है, उसे ले कर विश्व मीडिया भी खामोश है. अफगान के लेागों की चिंताएं लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भी है. जिसका कोई ठोस और स्प्ष्ट जबाव नहीं मिल रहा है.