तमाशों की शौकीन राजनीति को किसानों का आंदोलन इवेंट लग रहा है. आंदोलन इवेंट नहीं बल्कि असंतोष और दर्द से पैदा होता है. शाहीनबाग के दौर से ही भारत में आंदोलनों को तमाशा बताने का प्रोपेगेंडा जोरों पर है. शासकों को सबसे ज्यादा चीढ प्रतिरोध के स्वर से ही होती है. आंदोलनों को विदेशी साजिश कहने की परंपरा 70 के दशक में ही शुरू हो गयी थी लेकिन उसे तमाशा कहने का साहस नहीं था. लेकिन पिछले छह सालों से असहमति और प्रतिरोध से नाराज शासकों के लिए आंदोलन विदेशी और विपक्षी साजिश भर है. आंदोलनों में शामिल लोगों की नागरिकता तक पर सवाल उठाये जाने का सिलसिला बताता है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों को ले कर कितनी सजगता शासकों के समूह में है. किसान आंदोलन को प्रधानमंत्री तो बेमतलब का इवेंट बता रहे हैं. एक ओर आंदोलन को विदेशी प्रभाव और विपक्ष की साजिश से लैस बताया जा रहा है दूसरी ओर किसानों को बातचीत के लिए आमंत्रित भी किया जा रहा है.
भाजपा ओर केंद्र सरकार ने किसानों पर जिस तरह के चौतरफा प्रोपेगेंडा का प्रहार किया है और मीडिया भी उकसा सहयात्री है, उससे यह मंशा तो साफ ही है कि तीनों कानूनों को रद्द करने के लिए सरकार तैयार नहीं है. एक ऐसे दोराहे पर सरकार है जो अपने तमाम आजमाये हथियारों के इस्तेमाल के बावजूद किसानों की एकता को कमजोर नहीं कर पा रही है. और न ही उनका हौसला तोड पा रही है वहीं दूसरी ओर उसे किसानों के बढते प्रभाव का अंदेशा भी सता रहा है. किसान न तो 90 हजार करोड के धन से प्रभावित हैं और न ही वे प्रधानमंत्री के तर्को से कन्विस हैं. तीनों कानूनों के प्रावधानों को ले कर किसानों की समझ साफ है. अमेरिकी मॉडल पर भारत के कृषि में बदलाव से किसान सहमत नहीं हैं. साथ ही कृषि उत्पादों के प्रति दो बडे कारपॉरेट घराने के निशाने को ले कर भी उनकी समझ स्पष्ट है. अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं जहां ठेकाखेती ने किसानों के लिए कई नयी मुसीबतें पैदा की हैं. मध्यप्रदेश और पंजाब में इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. सवाल है कि प्रधानमंत्री देश भर के किसानों से संवाद तो कर रहे हैं लेकिन वे दिल्ली बार्डर के चारो दिशाओं में बैठे किसानों को नजरअंदाज क्यों कर रहे हैं.
किसी भी आंदोलन के असर और उसके प्रभाव क्षेत्र को कम कर नहीं आंका जाना चाहिए. अमरीका में ब्लेक मैटर्स आंदोलन ने राजनैतिक तौर पर बदलाव की जीमन खडा किया. ट्रंप यह समझ ही नहीं पाये कि जार्ज फ्लायड की मौत ने किस तरह श्वेत व अश्वेत अमेरिका को प्रभावित किया है. किसानों का आंदोलन जैसे जैसे बढ रहा है केंद्र की आर्थिक नीतियों को लेकर बहस उतनी ही तेज हो रही है. किसानों के साथ श्रमिकों कर सहानुभूति एक नयी राजनीतिक करवट का संकेत भी देता है. भाजपा नेताओं का तर्क है आंदोलन के बावजूद उनकी चुनावी जीत प्रभावित नहीं हो रही है. बिहार और उपचुनावों के नतीजों से भाजपा इस निष्कर्ष पर पहुंची है लेकिन एक बुनियादी तथ्य को वह नजरअंदाज कर देती है कि कोई भी आंदोलन एक लंबी राजनीतिक लाइन जल्दबाजी में नहीं खींचता है.
हाल के इतिहास में देखा गया कि 1977 में इंदिरा गांधी ने जब चुनावों की घोषणा किया तो उनकी हार की कोई भी भविष्यवाणी करने को तैयार नहीं था. उनकी चुनावी सभाओं में भारी भीड भी हो रही थी. लेकिन उत्तर पश्चिम भारत के चुनावी नतीजों ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया. इसके उल्लेख का सिर्फ इतना की आशय है कि किसी भी आंदोलन के राजनैतिक असर को अलग थलग नहीं देखा जाना चाहिए.
एक माह तक किसानों ने शीतलहरी का मुकाबला कर दिखा दिया है कि उनके इरादे कितने ठोस हैं. मुद्दों को ले कर किसानों की प्रतिबद्धता के कारण ही यह संभव हो पाया है. महीने भर बाद भी किसान और उनका नेतृत्व पूरी ताकत से आगे बढने का इरादा जता रहा है. 35 संगठनों ने जिस तरह के तालमेल और एकता का प्रदर्शन किया है वह भी कोई समान्य परिघटना नहीं है. किसानों ने मीडिया पर निभरता भी खत्म कर दिया है. इस कारण मीडिया प्रापेगेंडा से अब तक बचे हुए हैं. किसानों ने एक अखबार ट्राली टाइम्स के नाम से छापना शुरू किया है. उनके सोशल मीडिया पर 15 लाख से ज्यादा लोग जुड़ चुके हैं. किसी भी आंदोलन में यह एक ऐसा प्रयोग है जो सूचना का समानंतर परिदृश्य खडा कर मुख्यधारा मीडिया के प्रचारयुद्ध का मुकाबला कर रहा है. आंदोलन में शामिल महिलाओं की भूमिका भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का मील का पत्थर है. वे केवल खाना तैयार करने में पुरूषों के साथ नहीं हैं बल्कि मंच संचालन में भी भूमिका निभा रही हैं. कला की दुनिया के लोगों ने भी आंदोलन में शामिल हो कर अपनी कला प्रतिबद्धता का ही इजहार किया है. भारत के लिए यह भी एक ऐसा मिसाल है जो कला की दुनिया में जनप्रतिबद्धता का नया मानक बना रहा है. कला की जन जबाव देही का नया मिसाल बना है.