Nidhi Nitya
स्त्री भी एक इंसान है और इंसान बहुत बार स्वार्थी हो जाता है. कंफ्यूज हो जाता है और जीवन में बहुत बार ग़लत निर्णय भी लेता है. इसमें अचरज नहीं मुझे. हर बात पर स्त्री को किसी भी रूप में ग्लोरीफाई करना अब ओवर रेटेड होता जा रहा है.
बेहतर होगा मां या स्त्री को भी एक इंसान की तरह देखा जाये औऱ उससे भी सामान्य इंसानी व्यवहार की उम्मीद रखी जाए. बजाय उसे देवी बनाकर महानता का दर्जा देने के.
इससे स्त्रियों का जीवन कहीं अधिक सरल हो जाएगा. उनकी गलतियों को भी सामान्य इंसानी भूलों की तरह स्वीकार किया जाने लगेगा. ना कि पाप या अपराध मानकर अपमानित किया जाएगा.
” स्त्रियों को दैवीय गुण मिले ना मिले पर इंसानी अधिकार मिल जायें यही बहुत है और उनकी प्रथम आवश्यकता भी है.”
अब बात करते हैं वुमन्स डे और फेमिनिज़्म की.
” फेमिनिज़्म या नारीवाद, राजनैतिक आन्दोलनों, विचारधाराओं और सामाजिक आंदोलनों की एक श्रेणी है, जो राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत, सामाजिक और लैंगिक समानता को परिभाषित करने, स्थापित करने और प्राप्त करने के एक लक्ष्य को साझा करते हैं. इसमें महिलाओं के लिए पुरुषों के समान शैक्षिक और पेशेवर अवसर स्थापित करना शामिल है. साथ ही सामाजिक वा पारिवारिक समानता, शारीरिक वा मानसिक स्वास्थ्य वा स्वतंत्रता के समान अवसर वा अधिकार की मांग की जाती है.”
सीधे शब्दों में परिवार, समाज व कार्यस्थल पर समान अधिकार वा सम्मान के साथ-साथ स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार मांगती हैं महिलाएं बस.
और इन सभी बातों की तरफ समाज का ध्यान आकर्षित कराने के लिए वुमन्स डे की शुरुआत की गयी. जो अपने मूल विचार और उद्देश्य से हटकर अब कई उप विचारधाराओं में बंट गया है. अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है.
फेमिनिस्ट कहलाने की अपेक्षा अब मुझे मनुष्य कहलाया जाना अधिक भाता है. मैं खुद को एक स्त्री के रूप में सम्मान देती हूं और मनुष्य होने के लिए धन्यवाद देती हूं. साथ ही समाज औऱ परिवार के संतुलन को कायम रखने के लिए पुरुषों का समान वा सामान्य सहयोग आवश्यक समझती हूं. साधुवाद देती हूं आज के सजग पुरुषों की सार्थक व सहज विचारधारा को जो स्त्री को देवी की तरह नहीं एक सम्मानित साथी की तरह सहजता से स्वीकार करते हैं. ऐसी सोच वाले पुरूष अभी कम ही सही पर बेहद मजबूत और आवश्यक हैं नये समाज के निर्माण के लिए.
बाकी निचले और बिना पढ़े लिखे या संवेदनहीन तबकों में आज भी स्त्री का अपने अस्तित्व वा अधिकारों के लिए संघर्ष जारी है. उनकी लड़ाई ब्रा के स्ट्रेप, कमोड वाली तस्वीर, छोटे कपड़े, मेकअप या चार दिन के बच्चे के साथ ऑफिस में काम करते हुए तस्वीर खिंचवाने से कहीं अधिक बड़ी है.
ये वुमन्स डे दरअसल अब उनकी ही लड़ाई का हिस्सा है जो ना फेसबुक जैसे किसी सोशल मीडिया में हैं. ना ही लिख सकती है. ना ही जिनको पढ़ने का अवसर मिला और सबसे अधिक दुख की बात कि वे शोषित हैं. और उनके भी अधिकार हैं वे इस बात से भी अनजान हैं.
मेरा आह्वान हर मजबूत स्त्री से है कि हर कमज़ोर और अपने अधिकारियों से अनजान स्त्री तक उसके अधिकारों की बात पहुंचाये औऱ उसका साथ दे उनको मजबूत बनाये.
बस यही किया जा सकता है.
बस यही किया जाना चाहिए.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार है