Neeraj Sisodia
भारतीय न्याय व्यवस्था दुनियाभर की सबसे बड़ी न्याय व्यवस्थाओं में से एक है. भारतीय संविधान ने इसे कार्यपालिका से अलग स्वतंत्र दर्जा दिया है. अफसोस कि आजादी के 75वें साल में भी न्याय व्यवस्था आबादी के अनुरूप सामंजस्य बिठाने में नाकाम रही है. यही वजह है कि आज न्याय आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय कई पूर्व मुख्य न्यायाधीश इस पर चिंता भी जता चुके हैं. हाल ही में विधि मंत्रियों और विधि सचिवों के अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्याय में देरी पर चिंता जताते हुए इसके समाधान के प्रयासों पर जोर दिया. प्रधानमंत्री की यह चिंता जायज भी है.
दो माह पूर्व लोकसभा में कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने देश की अदालतों में लंबित मामलों का ब्योरा पेश करते हुए कहा था कि देश की विभिन्न अदालतों में लगभग पांच करोड़ मामले लंबित हैं. एक जुलाई 2022 तक सुप्रीम कोर्ट में 72,062 मामले लंबित थे, जबकि 25 जुलाई तक देश के 25 उच्च न्यायालयों में 59,55,873 मामले लंबित थे. वहीं, जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में 4.23 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक, विभिन्न अदालतों में कुल 4.83 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह वक्त के साथ न्याय व्यवस्था में जरूरी परिवर्तन का न होना है. फिल्म जॉली एलएलबी में कुछ हद तक न्याय व्यवस्था की चुनौतियों को दर्शाने का प्रयास किया गया था. जब न्याय मिलने में देरी होती है तो संवैधानिक संस्थाओं के प्रति नागरिकों का भरोसा भी कमजोर होता है. उनके आत्मविश्वास में भी कमी आती है.
सरकार की ओर से न्याय को लेकर वैकल्पिक समाधान की व्यवस्था भी शुरू की थी. इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले, लेकिन अंतत: यह उतना कारगर साबित नहीं हो पाया. ज्यादातर मामलों में पुलिस या संबंधित अधिकारियों द्वारा दबाव डालकर समझौते कराए जाने लगे. खास तौर पर पारिवारिक विवादों के मामलों में यह अस्थाई समाधान तक ही सीमित होकर रह गया. दबाव में किए गए समझौते अंतत: अदालतों की दहलीज तक पहुंच जाते हैं. इससे न्याय में देरी कम होने की जगह और बढ़ गई. नतीजा यह हुआ कि पीड़ित निजी स्तर पर ही न्याय तलाशने में जुट जाते हैं. इसके लिए एक और मुकदमा तैयार हो जाता है. पति-पत्नी के बीच विवाद के मामले में ऐसा अधिक हो रहा है. इंसाफ के लिए कभी थाने, कभी लोक अदालत तो कभी न्यायालयों के चक्कर काटते-काटते एक 22 साल की लड़की 45 की उम्र पार कर जाती है. फिर भी उसे न्याय नहीं मिल पाता. अगर एक अदालत से न्याय मिल भी जाए तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फेरे लगाने में उसकी पूरी जिंदगी तबाह हो जाता है. अंत में उसे कानूनी तौर पर भले ही न्याय मिल जाए मगर उसकी जिंदगी के साथ इससे बड़ा अन्याय शायद ही कुछ हो सके. इसी तरह जमीनों से संबंधित मामलों में कई पीढ़ियां अदालतों के चक्कर काटती थक जाती हैं, लेकिन न्याय नहीं मिल पाता. एक गरीब आदमी अगर स्थानीय अदालत से किसी तरह न्याय हासिल भी कर ले तो भी उसके न्याय का सफर खत्म नहीं होता है. दूसरा पक्ष हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है. अब कन्याकुमारी के गरीब मजलूम को अगर न्याय चाहिए तो उसे दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट जाना होगा. जिस इंसान के पास रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पैसे नहीं हैं तो वह बार-बार दिल्ली जाने और सुप्रीम कोर्ट में वकील करने का खर्च कहां से लाएगा? ऐसे कई उदाहरण हैं जो यह दर्शाते हैं कि अदालत से न्याय हासिल करना एक गरीब आदमी के लिए संभव नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गरीब की इस पीड़ा को अखिल भारतीय सम्मेलन में रखा था. न्यायपालिका के समक्ष दूसरी सबसे बड़ी चुनौती कानूनों का सरल एवं सहज भाषा में न होना है. हमारे कानून स्थानीय भाषा में उपलब्ध ही नहीं हैं. अदालती भाषा को समझना एक आम आदमी के बस की बात नहीं है. एक महिला जो अपने पति की प्रताड़ना की शिकार है. वह अपने पति से अलग होना चाहती है, लेकिन उसे मासिक खर्च की राशि पति से नहीं दी जा रही है. उसे अगर न्याय चाहिए तो पहले स्थानीय अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक अथाह पैसा खर्च करना होगा. इस बीच उसका भरण-पोषण कैसे होगा, अदालतों में मुकदमे लड़ने का खर्च वह कहां से लाएगी? यह सोचने वाला कोई नहीं है. जो सक्षम होती हैं वे लड़ती हैं, लेकिन बेबस महिला इसे नियति मानकर जुल्म सहती रहती है. बात सिर्फ महिलाओं की ही नहीं है. यह दास्तान हर उस गरीब की है, जिसे न्याय चाहिए मगर उसके पास उस न्याय को हासिल करने के लिए धन नहीं है. यही बेबसी उसे न्याय से वंचित कर रही है.
वर्तमान हालात यह दर्शाते हैं कि न्याय व्यवस्था में सुधार की बेहद आवश्यकता है. सिर्फ सम्मेलनों में चर्चा मात्र से इसका समाधान संभव नहीं है. इस दिशा में मंथन के साथ ही क्रियान्वयन की भी आवश्यकता है. न्याय व्यवस्था पर आज भी भारतीयों का भरोसा बरकरार है, लेकिन भविष्य और भी भयावह हो सकता है. न्यायपालिका से धीरे-धीरे आमजन का विश्वास उठता जा रहा है. यही हालात रहे तो अदालतें सिर्फ अमीरों के मुकदमों तक ही सीमित रह जाएंगी और न्याय सिर्फ अमीरों को ही नसीब हो पाएगा. इसलिए अभी से कारगर कदम उठाने होंगे. पूर्व की गलतियों को सुधारने के लिए अब ज्यादा समय शेष नहीं रह गया है.