Faisal Anurag
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के बावजूद निजीकरण की प्रक्रिया से सत्तारूढ़ मोदी सरकार पीछे क्यों नहीं हटना चाहती? जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में बाजपेयी सरकार को सत्ता से बेदखल करने में विनिवेश नीति का बड़ा योगदान था. पिछले 112 दिनों से किसान दिल्ली के बॉर्डर पर डटे हुए हैं. पंद्रह दिनों से विशाखापत्तनम के इस्पात मजदूरों का आंदोलन चल रहा है. दस लाख बैंककर्मियों की दो दिनों की हड़ताल के बाद बीमा कंपनी एलआईसी के कर्मचारी भी हड़ताल पर हैं. इसके साथ ही देश के अनेक हिस्सों में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के असंतोष की खबरें आती रहती है. रोजगार के सवाल पर बेरोजगार भी आक्रोश में हैं. हाल ही में ‘मोदी रोजगार दो’ ट्विटर पर तहलका मचा चुका है. नरेंद्र मोदी के अनेक भाषणों के सोशल मीडिया पर अनलाइक बढ़ने की चर्चा भी होती रही है.
बावजूद इसके पांच राज्यों के चुनावों में इसकी धमक नहीं सुनी जा रही है. केवल किसान नेताओं ने बंगाल के चुनावी अभियान के बीच हस्तक्षेप किया है. उन्होंने मतदाताओं, खासकर किसानों से कहा है कि वे भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में वोट नहीं करें. इन आंदोलनों ने एक नया नैरेटिव तो खड़ा किया है. बावजूद इसके भाजपा आक्रामक ही बनी हुई है. इस समय इन आंदोलनों ने सांप्रदायिक राष्ट्रवादी रुझान के खिलाफ नैरेटिव गढ़ा है. इन पांच राज्यों में भाजपा को सबसे ज्यादा भरोसा अपनी उस राष्ट्रवादी अपील पर ही है, जिसे हिंदू राष्ट्रवाद की संज्ञा दी जाती है. राजनाथ सिंह ने बंगाल में एक चुनावी प्रचार सभा में दावा किया है कि पांच राज्यों में वे बड़े बदलाव की बात कर रहे हैं. यदि यह चुनावी जुमला हो, तो भी इस तरह के बयान का साहस किन कारणों से पैदा होता है.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सहित कई भाजपा नेता निजीकरण के खिलाफ बात करनेवालों पर कम्युनिस्टों की भाषा बोलने का आरोप लगा रहे है. प्रतिरोध आंदोलन में एकजुटता का अभाव भी सत्ता विरोधी माहौल को गति नहीं दे पा रहा है. इस बात को कहने वालों का तर्क है. विपक्ष के बिखराव की बात भी करने वालों की कमी नहीं है. सोशल मीडिया पर विपक्ष के नेताओं की छवि हर दिन धूमिल करने की प्रवृत्ति चरम पर है. मीडिया भी लोकतंत्र में प्रहरी की भूमिका छोड़ कर सत्तापक्ष का प्रचारक बन चुका है. बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि आंदोलन हो रहे हैं और उसमें लोगों की बडी संख्या में भागीदारी भी हो रही है. इन आंदोलनों को राजनीतिक बदलाव की ओर उन्मुख करने का सवाल सबसे गंभीर है. पिछले कुछ सालों से भारत में आंदोलन तो हो रहे हैं, लेकिन वे अपने को अराजनीतिक बताने की होड़ करते रहते हैं. अन्ना आंदोलन के समय में भी यह देखा गया था कि उसके नेता खुद को अराजनीतिक बताते थे. जिन लोगों ने उस आंदोलन में स्वयं को अराजनीतिक बताया, वे ही भाजपा या आम आदमी पार्टी के सहयोगी बन गये. यानी उस आंदोलन की साख को बनाने के लिए ही ‘अराजनीतिक’ शब्दावली का इस्तेमाल हुआ जबकि उसके इरादे पहले से ही साफ थे.
लेकिन 2014 के बाद के आंदोलनों में इस तरह के इरादे नहीं दिखे हैं. किसान नेता भी भाजपा को हराने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन यह सतर्कता बना कर कि उनपर किसी का पक्ष लेने का आरोप नहीं लगे. तो क्या यह सतर्कता भारतीय जनता पार्टी को ताकत देती है कि वह अपने राष्ट्रवाद को ध्रुवीकरण का आधार बना दे. निजीकरण से पीछे नहीं हटने और कृषि कानूनों को रद्द नहीं करने के और भी कई कारण हैं. पांच राज्यों में किसान आंदोलन के प्रभावों को कम करने के लिए भाजपा अब संशोधन और एमएसपी की बात अपने ही कुछ नेताओं से जरूर करा रही है. इसमें सतपाल मलिक भी शामिल हैं, जिनका बतौर राज्यपाल अब तक तीन तबादला किया जा चुका है. राजनाथ सिंह ने भी संशोधन की बात कही है.
केरल और तमिलनाडु में भाजापा को बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद भी अपनी संकीर्ण राष्ट्रवादी अपील पर ही है. हालांकि सीएए के सवाल पर उसे अपने ही गठबंधन के दल अन्नाद्रमुक के विरोध का सामना करना पड़ रहा है. द्रमुक के बाद अन्नाद्रमुक ने भी अपने चुनाव घोषणा पत्र में सीएए का विरोध किया है. लेकिन दक्षिण के राज्यों की तुलना में भाजपा बंगाल और असम पर ही ज्यादा जोर दे रही है. तो क्या बंगाल और असम 2019 के लोकसभा चुनावों की तरह भाजपा का साथ देंगे. 2019 के आम चुनाव में भाजपा को बंगाल में लगभग 30 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. इस तथ्य की पड़ताल जरूरी है कि 2014 के बाद से ही आर्थिक और सामाजिक सवाल चुनावों में एजेंडा क्यों नहीं बन पा रहे है. 2015 में बिहार और 2018 के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनाव ही ऐसे हैं, जिनमें आर्थिक और समाजिक सवालों ने राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण को कामयाब नहीं होने दिया. कहा जा सकता है कि राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति को चुनावी कामयाबी से रोका जा सकता है. लेकिन इसके लिए एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक नीति पर फोकस करने की जरूरत है.
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