Shrawan Garg
देश के विकास पर नजर रखने वालों के लिए इस जरूरी जानकारी का उजागर होना निराशाजनक है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक (global hunger index) में दुनिया के 116 मुल्कों के बीच भारत 2020 में अपने 94वें स्थान से नीचे खिसककर 101वें पर पहुंच गया है. हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल 76वें, म्यांमार 71वें और दुश्मन पाकिस्तान 92वें स्थान पर हैं. खबरों के मुताबिक, सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे की संयुक्त रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिंताजनक बताया गया है.
इसके पहले की एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि कोरोना महामारी के दौरान एक साल में देश में 10000000000 रुपये (एक हजार करोड़) से अधिक की संपत्ति वाले उद्योगपतियों की संख्या बढ़कर 1007 हो गयी. यानी महामारी के दौरान 179 नए लोग इस सूची में जुड़ गए. इसी अवधि में गौतम अडाणी ने प्रतिदिन 1002 करोड़ रुपये कमाए. आंकड़े इस बात के भी उपलब्ध हैं कि कोरोना काल में कितने करोड़ लोग मध्यम वर्ग से खिसक कर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल हो गए.
दोहराने का अर्थ नहीं है कि अगर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति में हाल में देखे गए आंशिक सुधार को छोड़ दें तो इस समय देश में बेरोजगारी पिछले पैंतालीस सालों में सबसे अधिक है. कोरोना से हुई मौतों की तरह ही इस सबके सही आंकड़े भी कभी प्राप्त नहीं बताए जाएंगे कि देश में गरीबी और बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति क्या है, कोरोना काल में कितने लोग और गरीब हो गए, कितनों ने कर्ज के चलते आत्महत्याएं कर लीं और कि आने वाले सालों में हालात कितने बेहतर या बदतर होने वाले हैं!
गांधी जी ने एक ताबीज ईजाद किया था. उसका फॉर्मूला दिल्ली में राजघाट स्थित उनकी समाधि पर एक शिला पर अंकित है. उसमें कहा गया है: मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूं. जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए तो इसका प्रयोग करो. उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो, जिसे तुमने कभी देखा हो और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा?
शोध का विषय हो सकता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा हो, उद्योग-धंधे ठप पड़े हों, करोड़ों मजदूर घरों में बेकार बैठे हों, करोड़ों नए नाम बेरोजगारों की सूची में जुड़ गए हों, शॉपिंग मॉल्स और बाजार सूने पड़े हों, जनता की क्रय-शक्ति को लकवा मार गया हो, महामारी के इलाज ने परिवार के परिवार आर्थिक रूप से तबाह कर दिए हों, हजार करोड़ से ज्यादा की हैसियत वालों की संख्या फिर भी कैसे बढ़ गयी होगी! ये लोग क्या किसी ऐसे व्यवसाय में लगे हैं जिसका आम आदमी की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं है? चारों तरफ जब अकाल पड़ा हो, तब लहलहाती हुई फसलें लेने का चमत्कार कैसे संभव है? कोई तो कारण अवश्य रहा होगा!
गांधी जी ने एक ताबीज ईजाद किया था. उसका फॉर्मूला दिल्ली में राजघाट स्थित उनकी समाधि पर एक शिला पर अंकित है. उसमें कहा गया है: मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूं. जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए तो इसका प्रयोग करो. उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो, जिसे तुमने कभी देखा हो और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा? तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएं और स्वार्थ पिघलकर खत्म हो गए हैं.
विश्व बैंक के आंकड़ों की मदद से पिऊ रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने बताया है कि कोरोना काल के दौरान देश में दो डॉलर (लगभग डेढ़ सौ रुपये) प्रतिदिन से कम की क्रय क्षमता वाले नागरिकों की संख्या छह करोड़ से बढ़कर लगभग चौदह करोड़ (आबादी का दस प्रतिशत) हो गयी है. भारत ने वर्ष 2011 के बाद से अपने गरीबों की गणना नहीं की है पर संयुक्त राष्ट्र के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, यह संख्या लगभग सैंतीस करोड़ या कुल आबादी का लगभग सत्ताईस प्रतिशत थी. कोराना काल के आंकड़े भी इसमें शामिल कर लिए जाएं तो संख्या और बढ़ जाएगी.
सवाल यह है कि जो संस्थाएं यह गिनती कर सकती हैं कि हज़ार करोड़ की हैसियत वाले सुपर रिच क्लब में कितने और रईस बढ़ गए हैं या कि देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति मुकेश अंबानी की संपदा बढ़कर 7.18 लाख करोड़ रुपये हो गयी है, क्या कभी सबसे गरीब व्यक्तियों की भी गणना करके देश को बताएंगीं? या इन ग़रीबों में भी सबसे गरीब का चेहरा उन मीडिया संस्थानों के लिए जारी करेंगी, जो नागरिकों को सरकार की तरह ही अमीरी के नकली सपने बेच-बेचकर बीमार कर रहे हैं? यही कारण है कि जब डोनॉल्ड ट्रंप अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में ‘नमस्ते ट्रंप’ के लिए कार से रवाना होते हैं तो रास्ते में पड़ने वाली गरीबों की झुग्गियों को छुपाने के लिए रातों-रात नक़ली दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं. हमें लोगों को गरीब रखने में शर्म नहीं आती, हमारी गरीबी के दिख जाने में शर्म आती है.
अमेरिका की बात छोड़ दें (भारत की तरह वहां भी ट्रंप के कोरोना काल में एक सौ तीस नए उद्योगपति अरबपतियों के क्लब में शामिल हो गए) तब भी यह जानना जरूरी है कि हमारे पड़ोस में चीनी राष्ट्रपति ने अपने यहां उन बड़े-बड़े अरबपतियों की गर्दनें नापना शुरू कर दिया है, जो वित्तीय संस्थानों से लिए गए कर्ज नहीं लौटा रहे हैं. उन पर बड़े-बड़े जुर्माने ठोके जा रहे हैं. उद्देश्य असमानता को पाटना और संपन्नता को सभी नागरिकों में बांटना है. चीन में शिखर पर बैठे एक प्रतिशत लोग देश की इकतीस प्रतिशत संपदा के मालिक हैं. क्या भारत में भी कभी कोई ऐसा दिन देखने को मिलेगा, जब जिन अस्सी करोड़ लोगों को गर्व के साथ अभी मुफ्त का अनाज बांटा जा रहा है, उन्हें आत्मनिर्भर (भारत) कर दिया जाएगा? अमीर इसी तरह अरबपति होते रहे और गरीब और ज्यादा गरीब तो किसी दिन वैज्ञानिकों को ऐसा टीका भी ईजाद करना पड़ सकता है, जो सौ करोड़ नागरिकों को भूख के खिलाफ भी इम्यूनिटी प्रदान कर सके.
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