Faisal Anurag
अफगानिस्तान के ताजा हालात से दक्षिण और मध्य एशिया के देशों की चिंताएं गहरी हो गयी हैं. अमेरिका हो या चीन या फिर रूस, सशंकित हैं. भारत और पाकिस्तान भी परेशान हैं. भारत ने कूटनीतिज्ञों और सुरक्षाकर्मियों को वापस बुला दिया है. तालिबान के इस दावे के बीच कि उसने 85 प्रतिशत अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, दुनिया भर में एकबार फिर तालिबान के रुख को लेकर बेचैनी है. 1996 से 2002 तक तक अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन दुनिया देख चुकी है. जब न तो मानवाधिकार और लोकतंत्र के लिए जगह थी और न ही तालिबान हिंसा की क्रूरताओं से बच सका था. क्या एक बार फिर तालिबान की वापसी दो दशक पहले के अफगानिस्तान से किसी भी रूप में भिन्न होगी. यह सवाल कूटनीति और विश्व समुदाय की परेशानी का सबब है.
सीमावर्ती ईरान, पाकिस्तान, चीन, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान की नींद उड़ चुकी है. चैन से भारत भी नहीं है. कंधहार कौंसुलेट से भारतीय दूतावास के कूटनीतिक बुला लिये गये हैं. काबुल कंसुलेंट भी बंदी के कगार पर है. तालिबान के साथ शांतिवार्ता में भूमिका निभाने के बावजूद पाकिस्तान की चिंता यह है कि उसे एक बार फिर शरणार्थियों के सैलाब का सामना न करना पड़ जाये. अमेरिका अफगानिस्तान को भंवर में छोड़ कर अपने सैनिकों को वापस बुला रहा है. हालांकि वह पाकिस्तान के एक सैनिक हवाई अड्डे से अफगानिस्तान पर निगरानी की योजना भी बना रहा है. हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इस पक्ष में नहीं हैं कि अमेरिका को पाकिस्तान से निगरानी करने की इजाजत दी जाये.
तालिबान ने रूस और चीन को भरोसा दिया है कि उसके हितों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जायेगी. इसके बावजूद चीन की परेशानी यह है कि तलिबान के आने के बाद चीन के शिनचियांग इलाके में उइगर मुसलमानों की स्वायत्त्ता की मांग फिर न उठने लगे. तुर्की ने भी इस सवाल को हवा दी, लेकिन अर्देगान की बीजींग यात्रा के बाद से तुर्की ने इस सवाल को उठाना छोड़ दिया है. तालिबान के पिछले शासनकाल में चीन उइगरों के सवाल को लेकर भारी परेशानी का सामना कर चुका है. अफगानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन के अनुसार कुल मिलाकर अफगानिस्तान एक बार फिर सामरिक रूप से संवेदनशील हो चुका है. पुष्परंजन बताते हैं कि 1996 से 2001 तक सत्ता में रहते तालिबान ने उइगर युवाओं के लिए अफगानिस्तान व उससे लगे पाक इलाकों में कैंप खोले, उन्हें जिहादी बनाया. इनके पंख इतने फैले कि अल कायदा और आइएसआइएस के मोर्चे तक पर कुछ उइगर लड़ाकों को लोगों ने लड़ते देखा. 25 सितंबर 2018 को जकार्ता पोस्ट ने एक खबर दी थी कि एक करोड़ 40 लाख की आबादी वाले शिनचिंयांग में 24 हजार 400 मस्जिदें हैं और उनकी देखरेख के लिए 29 हजार मौलाना तैनात हैं. इतनी मस्जिदें अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस को मिला दें, तो भी नहीं होंगी.
तालिबान इस समय चीन को भरोसा तो दे रहा है कि उसकी परियोजनाओं को रोका नहीं जायेगा और न ही बेल्ट एंड रोड इनेशिएटिव प्रभावित होगी. तालिबान रूस और चीन दोनों का भरोसा पाना चाह रहा है, लेकिन पुराने जख्म अब भी इतने गहरे हैं कि इससे भरोसा पैदा नहीं हो पा रहा है. अफगान सरकार ने तालिबान के 85 प्रतिशत हिस्से पर कब्जे के दावे का खंडन किया है. लेकिन जिस तरह की कूटनीतिक बेचैनी दुनिया में बढ़ी हुई है, उससे अफगान सरकार के दावे पर भरोसा कर पाना मश्किल है. गनी सरकार का भविष्य सशंकित है और तालिबान के साथ भावी रिश्ते को लेकर दुनिया भर के कूटनीतिक रणनीति बनाने में लगे हुए हैं. तालिबान भी जान रहा है कि यदि उसे अफगान में सत्ता बनाये रखनी है तो उसे खुद को बदलना होगा. लेकिन उसके युद्धप्रेमी सरदार उसे बदलने की कितनी छूट देंगे, इस पर संशय है. दक्षिण और सेंट्रल एशिया की स्थिरता और शांति के लिए अफगानिस्तान में भी शांति जरूरी है.
अमेरिका के बाद तो तय है कि अगानिस्तान तालिबान का होगा, लेकिन तालिबान लोकतंत्र और मानवाधिकारों की कितनी कद्र करेगा उसके अतीत से साफ है. अफगानास्तिान एक नये गृहयुद्ध से बच सकेगा, इसकी संभावना कम ही है. तालिबान पर यदि दुनिया भरोसा नहीं कर पा रही है, तो इसका कारण है उसका पुराना इतिहास.
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