Satyendra ranjan
इस समय चल रहा किसान आंदोलन निकट भविष्य में कितना कामयाब होगा, फिलहाल कहना मुश्किल है. लेकिन दीर्घकालिक नजरिए से ये आंदोलन एक बहुत गहरा प्रभाव छोड़ेगा, इसमें कोई शक नहीं है. इसकी वजह यह है कि इस आंदोलन ने देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) के साथ-साथ संवैधानिक व्यवस्था की अद्भुत समझ दिखाई है. अपने शुरुआती दिनों से इस आंदोलन के नेतृत्व ने दो-टूक शब्दों में कहा कि केंद्र सरकार ने कृषि कानून खेती-बाड़ी पर दो चुने हुए उद्योग घरानों का वर्चस्व कायम करने के मकसद से पारित कराया. पॉलिटिकल इकॉनमी का हर जानकार इससे परिचित है कि मौजूदा सरकार ने किस तरह कॉरपोरेट (उनमें भी कुछ चुने घरानों के) चंदे और हिंदुत्व के जज्बाती एजेंडे के साथ अपना राजनीतिक आधार बना रखा है.
अब किसान नेतृत्व ने सुप्रीम कोर्ट के दखल के सिलसिले में भारतीय संविधान की मूल व्यवस्था पर रोशनी डालने और उसके मुताबिक रुख तय करने का उल्लेखनीय बुद्धि- कौशल दिखाया है. सुप्रीम कोर्ट में ना जाना और उसकी बनाई समिति के सामने पेश ना होने का किसानों का फैसला भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप है. इस पहलू पर विस्तार से गौर करने की जरूरत है. न्यायपालिका सबसे ऊपर है, ये धारणा संवैधानिक योजना के विपरीत जाकर बनी- या यूं कहें बनाई गई है. वरना, भारतीय संविधान दुनिया भी अन्य विकसित लोकतांत्रिक देशों के संविधान की तरह शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत पर आधारित है. इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि कानून बनाने, नीति बनाने और उसे लागू करने, और कानून एवं नीतियां संविधान की मूलभूत भावना एवं योजना के मुताबिक हैं या नहीं इसे तय करने की जिम्मेदारी अलग संस्थाओं को दी जाती है.
इसी सिद्धांत के मुताबिक भारत में विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका के अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या भारतीय संविधान में है. इन तीनों में कोई किसी के ऊपर नहीं है. यानी अपने- अपने दायरे में ये समकक्ष हैं. जैसे न्यायिक व्याख्या के मामले में विधायिका या सरकार दखल नहीं दे सकती, वैसे ही विधायी और नीति निर्माण के मामलों से न्यायपालिका को खुद को अलग रखना चाहिए. लेकिन भारतीय राज्य-व्यवस्था में संविधान लागू होने के कुछ दशकों के बाद ये संतुलन अगर भंग हुआ, तो उसका एक संदर्भ है. वो संदर्भ सीधे तौर पर राजनीतिक दलों की साख में आई कमी, उनमें संवैधानिक व्यवस्था की लक्ष्मण रेखाओं को जताने के साहस और नैतिक बल के अभाव, और इमरजेंसी के बाद बनी खास स्थितियों से जुड़ता है.
इसी संदर्भ में न्यायपालिका ने हर क्षेत्र में अपनी पैठ बनानी शुरू की और उसे जनमत का समर्थन मिलता गया. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका ने खुद अपनी व्याख्या से जो शक्तियां अर्जित कीं, उसे शक्ति असल में जनमत से मिली. इस सिलसिले में कुछ पहलू गौरतलब हैं. मसलन, भारतीय संविधान कहीं बुनियादी ढांचे की व्याख्या और उसकी रक्षा का दायित्व न्यायपालिका को सौंपने का प्रावधान नहीं है. लेकिन यह व्याख्या खुद सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में दिए फैसले में की. उस निर्णय में कहा गया कि भारतीय संविधान का एक बुनियादी ढांचा है, जिसकी रक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट का है. यानी अगर विधायिका या सरकार ने बुनियादी ढांचे से छेड़छाड़ की, तो सुप्रीम कोर्ट उस कदम को रद्द कर देगा.
इसी तरह भारतीय संविधान में जन हित याचिका का कोई प्रावधान नहीं है. यह उपकरण जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर और जस्टिस पीएन भगवती के दौर में अस्तित्व में आया. उस समय सुप्रीम कोर्ट ने ये व्यवस्था दी कि किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा हो, तो कोई तीसरा पक्ष भी “जन हित” याचिका दायर कर सकता है और न्यायपालिका उस पर सुनवाई करेगी.
मौलिक अधिकार के रक्षक की अपनी भूमिका पर और जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में संविधान की नौवीं अनुसूची को अप्रभावी कर दिया. पहले ये प्रावधान था कि अगर इस अनुसूची में किसी कानून को विधायिका ने रख दिया है, तो न्यायपालिका उसकी संवैधानिकता की पड़ताल नहीं कर सकती. इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के दशक में दो फैसलों के जरिए उच्चतर न्ययापालिका में सारी न्यायिक नियुक्तियां अपने अधिकार क्षेत्र में ले लीं. पहले ये नियुक्तियां कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में थीं. आज भी दुनिया में कोई ऐसा लोकतंत्रिक देश नहीं है, जहां न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की कोई भूमिका नहीं हो. मौजूदा नियुक्ति व्यवस्था को पलटने के लिए संसद में आम राय से पारित संविधान संशोधन बिल को 2015 सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.
तो ये कुल पृष्ठभूमि है, जिसमें ये धारणा बनी कि न्यायपालिका सबसे ऊपर है. मगर ये धारणा या ये व्यवस्था इसीलिए इतने समय तक चल पाई, क्योंकि जनमत का भारी समर्थन न्यायपालिका के साथ था. उसके हस्तक्षेप को कार्यपालिका के मनमानेपन और विधायिका की नाकामियों का समाधान समझा जाता था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस मामले में भी जनमत साफ तौर पर बंट गया है. कृषि कानूनों में सुप्रीम कोर्ट ने दखल देने की तत्परता दिखाई, तो तुरंत यह सवाल उठाया गया कि कश्मीर में धारा 370 रद्द करने की संवैधानिकता, कश्मीर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं, नागरिकता संशोधन कानून की संवैधानिकता, उसके खिलाफ आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई को दी गई चुनौती, आदि जैसे मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही तत्परता क्यों नहीं दिखाई?
कृषि कानूनों को जिस तरह राज्यसभा में पारित कराया गया, उसे कोर्ट में चुनौती दी गई है. कई राज्यों ने इन कानूनों को इस आधार पर चुनौती दी है कि ये राज्यों के अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सुनवाई में भी तत्परता नहीं दिखाई है. इसके विपरीत उसका खुद “कोर्ट और ट्रिब्यूनल” यानी पंचाट के रूप में सामने आना अजीबोगरीब है. किसान आंदोलन ने इस बात को समझा. उसके नेतृत्व ने साफ कर दिया कि उसकी सीधी मांग सरकार से है, जिसने कानून बनाया है और नीति निर्माण जिसके अधिकार क्षेत्र में आता है. उसने कोर्ट की मध्यस्थता से खुद को अलग रखा. ऐसा करते हुए किसान नेतृत्व ने न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखाओं की स्पष्ट समझ दिखाई है. उसने यह राजनीतिक समझ भी दिखाई है कि जनमत के जिस समर्थन से न्यायपालिका की ताकत बढ़ी, आज वह जनमत विभाजित और ध्रुवीकृत है.
किसान नेतृत्व के इस समझ को देश में उभर रही एक नई राजनीतिक चेतना का संकेत माना जा सकता है. दीर्घकाल में यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए किसान आंदोलन के एक बड़े योगदान के रूप में दर्ज किया जाएगा.