Faisal Anurag
यह तनातनी है या फिर राजनैतिक तोलमोल. नीतीश कुमार के तीन ताजा रूख के क्या संकेत हैं. अब तक भाजपा और नरेंद्र मोदी के हर फैसले के साथ खड़े नीतीश कुमार के अचानक पेगासस जासूसी की जांच की मांग कोई बगावत है या फिर विपक्ष की रणनीति को दिग्भ्रमित करने का एक प्रयास है. मोदी सरकार के नजरिए से अलग हटते हुए नीतीश कुमार ने जाति जनगणना कराने की मांग को दुहराया है. इसके साथ ही वह पेगासस जासूसी की जांच की मांग कर भी नरेंद्र मोदी को चौका दिया है. नीतीश कुमार का यह रूख और भी है और वह है कि मजबूरी के मुख्यमंत्री की धारणा को तोड़ने की बात करने लगे हैं. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता हे कि उनका भाजपा से मोहभंग हो गया है. हाल तक उनके विरोधी रहे उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार को पीएम मैटेरियल बता कर राजनैतिक प्रेक्षकों को भी चौका दिया है. हालांकि नीतीश कुमार भी जानते हैं विपक्ष उन्हें स्वीकार करेगा, इसमें अनेक बाधाएं पहाड़ बन कर खड़ी हैं.
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नीतीश कुमार और भ्रष्टाचार के लिए सजा पाए हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के जेल से छूट कर आने के बाद दोनों नेताओं ने मुलाकात पर भी भाजपा की नजर है. ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के नेता रहे हैं और इनका पोता इस समय भाजपा के साथ हरियाणा में साझा सरकार में है और उपमुख्यमंत्री है. चौटाला ने जेल से रिहा के बाद उन दलों को एक साथ आने का न्योता दिया है जो कभी सामाजिक न्याय के नाम पर साथ थे. लेकिन चौटाला या नीतीश कुमार को भाजपा से परहेज नहीं रहा है. यह घटनाक्रम ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे और विपक्ष को एकजुट करने के प्रयासों के बाद हुआ है. ससंद के दानों सदनों में भी विपक्ष ने पेगासस के सवाल पर पूरी एकजुटता दिखायी है. पिछले सात सालों में यह पहला अवसर है जब विपक्ष ने बहुमत वाली सरकार को बैकफुट पर ला खड़ा किया है. राहुल गांधी ने 17 दलों के नेताओं के साथ ब्रेकफास्ट के माध्यम से एक ऐसा संदेश दिया हे कि प्रधानमंत्री को एक बार फिर विपक्ष पर तल्खी से हमला करने के लिए बाध्य कर दिया है. प्रधानमंत्री मोदी अपने ही दल के उस रूख को भूल गए हैं जो डा. मनमोहन सिंह की सरकार के समय संसद को ठप कराने के लेकर है. विपक्ष सवाल पूछ रहा है कि आखिर जब इजराइल, हंगरी और फ्रांस पेगासस की जांच कर रहे हैं और अमरिका भी इसके समर्थन में है. तब भारत सरकार की क्या मजबूरी है कि वह बहस भी नहीं कराना चाहती. विपक्ष का एक ही सवाल है कि केंद्र सरकार या उसकी किसी एजेंसी ने पेगासस खरीदा या नहीं यह बता दे. जैसे जैसे पेगासस जांच की मांग का सवाल गंभीर हो रहा है मोदी, शाह, डावोल तीनों के खिलाफ ही बाते भी होन लगी हैं.
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ऐसे समय में नरेंद्र मोदी के सहयोगी नीतीश कुमार ने जांच की माुग कर भाजपा के साथ अपने संबंधों में तानातनी बढ़ाया है या विपक्ष की एकजुटता के प्रयास को भ्रमित करने का प्रयास किया है. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब सरकार के ही समर्थक दल पक्ष और विपक्ष दोनों में दिखने लगें. उपेंद्र कुशवाही भी जानते हैं कि 2017 में जिस तरह नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ पलटीमार कर सरकार बनाया था. पूरे देश में उनकी साख प्रभावित हुई थी. विपक्ष के खेमे में इस साख का संकट अब भी बरकरार है. नीतीश कुमार की राजनीति का मुख्य फोकस अति पिछड़ों को अपने साथ रखने पर है. केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद भाजपा ने भी यह प्रयास तेज कर दिया है कि यूपी और बिहार में वह दलितों और पिछड़ों के बीच अपनी ताकत को मजबूती बना कर अपराजेय चुनावी ताकत बन जाए. बंगाल में भी देखा गया था के नरेंद्र मोदी ने पूरे चुनाव प्रचार को जिन तीन मुद्दों पर केंद्रित किया था उनके एक दलित पिछड़ों के राजनैतिक सम्माान दिलाने का भी था. हालांकि बंगाल ने नरेंद्र मोदी के इस प्रयास को खारिज कर दिया क्योंकि ममता बनर्जी की राजनीति वाममोर्चा को इसी आधार पर अपदस्थ किया था जिसमें पिछड़े और दलित समूहों की बड़ी भूमिका थी.
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नीतीश कुमार के ताजा रूख को देख तो यही कहा जा सकता है कि वह भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग को बिहार में कम करने के लिए ही इस तरह के कदम उठा रहे हैं. साफ है नीतीश चौटाला से मिल कर भाजपा को यह संकेत दे रहे हैं कि उनकी महत्ता और उनके वोट आधार को छूने का प्रयास नहीं किया जाए. वैसे भी 2017 के बाद ऐसे कई मौके आए हैं जब नीतीश दिखे तो बागी लेकिन मोलतोल करने के लिए इसका इस्तेमाल किया. 2019 के चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी की एक तरह से हार के बावजूद उन्हें भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया. बिहार भाजपा के नेताओं ने अपने इस अहसान को बारबार दिखाया भी है. नीतीश कुमार को भाजपा के ही एक नेता ने मजबूरी का मुख्यमंत्री बताया था. नीतीश कुमार समझ रहे हैंं कि ममता बनर्जी की जीत ने भाजपा के मनोबल को प्रभावित किया है और विपक्ष को करीब आने का अवसर भी दिया है. नीतीश अपने महत्व को दिखाने और भाजपा में गरिमा हासिल करने से ज्यादा अब शायद ही कुछ सोचते हों. उनके बयानों को विपक्ष भी समझता और भाजपा भी समझ रही है. यह कदम नीतीश कुमार को राजनैतिक फायदा देगा या नहीं यह तो वक्त ही साबित करेगा. बिहार के विशेष राज्य के दर्जै की मांग की तरह ही नीतीश कुमार के नए रूख का हश्र तय दिख रहा है.
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