Brijendra Dubey
19वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनावों में देश की अधिसंख्य जनता मौजूदा मोदी सरकार से बेहद नाखुश है. मोदी सरकार 2014 में जनता को जो सपने दिखा कर सत्ता में आई थी, उनमें से एक भी पूरे नहीं हुआ. इसके उलट 2024 आते-आते सरकार फूट डालो, राज करो वाली अंग्रेजों की नीति पर उतर आई है. मंगलसूत्र छीनने से लेकर भैंस खोल जाने के आरोप के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू-मुसलमान की घटिया राजनीति पर उतर आए हैं. सरकार के पास कोई मुद्दा नहीं कि वह आगे क्या करने वाली है, या पिछले 10 सालों में क्या किया है. वन मैन आर्मी बन कर पीएम मोदी पूरा चुनाव अपने चेहरे पर लड़ रहे हैं और अपने को अवतारी पुरुष भी बताने लगे हैं. शुरुआती सालों में खुद को पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी महान साबित करने में लगे मोदी अब 2024 के चुनाव में आसाराम बापू की तरह प्रवचन देने लगे हैं. उनके प्रवचन उनके भक्तों को भले भाते हों, लेकिन महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रही देश की अधिसंख्य आबादी को बिल्कुल रुचिकर नहीं लग रहा है.
यही वजह है कि लोगों का रुझान इंडिया गठबंधन की तरफ बढ़ चला है. नतीजे जो भी हों, लेकिन आज की तारीख में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के सामने पीएम नरेंद्र मोदी का कद बौना नजर आने लगा है. दिलचस्प बात यह कि इंडिया गठबंधन में मोदी के एक नहीं कई विकल्प दिखने लगे हैं. बंगाल में ममता बनर्जी अकेले दम पर मोदी के सामने खड़ी हैं. बिहार में तेजस्वी यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी जातीय गोलबंदी से ऊपर लोगों में मोदी से बेहतर करते दिख रहे हैं. दिल्ली और पंजाब में अरविंद केजरीवाल अकेले दम पर मोदी को पछाड़ने में जुटे हैं और लोगों का भरोसा भी जीत रहे हैं. यही हाल तमिलनाडु के एमके स्टालिन का है, तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार पीएम मोदी को बेहतर तरीके से छका रहे हैं. यह बड़ा बदलाव राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बाद से नजर आ रहा है.
इसके अलावा इस साल के चुनावों ने जाति के नए अवतारों को उजागर किया है, जो भारत की राजनीति के आलोचकों और सामाजिक जीवन के प्रशंसकों, दोनों को हैरान कर देंगे. हर राज्य में शिकायतें भी अलग-अलग हैं. ऊंघते हुए, लहर मुक्त चुनाव में राजस्थान के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ अमेठी में करणी सेना की मौजूदगी ने भीड़ में उत्सुकता पैदा कर दी. राजपूतों के लिए आरक्षण की मांग करने वाली करणी सेना उत्तर भारत का दौरा कर रही है, शपथ समारोहों का आयोजन कर रही है, जिसके प्रतिभागी भाजपा को वोट न देने की कसम खाते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मध्यकालीन शासक मिहिर भोज की जातिगत पहचान को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है, क्या वह राजपूत थे या गुर्जर, जैसा कि नई स्थापित मूर्तियों से पता चलता है? उत्तर प्रदेश में दूसरी जगहों पर भाजपा के मतदाता इस बात पर बंटे हुए हैं कि क्या उनके राजपूत नेता योगी आदित्यनाथ को सत्ता में बैठे लोगों ने दरकिनार कर दिया है. राजस्थान और हरियाणा में ओबीसी दर्जे की मांग कर रहे जाटों ने भाजपा को नकारते हुए कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन का समर्थन किया है, जबकि बाड़मेर, झुंझुनू, सिरसा और भिवानी-महेंद्रगढ़ में आश्चर्यजनक रूप से करीबी मुकाबले हुए हैं.
हालांकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट इसी राह पर बढ़े या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है. महाराष्ट्र में मराठा मतदाता ओबीसी का दर्जा न दिए जाने के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए विपक्ष की तरफदारी कर रहे हैं. यूपी और बिहार के यादव ऐतिहासिक रूप से यादवों के वर्चस्व वाली क्षेत्रीय पार्टियों को तो वोट दे ही रहे हैं, लेकिन उनका एक बड़ा वर्ग गैर-यादव उम्मीदवारों की तरफ भी झुक चुका है. हरियाणा और मध्य प्रदेश में यादवों की समकक्ष जातियां भी इंडिया का समर्थन करती देखी गयी हैं. जिन्होंने हाल के चुनावों में भाजपा को वोट दिया है. सत्ता विरोधी लहर से ज्यादा राजपूतों और जाटों की तरह यादव भी राज्यों में नए तरीकों से संगठित हो गये हैं.
कुल मिला कर हिंदुत्व के दबदबे के एक दशक बाद इन घटनाक्रमों को मंडल की राजनीति की वापसी के रूप में देखा जाने लगा है. इसी लालच में विपक्षी दल कर्नाटक और बिहार जैसे दूरदराज के राज्यों में जाति जनगणना का मोर्चा खोल रहे हैं.
पहली बात, तो यह कि भाजपा अभी केंद्र की सत्ता में है. अब तक इसकी राजनीतिक रणनीति ओबीसी और एससी समूहों में दो फाड़ करके नए बने अलग-अलग समूहों से हिंदुत्व को नई धार देने की रही है. मोदी के नेतृत्व में भाजपा प्रत्येक समूह के नेताओं के साथ अलग-अलग बातचीत करती है, उन्हें नीति निर्माण जैसे बहुत महत्वपूर्ण पद तक देती है. दूसरा, नए आर्थिक दबाव अब राजपूत और जाट जैसी प्रमुख कृषक जातियों की राजनीति को ड्राइव कर रही हैं. जातिगत आरक्षण के कारण ओबीसी, एससी और एसटी बैकग्राउंड के लोगों ने उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में प्रमुख समूहों के मुकाबले काफी प्रगति की है.
ये चुनाव जाति के नए लोकतांत्रिक पुनर्जन्म के युग की शुरुआत का वादा करते दिख रहे हैं. एक ओर, समकालीन हिंदुत्व के बड़े बैनर तले ब्राह्मण और राजपूत, दलितों या आदिवासियों के साथ मिलकर काम कर सकते हैं. दूसरी ओर, ओबीसी और एससी समूहों के बीच दरार भाजपा विरोधी राजनीति की एक नई लहर को जन्म दे सकती है. दोनों प्रवृत्तियां अलग-अलग राज्यों में एक साथ चल सकती हैं, जिससे अप्रत्याशित चुनावी संभावनाओं की एक शृंखला सामने आ सकती है. जातियों के भीतर और बाहर बदलते राजनीतिक गठबंधन अब सत्ता के लिए होड़ कर रहे हैं. ये ऐसी नीतियों की मांग कर रहे हैं जो पूरे जाति समूहों के बजाय टुकड़ों या सूक्ष्म समूहों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करती हैं. सांप-सीढ़ी के इस नए खेल में कुछ लोगों के लिए सामाजिक न्याय दूसरों के लिए सामाजिक विनाश का कारण बन सकता है. इसलिए, हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, किसका हक दांव पर लगा है और किसका इंसाफ..?
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