Dr. Pramod Pathak
वैसे तो भारत के लिए जी 20 सम्मेलन का आयोजन एक बहुत बड़ा शो था और भारतीय शोमैनशिप का कमाल निस्संदेह काबिले तारीफ है. यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत ने अपनी अध्यक्षता की भूमिका बखूबी निभाई और वैश्विक स्तर पर एक बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरा. इंडोनेशिया में आयोजित पिछले जी 20 सम्मेलन की अपेक्षा इस बार का सम्मेलन एक मायने में अधिक सफल माना जाएगा कि दुनिया के कुछ महत्वपूर्ण एवं बुनियादी मुद्दों पर ठोस चर्चा की गई और समूह सदस्यों ने इस पर सहमति जताई. मगर केवल सहमति सफलता का पैमाना नहीं हो सकता. मुद्दों पर कितने देश ठोस कारवाई करते हैं यह देखना होगा. पिछले एक वर्ष में दुनिया की समस्याएं बढ़ी नहीं हैं तो कम भी नहीं हुई हैं. उनके समाधान में कितना ईमानदार प्रयास इस ताकतवर समूह के सदस्य देश कर पाते हैं, यह असली मसला है. इस समूह की अध्यक्षता का भारत को वैश्विक स्तर पर कितना लाभ मिलेगा, यह आकलन करना फिलहाल तो मुश्किल है, क्योंकि बहुध्रुवीय विश्व में नीतियां और समीकरण बहुत स्थाई नहीं होते.जिस तेजी से वैश्विक परिवेश और परिस्थितियां बदलती हैं, उसी तेजी से भू-राजनैतिक समीकरण भी बदलते हैं. फिर हर देश की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, अपना एक मूल एजेंडा होता है. ऐसी स्थिति में किसी भी तरह की भविष्यवाणी करना संभव नहीं. लेकिन इतना तो निश्चित है कि अपनी अध्यक्षता के इस एक वर्ष में भारत ने अपनी वैश्विक पहचान बढ़ाने का काम किया है.
शायद यही कारण है कि अमेरिका और रूस जैसी दो परस्पर विरोधी महाशक्तियां आज भारत की ओर विशेष सहयोग की उम्मीद लगा रही हैं. निश्चित तौर पर इसमें वह अपना व्यापक हित साधने का अवसर ढूंढ़ रही हैं. विशेष कर इसलिए कि कोरोना के बाद की दुनिया में आर्थिक हालात अभी भी बहुत स्थिर नहीं हो सके हैं और जमीनी वास्तविकता तो यही है कि आर्थिक मुद्दे राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं. यूक्रेन रूस युद्ध के शुरुआती दौर में ऐसा लगा था कि विवाद बहुत लंबा नहीं चलेगा, लेकिन यह आकलन गलत साबित हुआ. यह और बात है कि इसका आर्थिक स्तर पर पूरी दुनिया खामियाजा भुगत रही है. वैसे तो भारत अमेरिका के रिश्ते कमोबेश संतुलित ही रहे हैं, लेकिन इस युद्ध के बाद अमेरिका भारत के कुछ ज्यादा करीब आना चाह रहा है. और इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि उसका वैश्विक नेतृत्व कमजोर पड़ रहा है. यूरोप की आर्थिक स्थिति भी कोरोना के बाद बिगड़ी है. जाहिर है आर्थिक मामले ही संबंधों की प्रगाढ़ता निर्धारित करेंगे. वैसे तो अमेरिका भारत को हमेशा से एक बड़े बाजार के रूप में देखता रहा है. लेकिन आज उसे भारत में एक मजबूत सहयोगी की संभावना दिख रही है. एक समय था, जब अमेरिका पाकिस्तान की पीठ थपथपाता रहता था और चीन और भारत को व्यापारिक साझेदार मानता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह स्थिति बदली है. पहले कोरोना और इसके पश्चात यूक्रेन रूस युद्ध के बाद से वैश्विक परिदृश्य बदला हुआ है.
आज भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा बेहतर स्थिति में है. साथ ही भारत दुनिया के अन्य देशों की तुलना में एक बहुत बड़ा बाजार है. देखने वाली बात यह होगी कि अमेरिका और भारत का सामरिक संबंध कितना टिकाऊ होता है. आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्या रूस-यूक्रेन युद्ध है, जिससे पूरे विश्व पर अस्थिरता के बादल मंडरा रहे हैं. दूसरी समस्या है चीन का आर्थिक धीमापन. जाहिर है चीन अपने पत्ते नहीं खोलना चाहेगा. हालांकि रूस यूक्रेन युद्ध में वह रूस के साथ मजबूती से खड़ा दिख रहा है. इस युद्ध में भारत की स्थिति थोड़ी असमंजस की है. वह अमेरिका के करीब भी रहना चाहेगा और रूस के ख़िलाफ़ भी नहीं खड़ा होना चाहेगा. कमोबेश जी 20 सम्मेलन के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी रूस यूक्रेन युद्ध ही है. भारतीय कूटनीति की एक तरह से यह परीक्षा भी है. वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन वैसे तो बड़ा ही महत्वपूर्ण और वैश्विक हित का मंत्र हो सकता है, लेकिन समस्या यह है कि इसमें दूसरे राष्ट्रों के अपने स्वार्थ और अपने अहं आड़े आते हैं. इस सम्मेलन में चीन और रूस के राष्ट्रपतियों का नहीं आना इसी का संकेत है. जलवायु परिवर्तन का मसला भी जी 20 सम्मेलन के लिए एक चुनौती है. यह एक ऐसा मसला है, जिसमें वैश्विक हित के लिए निजी लाभ हानि से ऊपर उठना होगा.
विकासशील देश और विकसित देश इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं. इसी तरह 2030 तक सतत विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति में तेजी लाना भी इस सम्मेलन की एक परीक्षा है, क्योंकि पिछले कुछ दशकों में केवल लक्ष्य प्राप्ति की तारीखें ही बढ़ाई गई हैं. भारत ने 60 शहरों में 200 बैठकें करा कर दुनिया के सामने भारत की एक नई तस्वीर तो दिखाई है, लेकिन भारत के लिए इस सम्मेलन की सफलता वैश्विक पटल पर उसका कितना प्रभाव होता है इससे तय होगी. वैसे जी 20 समूह में अफ्रीकी यूनियन को शामिल करने पर सहमति जुटाना इसकी बड़ी सफलता है. दरअसल यदि रूस यूक्रेन युद्ध की बात छोड़ दें तो आज भी दुनिया की सबसे बड़ी समस्या गरीबी और अभाव से जूझ रही कोई एक अरब से ज्यादा आबादी है, जिसपर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है.
अफ्रीकी यूनियन का इस समूह में शामिल होना एक प्रगतिशील कदम है. खास कर इसलिए कि पिछले तीन-चार वर्षो में दुनिया भर में गरीबों की संख्या बढी़ है, लेकिन साथ ही बढ़ी है अरबपतियों की संख्या. यह भी गौर करने वाली बात है कि पिछले दो-तीन वर्षों में दुनिया के कई देशों ने हथियारों के मद में अपने बजट में काफी इजाफा किया है. दुनिया के इस समृद्ध देशों के सम्मेलन में समूह सदस्यों को भारत अपने नेतृत्व से कितना प्रभावित करता है यह महत्वपूर्ण होगा. वसुधैव कुटुंबकम का हमारा नारा तभी सार्थक होगा, जब हम सदस्य देशों के नेतृत्व को यह विश्वास दिला पाएं कि वैश्विक भविष्य की सुरक्षा के लिए यही मंत्र कारगर है. एक पृथ्वी है, एक भविष्य है यह तो सत्य है. लेकिन इस पर दुनिया को विश्वास दिलाना असली चुनौती है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.